सुपरिचित युवा रचनाकार अंबर पाण्डेय द्वारा लिखित श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास माँमुनि का पश्यंती द्विभाषीय पत्रिका में धारावाहिक रूप से प्रकाशन किया जाएगा। प्रस्तुत है इस उपन्यास की पहली किश्त।
उलूध्वनियों और शंखघोष के मध्य पाँचवर्ष की नववधू ने गृहप्रवेश किया। चौके से उठकर भात सींझने की सुगन्ध पूरे गृह में भरी थी। शुद्ध जल की निर्गंध भी सूँघी जा सकती है, ऐसे ही जल से भरे लोटे, कलश और घटों से समृद्ध गृहस्थी में चन्द्रामणिदेवी प्रसन्नमन काल काशुंदी का शाक सुधार रही थी। अतिथियों के लौट जाने पर भी गृह की उत्सवधर्मिता निशेष न हुई थी। स्थान स्थान पर पुष्पमालायें, अधखाए बताशे, उतार कर भुलाये गए काँच के कंकन, गली हुई हरिद्रा की कटोरियाँ पड़ी हुई थी।
आभूषणों से लदी नववधू चन्द्रामणिदेवी के सम्मुख आसन पर आलथी पालथी मारकर मौन बैठी हुई थी। चन्द्रामणिदेवी का ज्येष्ठ पुत्र रामेश्वर विवाह में आए मिष्ठान का हलवाई से हिसाब करने गया था। गदाधर का सदैव की भाँति पता न था कि कहाँ गया है।
“माँ की याद आ रही है बेटी?” चन्द्रामणिदेवी ने लाड़ से पूछा।
नववधू ने प्रथम बार नयन ऊपर उठाए। वह रूलाई रोकने का प्रयास कर थी। उसके बड़े बड़े रोहू जैसे नयनों में जल भर आया। हँसिया परे कर, चन्द्रामणिदेवी ने हाथ खोलकर नववधू को निकट आने का संकेत किया। नववधू चन्द्रामणिदेवी की गोद में आकर फफक फफककर रोने लगी।
“रोना नहीं दुलारी। कह, क्या खाएगी? मिष्टीदोई खाएगी? न, रात्रि को नहीं; ज्वर चढ़ जाएगा। अभी श्रीराधाकांत मन्दिर के प्रसाद का पेड़ा मँगाती हूँ तेरे लिए।”
नववधू ने चन्द्रामणिदेवी के स्तनों से चिपकते हुए मंदस्वर में कुछ कहा। चन्द्रामणिदेवी को समझ में नहीं आया।
“क्या खाएगी? क्या कह रही है बिटिया?”
“सुपारी” अबकी बार नववधू का स्वर स्पष्ट था।
“ओह हो सुपारी खाएगी मेरी बहू। दूध के दाँत टूटे नहीं और सुपारी खाएगी। ठीक है, गदाधर के आते ही तेरे लिए सुपारी मँगाऊँगी। पहले गदाधर को भी सुपारी का बहुत व्यसन था। विषयासक्ति बढ़ने से भय से उसने सुपारी त्याग दी।तू यहीं ठहर, मैं गदाधर से कहकर तेरे लिए सुपारी मंगवाती हूँ”।
कहकर चन्द्रामणिदेवी चौका छोड़ ‘गदाधर गदाधर’ टेरती बाहर चली आई। रामेश्वर हाथ में मछली लिए लौटता था। रामेश्वर का दस वर्षीय पुत्र अक्षय भी पीछे पीछे कन्धे पर विशाल काशीफल उठाए आ रहा था। चन्द्रामणिदेवी तुरंत रामेश्वर के रास्ते से हट गई। विधवा होने के कारण मछली से गन्ध से भी दूर रहती थी। वह जानती थी कि पुत्र-पौत्र तो उन्हीं के चौके का बना भात-साग आनन्दचित्त होकर खाते है किंतु बहू के लिए मछली आवश्यक थी। एकादशी को बहू भात खाकर रह जाए ऐसा अशुभ उन्हें स्वीकार न था।
