पूरे चाँद की ओर
‘एक इंच मुस्कान’ (1962)
के प्रकाशन के साथ मन्नू भंडारी की उपन्यास-यात्रा का शुभारम्भ होता है। उपन्यास
राजेंद्र यादव के साथ मिल कर लिखा गया है इसलिए दोनों ही रचनाकारों की सूची में
इसे शामिल किया जा सकता है। रचना के तौर पर इस प्रयोग से आंतरिक अन्विति में भले
ही कुछ कमी आई हो पर रोचकता और पठनीयता बरकरार है और दोनों रचनाकारों की
जीवन-दृष्टि इसमें भली-भाँति उभरती है।
एक पूर्व निर्धारित कथानक की नायिकाओं को
मुख्यतः स्त्री रचनाकार के कोण से और नायक को पुरुष के कोण से लिखे जाने का यह
प्रयोग काफी सराहा गया। दो अलग-अलग कोणों पर रखे गए कैमरे से देखे जाने से दृश्य
में भिन्न रंगतों की समृद्धि तो आई ही है। एक-दूसरे के असर से तरंगित सुरों का
उतार-चढ़ाव भी इसमें मौजूद है। मन्नू भंडारी की कहानियों में पितृसत्तात्मकता के
आवरणों से क्रमशः मुक्त होती जाती स्त्री के व्यक्तित्व के उठान की अनवरत यात्रा
दिखती है। आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर, जागरूक स्त्री पारिवारिक, सामाजिक शिकंजों
को समझ कर उन्हें उतार फेंकने लायक सक्षम खुद को बना लेती है। लेकिन उसकी यात्रा
वैयक्तिक पूर्णता के उस स्तर तक खुद को नहीं ले जाती जहाँ अपने जीवन का केंद्र वह
स्वयं हो। उन्हें खुद अपने आप में पूरा चाँद रास नहीं आता बल्कि किसी को बाँहों
में लेने को आतुर अधूरा चाँद भाता है। पुरुषरहित जिंदगी में उनकी नजरें प्रश्नवाचक
चिन्ह बनाते आकाश के सप्तऋषि तारामंडल में जा टिकती हैं। वे खुद अपना जवाब होने का
हौंसला नहीं पैदा कर पातीं।
उपन्यास के विस्तृत मैदान
में अनेक स्तरों पर पात्रों को खिलने का अवकाश मिलता है। यहाँ लेखिका के
स्त्री-पात्रों के व्यक्तित्व के बनने-बिगड़ने की कई दशाएँ-दिशाएँ देखी जा सकती
हैं। उपन्यास की नायिका रंजना उनकी कहानियों की पात्र सरीखी अर्थसक्षम,
निर्णयसक्षम समझदार, संवेदनशील, एकनिष्ठ स्त्री है, टूट कर प्रेम करना जानती है।
प्रेम के लिए परिवार से विद्रोह करने का माद्दा रखती है, धैर्यपूर्वक इंतजार कर
सकती है। प्रेमी उसके जिंदगी का केंद्र है इसलिए उसके लिए वह सर्वस्व नयौछावर कर
सकती है। केंद्र स्थिर हो तो कोई समस्या नहीं। किंतु केंद्र वहाँ टिके रहना चाहता
है क्या? उसे अपने को घेर लेने वाली परिधि की
दरकार भी है क्या? जीवन की हर जानदार शह में गति होती है,
तरंग होती है क्या तत्वतः भी सम्भव है कि बने-बनाए प्रारूप पर दो संवेदनशील प्राणि
घर्षणरहित साहचर्य को निभा ले जाएँ? और वह
यदि एक का ही अभीष्ट हो तो? रंजना
के संस्कारों में प्रेम और घर का जो रूप गहरे धँसा हुआ है। उपन्यास का नायक और
उसका प्रेमी अमर उसमें जकड़न अनुभव करता है। रंजना से निरंतर होने वाली मुलाकातों
के बाद उसे एहसास हो जाता है कि रंजना के सहवास में वह न अपनी रचनात्मकता कायम रख
पाएगा और न ही रंजना की आकांक्षाओं के साथ न्याय होगा। इसलिए उन्हें विवाह नहीं
करना चाहिए। दोनों ही एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। किंतु दोनों के लिए प्रेम की
परिभाषाएँ परस्पर भिन्न हैं। यह स्त्री-पुरूष का स्वभावगत अंतर उतना नहीं जितना कि
विकास के भिन्न स्तर पर स्थित दो व्यक्तियों का स्थिति भेद है।
विवाह के अनुरोध को वह
बार-बार टालता तो पहले से भी रहा था। आत्मीय मित्र बन चुकी अपनी प्रशंसक पाठिका
अमला से मिलने के उपरांत तो उसे भली भाँति इस बात का एहसास हो जाता है कि
पारम्परिक गृहस्थ जीवन उसके अनुकूल नहीं। व्यक्तित्व का एक छोर कभी-कभी प्रेम की
ऊष्मा से भरे पारिवारिक, व्यवस्थित जिंदगी की ओर खिंचता जरूर है पर क्षणिक अवधि के
लिए। वह जिंदगी का स्थायी पैटर्न हो सकता है, यह बात उसकी मानसिकता में अटती ही
नहीं। अमला की बातों में उसे उसके अपने अनकहे विचार झाँकते दिखते हैं कि वह रुके हुए पानी
की तरह ठहरा हुआ नहीं उनमुक्त
भाव से अबाध बहता जीवन जीना चाहता है। अमला और अमर को लगता है कि कलाकार के लिए ये
जिम्मेदारियाँ घातक हैं और उसे यह भी महसूस होता है कि वह रंजना की अपेक्षाओं को
पूरा नहीं कर पाएगा, वह उसके साथ खुश नहीं रह सकती। “विवाह अपने-आप में एक समझौता है।…जैसे-जैसे उत्तरदायित्व बढ़ता
जाएगा, सीमाएँ और संकीर्ण होती जाएंगी….इतनी संकीर्ण…इतनी संकीर्ण..नहीं, नहीं
रंजना, यह सब करने का मतलब होगा अपनी हत्या करना, तुम्हारी हत्या करना- यह सब मैं
नहीं कर सकूँगा।” (पृ.49) रंजना चाहती है कि वह अमर की
सारी चिंताएँ, सारा बिखराव अपने ऊपर ले ले, उसे अमर की खुशी के अलावा कुछ नहीं
चाहिए। मगर सिर्फ लेते जाने किसी भी चेतन सत्ता को कैसे मंजूर हो सकता है? और जब ‘देना’ देने वाले की खुद की जरूरत बन जाए तब?
