बीसवीं शताब्दी के आरंभ का केरलीय समाज विसंगतियों का रहा था। जाति-धर्मों पर केन्द्रित आर्थिक-व्यवस्था के बदले में पूँजीवादी विशेषताओं की व्यवस्था का आरंभ और अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मध्यवर्गीय लोगों का विकास इस ज़माने में हुए। फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार उपन्यास राष्ट्रीय रूपक है।
केरल में उपन्यास के आरंभ में ही अधिकार के खिलाफ एक प्रतिसंस्कृति के निर्माण का स्वभाव व्यक्त करता आ रहा था। परंपरा में अडिग रहते हुए आधुनिकता को स्वीकारने, उपनिवेश द्वारा निर्मित इतिहास के विरुद्ध इतिहास बोध को रूपायित करने, सामाजिक संस्थाओं और अधिकारों की संस्थाओं के इतिहास को पुनर्व्याख्यायित करने, नूतन राष्ट्रीय बोध को गठित करने में प्रारंभिक उपन्यासकार ओ.चंदु मेनोन और सी.वी. रामन पिल्लै समर्थ हुए। इस कार्य ने आगे और भी ठोस रूप धारण किया पी. केशवदेव, तकषी और बशीर आदि की रचनाओं के ज़रिए। इसका तात्पर्य है कि सबकी नियामक एवं नियंत्रण शक्ति के रूप में विद्यमान ऊपरी शक्ति के खिलाफ विद्रोह एवं प्रतिरोध शुरुवाती मलयालम उपन्यासों से लेकर नज़र आते हैं। लेकिन प्रगतिशील एवं आधुनिक उपन्यास स्त्रैण अनुभवों की गुणवत्ता को स्वीकार नहीं कर पाए। पुरुष केन्द्रित सामाजिक संस्थाओं से खुले सवाल उठाने में समर्थ साहित्यिक प्रवृत्तियों के निर्माण करने एवं विद्यमान स्त्री- पक्ष चिंतनों को गहरा बनाने में वे कामयाब नहीं हुए। उपनिवेश शासन के दौरान यहाँ रूपायित आधुनिकता ने तो तर्क केन्द्रित एवं पुरुष प्रधान संस्थाओं को जन्म दिया। उस समय के सामाजिक एवं राजनैतिक आन्दोलनों तथा अन्य सुधारकों के सामने भी स्त्री की मुक्ति विषय नहीं थी।
मलयालम में के.सरस्वति अम्मा, ललितांबिका अंतर्जनम, माधविकुट्टी, सारा जोसफ, पी.वत्सला, के.आर. मीरा आदि उपन्यासकार स्त्री-विमोचन संबंधी विषय बदलते समयानुरूप प्रस्तुत करने में कामयाब हुईं। उनमें केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार अंतर्जनम का उपन्यास ‘अग्निसाक्षी’, सारा जोसफ का ‘आलहयूटे पेण्मककल’(आलहा की बेटियाँ) और के.आर.मीरा का ‘आराच्चार’(बधिक) प्राप्त हुए हैं।
ललितांबिका अंतर्जनम का जन्म 1909 मार्च 30 को कोल्लम जिल्ला में कोट्टारक्करा के पास एक ब्राम्हण परिवार में हुआ। उन दिनों स्कूली शिक्षा प्राप्त करने का मौका ब्राह्मण लड़कियों को मिलता नहीं था। इसलिए घर में गुरुओं से संस्कृत, मलयालम, अंग्रेज़ी और हिन्दी भाषाओं की शिक्षा मिली थी। उनका पति नारायणन नपूतीरी था। सात संतानों में एन.मोहनन मलयालम के प्रसिद्ध कथाकार थे। अंतर्जनम ने अपने आरंभिक जीवन में ब्राह्मण समाज के परिष्कार में भाग लिया था। उन्होंने केरल साहित्य अकादमी कार्यकारिणी सदस्या और उपाध्यक्षा का कार्यभार संभाला था। साहित्य सहयोग संघ की निदेशक सदस्या के रूप में भी उन्होंने काम किया। 1973 में ‘सीता से सत्यवती तक’ के आलोचनात्मक ग्रंथ को केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उन्होंने एक ही उपन्यास लिखा, वह है ‘अग्निसाक्षी’। उस केलिए 1977 में केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार, केन्द्र साहित्य अकादमी पुरस्कार, ओडक्कुषल सम्मान, प्रथम वायलार अवार्ड आदि प्राप्त हुआ। 1987फरवरी 6 को उनका निधन हुआ। उनके मुख्य कहानी-संग्रह हैं-माणिक्य और अन्य प्रधान कहानियाँ, ललितांबिका अंतर्जनम की संपूर्ण कहानियाँ, बाल साहित्य-गोसाई द्वारा कथित कहानी, तेनतुल्लिकल(शहद की बूँदें), कुंजोमना, आत्मकथा के लिए एक भूमिका, सीता से लेकर सत्यवती तक(निबंध) आदि।