रामेश्वर ने बाहर ही बने चूल्हे के किनारे केले के पत्ते पर मछली रख दी। पास में पड़े लोटे से वह हाथ-पैर धोने लगा।
“तुम मछली भीतर चौके में रख आओ, रामेश्वर। अब गृहस्थी बहू की हुई। मैं पीछे गौशाला से लगे कमरे में अपना भात बना लूँगी” चन्द्रामणिदेवी के शब्दों में कोई वेदना न थी वरन उनके शब्दों में हर्ष ही अधिक था।
“किंतु वहाँ तो तुम इतने समय से चौका करती आ रही हो। वहाँ कैसे….” रामेश्वर से कहा।
“बहू बाहर भोजन बनाए और मैं विधवा स्त्री उसके चौके में बैठकर भात बनाकर खाऊँ ऐसे अशुभ की तुम मुझसे आशा मत करना, रामेश्वर” चन्द्रामणिदेवी का स्वर रूष्ट था।
“तब तो गदाधर ही आकर निर्णय करेगा” रामेश्वर ने उत्तर दिया
“काका तो बुधुई मोड़ल श्मशान में प्रेतों को भोग लगाने गए है ” अक्षय ने कहा।
“हरे! हरे! विवाह को पक्ष भी नहीं बीता और गदाई श्मशान चला गया। रामेश्वर जल्दी से जाकर ले आ बेटा उसे। नया वर और ऐसे लक्षण” चन्द्रामणिदेवी घबराने लगी हालाँकि गदाधर का श्मशान में प्रतिदिन का आना जाना था। प्रेत, ब्रह्मराक्षस, भूतगणादि उसके मित्र थे। वह उनके लिए मधु, मिष्ठान, मूड़ी, मछली और न जाने कौन कौन सी भोज्यसामग्रियाँ ले जाता था।
नववधू चूड़ा और दही खाकर ही चन्द्रामणिदेवी की गोद में प्रतीक्षा करते करते सो गई थी। अक्षय भी भोजन से भरी थाली सम्मुख धर पिता और काका की प्रतीक्षा करता ऊँघ रहा था। चन्द्रामणिदेवी क्रोध से भरी एक हरी संटी लिए आँखें फाड़ फाड़कर अपने दोनों पुत्रों का रास्ता देख रही थी। देर रात दोनों भाई परस्पर बातें करते लौटे।
“माँ, अर्धरात्रि होने आई अभी तक तुम सोई नहीं?” गदाधर ने हँसते हुए पूछा।
“हाँ मैं तो नहीं सोई किंतु तुम्हारी नववधू तुम्हारी प्रतीक्षा करते करते भूखी ही सो गई” चन्द्रामणिदेवी ने गुस्से से कहा
“भूखी क्यों सो गई। भोजन क्यों नहीं किया?” गदाधर चन्द्रामणिदेवी के निकट आकर बैठ गए और उनकी गोद में सोई नववधू के कंकण से खेलने लगे।
“पति से पूर्व खाने की तो बंगाल की भूमि पर रीति नहीं है। क्यों है क्या?” चन्द्रामणिदेवी गदाधर के हाथ से नववधू का हाथ छुड़ाते बोलीं।
“यदि पति में परमेश्वर है तो क्या संसार के समस्त मनुष्यों में परमेश्वर नहीं है! तब क्या पूरे संसार के भोजन करने पर भोजन करेगी मेरी वधू?” गदाधर ने पुनः नववधू का हाथ पकड़ लिया।
“तुम्हारे प्रलाप की आवश्यकता नहीं मुझे और न मेरी बहू को है। छोड़ो उसका हाथ। अपनी बहू का गुरुजनों के आगे हाथ गहना शोभा देता है क्या?” चन्द्रामणिदेवी ने पुनः नववधू का हाथ गदाधर के हाथ से छुड़ाया इस बार उन्होंने अपनी हरी संटी उठा ली।
गदाधर को इसमें और भी आनंद आने लगा। माँ के हाथ से मार खाने का सुख विवाह के पश्चात् तो दुर्लभ ही था किंतु अवसर इतनी जल्दी प्रकट हो जाएगा ऐसी आशा न थी।
“पण्डित के आगे, अग्नि को साक्षी रखकर पूरे समाज के सम्मुख हाथ में हाथ लेने तो तुम्हीं ने भेजा था। अब क्या अपनी नववधू का हाथ भी न गहूँ!” गदाधर ने कहा और हँसने लगे। नववधू को भूमि पर पड़ी चटाई पर सुलाकर चन्द्रामणिदेवी हरी संटी लिए गदाधर के पीछे दौड़ी। अक्षय ऊँघते ऊँघते जाग पड़ा और तालियाँ बजाने लगा।
“गदाई, मैं कहती हूँ मेरे हाथ आ जा” चन्द्रामणिदेवी चिल्लाई।
“पूरे कामारपुकुर में दौड़ाऊँगा” गदाधर हँसते जा रहे और घर ही घर में भागते थे।
जब चन्द्रामणिदेवी थककर बैठ गई तब रामेश्वर ने बीचबचाव किया। इतने में नववधू भी आँखें मलती उठकर बैठ गई थी।
“भोजन में पहले ही देर हो गई है माँ। गदाई का तो भोर से व्रत है। जल तक ग्रहण नहीं किया।” रामेश्वर ने कहा।
“ये क्या कह रहा है तू गदाई ने जल तक ग्रहण नहीं किया” चन्द्रामणिदेवी चिंतित होकर जल्दी जल्दी पत्तल पर भात परोसने लगी।
“मेरे लिए यह रूखासूखा शाक-भात और दादा के लिए माछ! मेरी नासिका का बल अभी तक क्षीण नहीं हुआ है। पूरा घर मछली की गन्ध से भरा है” गदाधर ने भात से भरी पत्तल परे सरका दी।
“अब विधवा स्त्री तेरे लिए मछली बनायें!? इतने दिनों से तो मेरे हाथों के बने भात और शाक में सुख पाता था” चन्द्रामणिदेवी अचानक रोने लगी। वह अपने लिए जो भात परस रही थी उसे ज्यों का त्यों छोड़ दिया।
“काका मछली तो रात्रि को ही लाए है पिताजी” अक्षय ने कहा। वह शीघ्र ही भोजन कर लेना चाहता था, बहुत भूखा था।
“मुझे सब पता है। मेरे लिए तो कोई मछली कभी लाया नहीं किन्तु बहू के आते ही उसका सत्कार आरम्भ हो गया। मैं मछली ही खाऊँगा” गदाधर से क्रोध से कहा।
“ठीक है तब मैं भी नहीं खाती” चन्द्रामणिदेवी ने चौके से उठकर देहरी के बाहर हाथ धो लिए।
“ओ माँ, बहू आए दो दिन नहीं बीते और बेटा बदल गया” यों कहकर चन्द्रामणिदेवी नववधू को छाती से चिपकाकर रोने लगी।
“माँमणि, आप भोजन न करेंगी तो मैं भी आपसे रूष्ट हो जाऊँगी” नववधू ने चन्द्रामणिदेवी से चिपकते हुए कहा।