अंतर्जनम के एकमात्र उपन्यास ‘अग्निसाक्षी’ के लिए केन्द्र साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस उपन्यास में ब्राह्मण गृह(मना) के वातावरण की समस्यायें और समाज की समस्याओं की बहुस्वरता के बीच की दूरियों का ऐतिहासिक विश्लेषण बड़ी संजीदगी से किया गया है। मांनपल्लि माना(ब्राह्मणों का घर ) ब्राह्मण-परंपरा और वैदिक धर्म के कठोर संयम के रास्ते पर चारों ओर लहरायित स्वतंत्रता आंदोलन एवं सामाजिक उद्धार से दूर चला जा रहा है। उण्णी नंपूतिरी इस मना की ओर शादि करके ले आ रहा है देवकी को। देवकी का बड़ा भाई शिक्षित, प्रगतिशील विचारों से संपन्न क्रान्तिकारी युवक है। देवकी विख्यात मानंपल्लि मना के माहौल में दम घुट रही है। उसको थोड़ा सा दिलासा देती है अपने पति के पिता के भाई की बेटी लक्ष्मी(तंकम)।
उण्णी हमेशा अपने मना की परंपरा को कायम करने के लिए सारे वैदिक आचरणों को पालने में दत्तचित्त है। अपनी युवा पत्नी को समझने और उसकी सास द्वारा उनपर होनेवाले कठोर नियंत्रणों की आलोचना करने में भी वह नाकाबिल है। अच्छे मुहूर्त में ही शयन कक्षा में प्रवेश करनेवाले उण्णी को लैंगिकता का मतलब संतानोत्पत्ति के लिए अनुसरण करनेवाली आचरण प्रक्रिया मात्र है। दमित लौगिकता एक स्त्री को कैसे पगली बनाती है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण है मानंपल्लि माना की पगली मामी। उण्णी के दादा ने अपनी बेटी की उम्र से भी छोटी एक स्त्री से शादी की। अपने पति की उपेक्षा से पगली बनकर वह मना के अंधकारपूर्ण वातावरण में ज़िन्दगी काटती है। यह देवकी के लिए अवश्य आशंका एवं भय पैदा करती है। देवकी अपने मन को लक्ष्मी के आगे खोल देती है, लेकिन लक्ष्मी जब से कॉलेज गई तब से यह अवसर भी नष्ट हो गया।
कहानी हमारे सामने लक्ष्मी की ओर से अनावृत हो रही है। ‘अफन्टे मकल’(उस समय ब्राह्मण परिवार में बड़े भाई को मात्र अपनी जाति से शादी करने का अधिकार था और अनुज लोगों को ‘अफन’ कहते हैं, जो दूसरी जातियों से शादी करता है। मकल-बेटी) होने के नाते ब्राह्मण समाज में अनेक प्रकार के निर्मम शोषण की शिकार झेलनी पड़ती है लक्ष्मी को। ‘अफन’ जब ज़िन्दा तो अपनी पत्नी और बेटी की परवरिश का सारा दायित्व निभाता था। लेकिन मृत्यु के तुरंत बाद माँ-बेटी को घर से निकलना पड़ा। शिक्षा को बीच में समाप्त कर लक्ष्मी ने शादी की। लक्ष्मी कई सालों बाद बनारस के स्नान-घाट में सुमित्रानंदमयी से मिलती है। तब देवकी से सुमित्रानंदमयी तक की जीवन यात्रा का खुलासा होता है। तब तक देवकी अपनी ज़िन्दगी की अंतिम वेला तक पहुँच चुकी थी। देवकी का भाई जब कानून को तोड़ने से कारागृह में था तब उनके परिवार को प्रतिबंधित किया गया। देवकी की माता के अंतिम समय में उससे मिलने की अनुमति सास और अप्फन ने नहीं दी। उसके पहले ही देवकी की ज़िन्दगी मना में दुष्कर बन चुकी थी। पगली मामी के मृत्योपरांत एक साल का आचार-अनुष्ठान के लिए दीक्षा लेने को निश्चय किया उण्णी ने। वह कभी भी अपनी पत्नी की यौनानुभूतियों को महत्व नहीं देता था। देवकी अपने घर गई। उसके बाद सामाजिक मंचों पर देवकी मांनपल्लि नाम से वह प्रकट होने लगी।