“माँ, तुम चिंता न करो। मैं गदाई के लिए मछली बना देता हूँ। अधिक समय न लगेगा” रामेश्वर की मध्यस्थता का यही ढंग था।
“तुम क्यों बनाओगे। मेरी बहू बनाएगी। इसी के हाथ से बनी मछली खाऊँगा” गदाधर ने कहा और नववधू की धोती की किनोर खींचने लगा।
“हठ क्यों करते हो गदाई। इस अल्पवय में अर्धरात्रि तुम्हारी लिए मछली बनाएगी वह!” रामेश्वर ने कहा।
“हाँ तो सब सोच समझकर उसके तात और माता ने उसे ब्याहा है” गदाधर ने हठ ठान लिया था।
“बिटिया, तुझे मछली बनाना आती है क्या? चौके का भार कैसे उठाएगी यह पाँच वर्ष की कन्या। मान जा, गदाई, ऐसा हठ तो तू कभी नहीं करता” चन्द्रामणिदेवी ने आँखों से अश्रु पर अश्रु गिरे जाते थे।
“आप चिंता मत करो माँमणि। मुझे माँ ने मछली बनाने की विधि सिखाकर भेजा है” नववधू खड़ी होकर बोली। उसके नयनों में निद्रा ही निद्रा थी किन्तु संकल्प भी प्रबल था।
गदाधर ने उसका हाथ पकड़ा और दोनों बाहर आ गए। शुक्लपक्ष की दशमी के चन्द्रमा में चूल्हे पर रखी मछली की आँखें चमक रही थी।
“ओ माँ, यह तो जीवित है” नववधू दौड़कर पीछे हट गई।
“तू चिंता मत कर राधिकाकिशोरी। तुझे मछली बनाना आता भी है भला?” गदाधर मछली सुधारने में लग गया।
“तो फिर मुझे माँमणि की गोद से उठाकर क्यों लाए। अच्छीभली सो रही थी मैं और हाँ मेरा नाम राधिकाकिशोरी नहीं है” नववधू ने गुस्सा होकर गया।
“मैं तेरा स्वामी हूँ। तू मेरी स्त्री है। जहाँ मैं रहूँगा वहाँ तुझे भी रहना होगा। जिस नाम से तुझे टेरूँगा वही तेरा नाम होगा” गदाधर सरसों कूटते हुए बोला।
“ओ माँ तो तुम मुझे श्मशान भी ले जाओगे? भूतप्रेतों के लिए चूल्हाचौका करवाओगे?” नववधू ने आँखें फाड़ फाड़कर पूछा।
“अब तेरे मातापिता ने ऐसे वर से तेरा विवाह कर दिया तो फल तो भुगतना होगा” गदाधर ने नववधू को और भी अधिक डराया।
“तुम झूठे हो। मैं तुम्हारे संग कहीं पर भी न जाऊँगी” रोते रोते नववधू भीतर की ओर भागी।
भीतर चन्द्रामणिदेवी को रामेश्वर मंदस्वर में कुछ कह रहे थे। अक्षय अब भी बिना भोजन को हाथ लगाए पत्तल के ऊपर ऊँघ रहा था। नववधू के आते ही जाग पड़ा।
“क्या काका मछली बना रहे है तो मैं यह भोजन नहीं करता?” अक्षय ने नववधू से पूछा।
“तुम्हारे काका अच्छे पुरुष नहीं है। कहते है मुझे श्मशान में रखेंगे। भूतों के लिए मुझसे भोजन बनवाएँगे” नववधू कोने में बैठकर रोने लगी।
अपनी गम्भीर बातें छोड़कर चन्द्रामणिदेवी ने नववधू से कहा, “हट पगली तू भी कौन पगले की बातों में आ गई। श्मशान में कोई गृहस्थ रहता है कभी!”
“मेरे स्वामी बहुत दुष्ट है” नववधू अब हिलग हिलगकर रोने लगी।
“अपने पति के लिए ऐसे वचन कोई उचारता है भला! तू चिन्ता मत कर। मैं देखती हूँ कैसे ले जाता है तुझे भूतों का भोजन बनवाने” चन्द्रामणिदेवी ने नववधू को आश्वासन दिया।
“जिसको भी संसार की सबसे स्वादिष्ट मछली खाना हो, जल्दी से अपनी पत्तल लेकर बाहर आ जाए” गदाधर ने बाहर से बुलाया।
“काका मुझे खाना है” अक्षय अपनी पत्तल लेकर बाहर दौड़ा।
“मुझे भी” नववधू भी गदाधर से अभी अभी हुआ झगड़ा भूलकर बाहर को दौड़ी।
भीतर केवल चन्द्रामणिदेवी और रामेश्वर रह गए।
“माँ अब तुम भी थोड़ा सा भात खा लो” रामेश्वर ने कहा।
“तू बाहर जा। गदाधर तुझे मछली खिलाए बिन स्वयं नहीं खाएगा” चन्द्रामणिदेवी पत्तल पर स्वयं के लिए शाक परोसने लगी।
“माँ, लाहाबाबू गहने लौटाने को कह रहे थे” रामेश्वर ने कहा।
“दादा, बाहर आने में कितनी अबेर और? माछ पुनः जीवित होकर भाग जाएगा” गदाधर ने आवाज दी। नववधू और अक्षय खीखी करके हँसने लगे। उत्सव के समय मन के वृक्ष में नयी नयी कितनी डालियाँ फूट पड़ती है और नूतन ही फूल खिलते है। रामेश्वर दौड़ते बाहर आ गये।
भीतर चन्द्रामणिदेवी के अश्रु उन्हीं के भात में टपटप गिर रहे थे। वह अनभिज्ञ खाती भी जाती थी और रोती भी जाती थी। स्वर्णाभरणों के भार से बन्धुरगात्रि उनकी बहू कितनी तो सुंदर लगती है। उसके सब आभूषण उतारकर अब लौटाने होंगे। कुल की मर्यादा रह जाए इसलिए लाहाज़मींदारों से आभूषण उधार लिए थे। उन्हें इतनी भी शीघ्रता क्या है आभूषण लेने की। बहू के पिता उसे जयरामवाटी ले जाते तब माँग लेते। क्या उन्हें सन्देह है कि चन्द्रामणिदेवी अपने पुत्र, पौत्र और पुत्रवधू के संग उनके आभूषण लेकर रातोंरात अदृश्य हो जाएगी! क्या रामेश्वर और गदाधर का उन्हें विश्वास नहीं! निराभरण बहू को कैसे देखेंगी चन्द्रामणिदेवी? जब बहू पूछेगी कि माँमणि मेरे आभूषण कहाँ गए तो क्या कहेंगी ?
बाहर दोनों भाई एक ही पत्तल में मछली के टुकड़े के लिए झगड़ रहे थे। जो भाग रामेश्वर लेते वही भाग गदाधर को भी चाहिए होता।
“तुम्हारे जूठे में विशेष स्वाद है दादा” गदाधर खाते कम थे झगड़ा अधिक करते थे।
रामेश्वर हँसते रहते और देखते गदाधर ने कुछ नहीं खाया है।
हाथ धोकर जब गदाधर भीतर आया सब सो चुके थे। केवल चन्द्रामणिदेवी चटाई पर अपने हाथ के ऊपर मस्तक रखे मौन पड़ी हुई थी। वह सोई नहीं थी। गदाधर उनके सम्मुख भूमि पर ही लेट गया।
“पत्नी के हाथों का भोजन ही केवल प्रिय है। उसके संग शय्या पर सोना अच्छा नहीं लगता” चन्द्रामणिदेवी ने व्यंग्य किया और मुख फेरकर सो गई। उन्होंने जानबूझकर व्यंग्य किया था। वह नहीं चाहती थी कि इन्हें रोती देखकर गदाधर को कोई कष्ट हो। इतने समय पश्चात् तो उसका वायुदोष दूर हुआ था। वह गदाधर को किसी भी चिन्ता में नहीं डालना चाहती थी। गदाधर अपनी माँ की पीठ से चिपककर सो गया।
(क्रमश:)
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