देवकी और लक्ष्मी आधुनिक समाज में स्त्री द्वारा चुने जानेवाले दो स्वत्वों को प्रतिनिधित्व करती हैं। लक्ष्मी विवाह, परिवार आदि सामाजिक संस्थाओं से गुज़रकर अपने परिवार को निर्मित कर, पत्नी और माँ के रूप में भी एक अच्छी ज़िन्दगी तैयार करती है। लेकिन देवकी की ज़िन्दगी एक अंतर्जनम की ज़िन्दगी से झगड़ा कर विवाह के बंधन से बाहर की ओर बढ़ जाती है। विभिन्न नाम-तेतिक्कुट्टी, देवकी मानंपल्ली, सुमित्रानंदमयी –अपने नए स्वत्वों की तलाश के सूचक हैं। उसके बाहर की ओर आने का मतलब है कि निजी जीवन मात्र प्रासंगिक स्त्रैणलैंगिकता से उत्पन्न कुपित मन का आविष्कार है। एक बार देवकी मानंपल्ली अपने भाषण में कहती है “मैं किसी भी समुदाय, समाज या धर्म की प्रतिनिधि नहीं हूँ। मैं सदियों से शोषण की शिकार बननेवाली स्त्रियों की प्रतिनिधि हूँ। पर्दा फेंककर आपके सामने विद्यमान इस सत्य को आप लोग शाप दे सकते हैं और अनुग्रह दे सकते हैं। लेकिन यह नहीं भूलना है कि यह दु:ख-भार आप लोगों से प्रदत्त है”। ये शब्द पितृसत्तात्मक व्यवस्था का सबसे हिंसात्मक रूप ब्रह्मणत्व पर बाण समान धँस जाते हैं। तेतिक्कुट्टी गाँधी-आश्रम में इसलिए शामिल हो जाती है कि राष्ट्र को खुद को समर्पित करने और अपने क्रोध को क्रियात्मक रूप प्रदान करने के लिए। मलयालम की प्रसिद्ध आलोचक एम. लीलावती के अनुसार तेति में निहित निषेध का भाव उसके कर्मों को कलंकित नहीं करता है और उसका अन्वेषण उसकी माँ बनने की असफल इच्छा को सफल बनने के लिए है। उन्होंने कहा-“इस प्रकार अधन्य एक आत्मा को योगिनी में अंतर्जनम द्वारा दिखाया। तेतिक्कुट्टी का स्वातंत्र्य बोध के बढ़ने पर भी वह मातृतृष्णा की खूँटी से अपना बंधन तोड़ने में कमज़ोर दिखाई देती है। फिर भी वह ब्राह्मण के प्रभुत्व को तोड़ने में बिलकुल कामयाब हुई। पति से नहीं, जिस वैदिक प्रणाली को उण्णी नंपूतिरी प्रतिनिधित्व करता है, उससे है उसका प्रतिरोध। तेति एक स्थान पर कहती है- “मेरे भाई कहा करते थे कि इस दुनिया के लिए जो योग्य नहीं है वह परलोक के लिए भी योग्य नहीं है। लगता है कि यहाँ सबको ऐहिक सुख का ही विचार है”। यह ऐहिकता, भौतिकता और इतिहास पर भी ज़ोर देती है। अपनी दमित इच्छाएँ देवकी के कर्मकाण्डों की प्रेरणा बनती हैं। देवकी की सक्रियता का कारण सालों से ब्राह्मण स्त्रियों द्वारा भोगी जानेवाली पीड़ाएँ हैं। लेकिन उण्णी नंपूतिरी जाति-धर्म के घेरे में पड़कर बाहर की दुनिया से एकदम परिचित नहीं है। वह मशीन के सदृश्य सारा ब्राह्मण धर्म करता आ रहा है, उसकी पूर्ति का साधन मात्र है देवकी। उसका वह स्वार्थ पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा निर्मित भीषण स्त्री-शोषण है। यहाँ पितृसत्तात्म्क व्यवस्था सामान्य समाज में सक्रिय है आध्यात्मिक धर्म पद्धतियों के द्वारा। इसके खिलाफ किए गए आन्दोलन में सामाजिक जीवन और स्वजीवन को अलग-थलग करने के आशय को कोई स्थान नहीं है। एकबार जब देवकी नयी देवकी मानंपल्ली बनकर पतिगृह में आने को तैयार हुई तो साँस ने कहा कि नियमानुसार उसे प्रायश्चित करना है। उण्णी नंपूतिरी से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, शायद वह जानता है कि उसके बाद होनेवाले जीवन में संघर्ष सीमातीत होगा। यहाँ देवकी ने जो कदम आगे रखा वह पीछे की ओर ले जाने को लेखिका चाहती नहीं हैं। दूसरा जो है ब्राह्मण धर्म की केन्द्रीयता को मज़बूत करने में तैयार होनेवाला है उण्णी नंपूतिरि। लेखिका उद्घोषित करती हैं कि उन्हें शिथिल करना बड़ा कष्टपूर्ण कार्य है। आज भी हमारे सामने का सत्य यह है। स्त्रीस्वत्व का यह प्रतिरोध कालातीत सत्य बनकर हमारे सामने है। यह समाज के सामने एक भौम विषय है।
सारा जोसफ
सारा जोसफ का जन्म 10-2-1946 में एक ईसाई परिवार में तृश्शूर जिला में कुरियिच्चिरा में हुआ। सरकारी कॉलेज में मलयालम की अध्यापिका रही थीं। अब अवकाश प्राप्त हैं। वे केरल के स्त्रीवादी आन्दोलन की प्रमुख संगठन कर्ता एवं कार्यकर्ता हैं। केरल साहित्य आकदमी की विशिष्ट सदस्या हैं वे। उनका प्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ उपन्यास ‘आलाहा की बेटियाँ’ को केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2003 का केन्द्र साहित्य अकादमी पुरस्कार, चेरुकाडु अवार्ड और 2004 का वायलार अवार्ड प्राप्त हुए। ‘माट्टात्ती’उपन्यास को प्रथम ओ. चन्दु मेनोन पुरस्कार मिला। इसके अतिरिक्त अबुदाबी अरंग अवार्ड, कुवैट कला पुरस्कार, 2007 का श्वाश्वती नाशनल अवार्ड, प्रथम कलैंजर करुणानिधि साहित्य पुरस्कार एवं अँग्रेजी अनुवाद के लिए प्राप्त क्रोसवेर्ड पुरस्कार(ओतप्पु) विशेष उल्लेखनीय हैं।
सारा जोशफ द्वारा लिखित मुख्य उपन्यास हैं-‘आलाहयुटे पेण्मक्कल’, ‘माट्टात्ती’, ‘ओतप्पु’, ’ऊरुकावल’। कहानियों के संग्रह हैं- मनस्सिले ती मात्रम, काटिन्टे संगीतम, नन्मतिन्मकलुटे वृक्षम, पापत्तरा, नीलाव अरियुन्नु, ओटुविलते सूर्यकान्ती, काटितु कन्डालो कान्ता, पुतुरामायणाम-रामयणकथकल, वीन्डुम परयुंबोल आदि। लेखन समाहार हैं-भगवतगीता के रसोई घर में एषुत्तुकार वेविक्कुन्नत, ’नम्मुटे अटूक्कला तिरिच्चु पिटिक्कुका’ आदि।
सारा जोसफ के ‘आलाहा की बेटियाँ’ में प्रत्यक्ष के अनुभवों की सामाजिकता धर्म-विकार बनकर ज़ाहिर होता है। उस उपन्यास में धर्मानुभव के विभिन्न पहलू संस्थापित धर्मों की आलोचना बनती है। यह उपन्यास ‘कोक्कांचिरा’ गाँव की जनता की स्थिति और प्रगति पर प्रकाश डालता है। उस गाँव में मनुष्यों के आवास का आरंभ भंगियों के आगमन के साथ है। उनके बाद वहाँ शराब बनानेवाले, बुच्चर लोग, रिक्षागाड़ीवाले आदि कई लोग आ गए। एक जमाने में लाश और नगर के कूड़ेकरकट को छोडने की जगह था वह कोक्कांचिरा। वह धीरे-धीरे एक नगर प्रांत बन गया। वहाँ व्यापारी लोगों, गुंडों और धर्म प्रचारकों की जड़ें जम गईं। इस उपन्यास के सबसे ज्वलंत पात्र हैं-अम्मामा और उसकी पोती आनी उन के आंगन के सेम का चबूतरा और उसका निकुंज घर पर निरंतर घटित होनेवाली दुर्घटनाओं के बीच में भी फूलते और फलते हैं। उसकी हरितिमा और शीतलता दूसरी दुनिया की है।
सेमों के बीच में मिट्टी खोदते वक्त जड़ों की जगह निकल आया हड्डि का टुक्कड़ा। नानी ने ज़ोर से थूका और सलीब खींचा, फिर आलहा का नमस्कार भक्ति के साथ रट लिया। वह दादी को सिखाया दादी की दादी ने। उसका अर्थ नहीं बोलना है। वह गिरिजाघर में नहीं प्रयुक्त किया जाता है, उस नमस्कार में धर्म बोध से ज़्यादा सामाजिक बोध है। आनी की माँ कोच्चुरोता दादी की इस तरह की रीति के खिलाफ है। वह ईसाई धर्म का कट्टर विश्वासी है। बाद में गिरिजा घर विमोचन समर का भाग बन गया तो जुलूस के आगे कोच्चुरोता थी। लेकिन दादी ने ईसाई धर्म छोड़कर सुरियानी को स्वीकार किया, क्योंकि वह सोचती है कि इससे अपनी बेटी को एक अच्छा रिश्ता मिलेगा। ज़िन्दगी के बोझों से मुक्त होने में असमर्थ दादी धर्म पर जकड़ी हुई नहीं है। पाँच लड़कियों में चेरिच्चि ही शादि करके खुशहाल में रहती है। आनी का पिता पाँच साल पहले घर छोड़कर चला गया। आनी को आपने पिता की याद भी नहीं। किसीको मालूम नहीं है कि वह ज़िन्दा है। या नहीं। दूसरा बेटा कुट्टिप्पाप्पन, कम्यूनिस्ट विश्वासी है, साथ ही साथ गाँधीवादी भी है। अब तपेदिक की बीमारी से कमशोर होकर, अंत्यकूदाशा से गुज़र रहा है। बड़ी बेटी का पति शादि के बाद सातवें दिन में गुज़र चुका है और एक बेटी पति से पीड़ित होकर घर छोड़ चली गई। चिन्नम्मा और चिय्यम्मा शादी की उम्र में हैं। वे बटन की कंपनी में काम कर रही हैं। दादी अपने पारिवारिक कष्टों के बीच में भी अक्षोभ्य होकर ज़िन्दगी काटती है। उत्साहपूर्ण जीवन की आसक्ति उसमें विद्यमान है। चारों ओर के बच्चों के भूत-प्रेत से उत्पन्न रोगों को निकालने के साथ, ज़रूरत पड़ जाए तो समाज को धैर्य भी प्रदान करती है। एट्टुमुरि के लोगों की ज़मीन एमंडन वारु द्वारा छीन लेने को तैयार हुआ तो गरीब उन लोगों को दादी ने साहस दिया। उसकी वाणी से ही कोक्कांचिरा का इतिहास खुल जाता है।
कोच्चुरोतु को दु:ख है कि आनी का पिता आस्थावादी नहीं था। लेकिन दादी कहती है कि ईश्वर क्या है, लेकिन मेरा कोच्चप्पन अच्छा मनुष्य है। युद्ध के समय सैनिक- सड़क की ज़मीन छोड़नी पड़ी दादी के परिवार को। तब उनको रास्ताविहीन बनकर कोक्कांचिरा में आकार रहना पड़ा। मूसलघार वर्षा में लाश को जिस स्थान में जलाया जाता था वहाँ से आग ले आकर परिवार को टप्योका पकाकर दिया और भूख को मिटाया दादी ने। दादी के अनुसार भूख से बड़ा पिशाच कोई नहीं है। जलाने के लिए जब ईंधन नहीं था, तब आनी की माँ कुट्टिपाप्पन के पुराना चर्खा को टुकड़ा-टुकड़ा करने लगी। कुट्टिपाप्पन चर्खा क्लास चलाता था। दादी के लिए चर्खा प्रिय है। कुट्टिपाप्पन उस उद्यम को रोकता है और फिर गिर जाता है। इसके साथ उपन्यास में यह सिद्ध करता है कि ईसाई गिरिजाघर हमेशा अपने मतों और विश्वासों की सुरक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार है। चावल केरलियों को जब दुर्लभ था तब दादी और आनी अंधेरे में बहुत दूर चलकर थोड़ा चावल लेकर आती हैं। रास्ते में चावल को छीनने को जो लोग खड़े हुए थे उनसे बच जाने का मार्ग दादी की प्रतिभा की देन है। यह मलयालम उपन्यास में दादी को एकदम अलग करता है। वह अपनी सहन करने की शक्ति से जीवन की सारी दुर्घटनाओं का सामना करती है। उसके विवेक में ज़रा सा विद्वेष भी नहीं है। उसकी धार्मिक जीवन दृष्टि में वह जो स्वातंत्र्य अनुभव करती है वह उसकी नैतिकता की उद्घोषणा है। दादी की यादें जब भूतकाल में जीने लगीं तो कोक्कांचिरा बिलकुल बादल गया था। चिन्नम्मा के जीवन में जो आपत्ति हुई वह दादी को झेलने से परे था।
उपन्यास का केंद्रीय स्वर बदलती आर्थिक स्थिति और वह मनुष्य को हाशिये की ओर धकेलने का है। वहाँ बिलकुल सदा के लिए वे विस्थापित हो जाते हैं। उपन्यास का स्थल मनुष्य जीवन को संपन्न बनानेवाले सामाजिक सहयोग का ही नहीं बल्कि वह उत्पादन संबंधों के माध्यम से मनुष्य समूह द्वारा निर्मित स्वामित्व के अधिकारों का विस्तार भौतिक अधिकारों के क्षेत्रों में चिह्नित है। कोक्कांचिरा के लोग वहाँ के उत्पादन में सीधे भाग लेने लायक शिक्षित नहीं हैं और उनके पास पूँजी भी नहीं है। अंबेडकर की भाषा में यदि कहा जाए तो वे हाशिकृत ये भारत में रहनेवाले हैं। पूँजी के अतिक्रमण में कोक्कांचिरा जब बदल गया तो वे विभिन्न रास्तों में बिखर गए और गायब हो गए। कोक्कांचिरा के कई इतिहास हैं कुट्टिप्पाप्पन के अनुसार। जैसे एट्टुमुरि के लोगों की ज़मीन जब धनिक एमंडन वारु खरीदता तो गिरिजाघर का पादरी उसके साथ था। कोन्निमेस्त्री की विशाल ज़मीन में ईसाई सन्यासिनियों द्वारा विद्यालय चलाने के लिए तीन मजिलों का मकान बनाया गया। लेकिन कोक्कांचिरा के लोगों का प्रवेश निषिद्ध है। वैसे ही भयानक कुत्तों द्वारा पहरा देनेवाले बड़े-बड़े घरों और संस्थाओं में भी उनको जगह नहीं है। अब कोक्कांचिरा को बड़ी-बड़ी आर्थिक संस्थाओं ने अधीन बनाया। दादी की स्मृतियों में अपने बचपन में सैनिकों का जो परेड देखा वह आयी।
स्त्री पक्ष में खड़े होकर सारा जोसफ इस उपन्यास में नया विश्व बोध तैयार करती हैं। मुक्ति के लिए विभिन्न विचारधाराओं का संकेत उपन्यास में प्राप्त है। शब्दों को बुलाकर अर्थ सिखानेवाले कुट्टीप्पाप्पन की कई बातें आनी की समाझ में नहीं आती हैं। जनता का विमोचन वह चाहता है। वह पाठ्यपुस्तकों की भाषा में बोलता है। उसमें कोक्कांचिरा की कोई भी बात नहीं है। विचारधारा इस अमूर्त स्तर के खिलाफ हमें दादी आलहा के नमस्कार को पढ़ना है। इसमें भाषा जादूभरी ध्वनियों से प्रार्थना और संगीत दोनों बनती है। ईसाई समाज की बोलचाल की भाषा के कण-कणों से उत्पन्न द्रविड़- दृढ़ता के शब्दों में जीवंत एक समूह की आशंकाएँ, दु:ख और दिलासा भी संलग्न हैं। उपन्यास में यह अंतर्पाठ अनुष्ठान के स्तर तक ऊपर उठता है। उसके प्रयोग की नैतिकता से वह समाज को एक कर देता है। इस नमस्कार के ज़रिए जागृत कर्तृत्व भाषा और संवेदना की ओर बहता जाता है।
इस उपन्यास का अंत सर्वनाश(Dystopian) के दृश्यों के साथ है। अर्थात यहाँ पुरुष केन्द्रित अधिकार- संरचना का विस्तार दिखाई देता है। हाशिए से हाशिए की ओर विस्थापित लोग पूँजीवाद का नित्य दृश्य हैं। सारा जोसफ द्वारा अंकित सामाजिक त्रासदियों के खिलाफ समाज के अवचेतन से उभर आनेवाले अमृत मंत्र हैं आलहा के नमस्कार। उसमें किनारे रहनेवालों की सामूहिक संकल्पना स्पंदित है। वह आनी से होकर एक नए समूह के सहयोग की बुनियाद डालने की संभावना उपन्यास में नहीं है। सड़क का विस्तार बढ़ाते वक्त हमेशा आनंद प्रदान करनेवाले फूले-फले सेमों का कुंज बुलडोज़र के नीचे दब गए। वहाँ का मीठा पानीवाला कुआ और लाल मिट्टी के रास्ते भी इसके पहले ही नष्ट हो गए थे। यह उपन्यास प्रतिरोध की सृष्टि कर बड़े पैमाने पर प्रसारित दर्शन को अपने शिल्प से अनावृत करता है।
के.आर. मीरा
समकालीन कथाकारों में सशक्त माधविक्कुट्टी एवं सारा जोसफ के बाद मलयालम में हुई सबसे प्रोफशनल लेखिका हैं के.आर. मीरा। वह माधविक्कुट्टी के समान अपनी पीढ़ी के पूरे पुरुष लेखकों से भी आगे हैं प्रतिभा और जनप्रियता में। के.आर मीरा का जन्म1970 में शास्तांकोट्टा(कोल्लम जिल्ला) में हुआ। उन्होंने तमिलनाडु गाँधीग्राम रूरल इंस्टिट्यूट से कम्यूनिकेटिव इंग्लिश में प्रथम रैंक में स्नातकोत्तर उपाधि ले ली। 1993 से 2006 में मलयालम दैनिक ‘मलयाल मनोरमा’ में उन्होंने काम किया। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदानों को मानकर केन्द्रीय पुरस्कार दीपालया और पी.यू.सी.एल तथा केरल प्रेस अकादमी का चोव्वरा परमेश्वरन अवार्ड ब्रिटीश चीवबिंग स्कोलरशिप, उसके सिलसिले में लंदन में तीन महीनों का पत्रकारिता का प्रशिक्षण प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त साहित्यिक क्षेत्र के उनके सराहनीय लेखन के लिए अंकण साहित्य पुरस्कार, युवा लेखिका का ललितांबिका अंतर्जनम पुरस्कार, केरल साहित्य अकादमी का गीता हिरण्यन एन्डोवमेंट, तोप्पिल भासी पुरस्कार, तृशूर केरल वर्मा पुरस्कार, पद्मराजन पुरस्कार आदि के साथ उनके द्वारा लिखित ‘आराच्चार’(वधिक) उपन्यास के लिए वायलार अवार्ड, ओटक्कुषल अवार्ड, केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार और केंद्र साहित्य अकादमी अवार्ड प्राप्त है। मुख्य रचनाएँ- ‘ओरमयुटे ज्ञरंप, मोहभंग, आवे मरिया, गिल्लटिन, के.आर.मीरा की कहानियाँ, मालाखा के मरुकुकल- करिनीला, आ मरत्तेयुम मरन्नु मरन्नु ज्ञान, नेत्रोन्मीलनम, यूदास का सुविशेषम, मीरासाधु, आराच्चार आदि।
समकालीन मलयालम उपन्यासों में सबसे सशक्त उपन्यास की कोटी में आनेवाला उपन्यास है ‘आराच्चार’। इतिहास और मिथों से भूतकाल की समस्याओं को सामने रखने के साथ यह वर्तमान की समस्याओं से भी दूर नहीं है। बंगला उपन्यासों का स्थल ही नहीं, बल्कि भाषा, संस्कृति आदि उमारी हड्डियों को भी तोड़ता है। समकालीन न्यायव्यवस्था के बुनियादी मूल्य संघर्षों का सही चित्र है यह उपन्यास। न्यूस चेनल्स मनुष्य जीवन में जो हीन और निन्दनीय कार्य करती हैं उनका वाद-प्रतिवाद है उसमें। सबसे ऊपर एक स्त्री को मात्र मालूम हो जाने वाली उसकी अपनी आत्मानुभूतियों का पुरुष एवं लोक सामान्य की गिरफ्त में पड़े बिना खुलासा हुआ है उपन्यास में। मानव जीवन के पूरे प्राणसंचार को धुंधला करनेवाले हिंसा का वेदांत है यह।
फणीभूषण गृद्धामल्लिक और उसकी बेटी चेतना की कहानी है यह। चार सौइकहत्तर व्यक्तियों को फाँसी में चढ़ाया ‘आरच्चार’(वधिक) है फणीभूषण। उसका परिवार पूर्णतः नाश के कगार पर है। चेतना विश्व की पहली स्त्री वधिक (आरच्चार) के रूप में परिणत हुई। लेकिन तेरहवीं सदि में मल्लिक परिवार में पिंगल केशिनि नामक एक स्त्री वधिक थी। फणीभूषण को अपने इस पारंपरिक धंधे पर गर्व है। उसके घर में इन दोनों के साथ माता, भाई(रमुदा), दादी(तकुमा), पिता का भाई काकु और उसकी पत्नी(काकिमा) भी हैं। बारहवीं कक्षा डिस्टिंक्शन के साथ पास चेतना आर्थिक तंगी के कारण आगे नहीं पढ़ पाई। फाँसी की सज़ा पर राष्ट्रपति के निर्णय के प्रतीक्षाकाल के दौरान कोलकत्ता के लोक समाज और मीडिया समाज के मतों, निर्णयों एवं दंड के कार्यान्वयन संबंधी बातों का एक सामान्तर दुनिया है उपन्यास में। मल्लिक परिवार के पुराण, इतिहास एवं मिथकों के संयोग से जिसकी सृष्टि होती है, वह इस उपन्यास का सबसे सुंदर काल्पनिक भाग है। मीडियाकार संजीव कुमार और चेतना के बीच के प्रणय और कलह का अउट डोर शूटिंग इस उपन्यास का सबसे तेज़ भाग भी है। इस उपन्यास की राष्ट्रीय अंतर्धारा को असाधारण ढंग से दृश्यवत बनानेवाली भाषा का आख्यान- लावण्य ‘आरच्चार’ उपन्यास की अध्ययन क्षमता का कारण है।
कोलकत्ता की गलियाँ, घाटें, सड़कें, टूटे फूटे मकान, वेश्यालय से लेकर टी.वी.स्टुडियों, होटल, सूपर मार्केट, जेल आदि से निर्मित स्थल-पुराण की सूक्ष्मता इस उपन्यास की खासियत है। मिथकों एवं इतिहासों से निर्मित राजशासन और औपनिवेशिक अधिकारों तथा आधुनिक बंगाल का जीवन-चित्र भी उपन्यास को जीवंत स्थल प्रदान करते हैं। मिथकीय और ऐतिहासिक पात्रों के साथ बंगला के अंतरूनी खेतियों में, राजमहलों में, कारगृहों में, रैटेरस बिलडिंग आदि में अपनी ज़िन्दगी को जी जीकर समाप्त करने वाले हैं। अनेक प्रकार की हिंसाओं का चित्र इस में खींचा गया है। फाँसी की सजा पर अनुकूल एवं प्रतिकूल संवाद, आन्दोलनआदि लोकसमाज और मिडियाओं में चल रहा है।
यतीन्द्रनाथ बैनर्जी के वध के साथ उपन्यास समाप्त नहीं होता है। अस्सी की उम्र में अपने भाई और उसकी पत्नी की हत्या कर गृद्ध मल्लिक जेल में गया। आलीप्पर जेल में यतीन्द्रनाथ का वध कर चेनल स्टुडियो में पहुँचनेवाली चेतना ने अपने जीवन को भी एक गाँठ बनाया। संजीव कुमार ने उसे धोखा दिया। चेतना ने उसे कैमरा और दर्शकों के सामने फाँसी पर चढ़ाया। इस प्रकार आरच्चार में मनुष्य जीवन के अर्थ और मूल्य हिंसा के दर्शन के साथ तुलना की जाती है।
मलयालम की प्रसिद्ध आलोचक डॉ॰एम. लीलावती के अनुसार “यह उपन्यास मलयालम में अभी तक परिचित विषय का नहीं। कहानी में नायिका की एक पूर्विका को छोड़कर इस घरती में और दूसरी स्त्री ने इस कर्म क्षेत्र को अपनाया नहीं। किसी की भी आख्यान शैली की छाया इसपर नहीं पड़ी है”। भाषा के महत्व पर कई आलोचकों ने दृष्टि डाली है। इसे एक अपूर्व सृष्टि समझती हैं डॉ॰लीलावती। डॉ॰सक्करिया के मुताबिक यह भविष्य के लिए नव संवेदना एवं दर्शन का निर्माण करनेवाला उपन्यास है। डॉ॰टी.टी.श्रीकुमार ने इसे एक पान इंडियन उपन्यास का दर्जा दिया है। के.आर.मीरा ने पूरे भारतीय इतिहास के संघर्ष को एक लड़की के जीवन संघर्ष में तब्दील कर युद्ध समान इस उपन्यास को निर्मित किया है।
इस लेख में केन्द्र अकादमी पुरस्कार विजेता के तीन उपन्यासकारों के माध्यम से मलयालम की तीन पीढ़ियों का उत्तरोत्तर बढ़नेवाले स्त्री-लेखन का परिचय मिलता है। यह मलयालम साहित्य के लिए गर्व की बात है।
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कुसाट, कोची-682022