रंजना की जीवन-दृष्टि जिन
पारम्परिक संस्कारों से निर्मित हैं, वह उस समय (बहुत हद तक वर्तमान में भी) के
परिवेश का मुख्य हिस्सा था। इसलिए अंतरंग मित्र दम्पत्ति टंडन-मंदा और मीरा सभी
रंजना के पक्ष को समझते हैं और समय-असमय अमर को उसके कृत्यों के लिए कठघरे में
खड़ा करते रहते हैं। अमर हमेशा खुद को अनसमझा, अकेला महसूस करता है क्योंकि
सामाजिक विकास के उस दौर में संस्थाओं को लेकर लचकदार सोच रखने वाले मुश्किल से ही
मिलते थे। संस्थागत जकड़ इतनी मजबूत थी कि अब वह विवाह करे या नहीं, वह रंजना को
लेकर अपराध भाव से मुक्त नहीं हो सकता था। विवाह न करने के निर्णय के बाद दोनों ही
अलगाव की विवशता के दंश से बुरी तरह छटपटाते हैं। व्यथा से क्लांत अमर को रंजना
अपनी ऊष्मा से जिस तरह जीवन देती है, अमर के मर्म को स्पर्श करता है और उसके भार
तले वह दबा हुआ भी महसूस करता है। टंडन और
मंदा दुविधा के उन कमजोर पलों में दोनों
का विवाह करवा देते हैं। अल्प दाम्पत्य जीवन के बारे में दोनों ही का मानना है कि
उन्होंने कभी मधुर पल नहीं जिए। एक के लिए घर-परिवार मंजिल था। जिसके मिलने से ही
मानो सब कुछ मिल गया हो और उस अवस्था को थम कर, डूब कर जीना हो। दूसरे के लिए
विवाह और घर जीवन के बहुत सारे आयामों का एक हिस्सा भर थे। अपने लक्ष्य की ओर
बढ़ते जाने के लिए एक साधन, एक आधार भूमि के रूप में घर महत्वपूर्ण था। जिस पर
पाँव जमा कर आगे की तमाम यात्राएँ सम्पन्न की जा सकें। जो यात्रा के दौरान या
यात्रा के बाद आराम करने, दूसरी यात्रा की तैयारी के लिए सुविधा देता था। दो भिन्न
दृष्टियाँ, जीवन-प्रणालियाँ इस तरह एक-दूसरे से टकराती रहीं कि प्रेम का माधुर्य
जाता रहा। दोनों एक-दूसरे की खुशी के लिए खुद को बदलने को तत्पर थे, रिश्ते और
प्रेम को बचाना चाहते भी थे। किंतु परिपक्व, संवेदनशील व्यक्ति अपने लिए दूसरे का मिटना
भी कैसे स्वीकार करे। शकुन और मौनी दा के साथ अमर के वार्तालाप में यह बात उभरती
है कि पारम्परिक विवाह के बने रहने के लिए कम से कम एक को अबोध होना या अशिक्षित
होना जरूरी है। विकसित चेतना के दो व्यक्ति अपने या दूसरे को इस तरह जड़ होते नहीं
देख सकते। रंजना और अमर के लिए भी पाठकों को महसूस होता है कि दो सही लोग एक गलत
स्थिति में फँस गए हैं और अमर को लगता है कि जिस दिन उसने विवाह न करने का फैसला
सुनाया था उस दिन के बाद से उनके बीच परस्परता का जीवन-रस रहा ही नहीं। मानो उस
रोज रंजना और अमर को वहीं दफना कर कोई और ही लौटे हों। ‘दफनाना’, ‘कुछ मौतें अपने पीछे लाश नहीं छोड़तीं’ जैसी शब्दावली उसी समाज में प्रासंगिक हो सकती है जिसमें सम्बंधों को
रूढ़ ढाँचे में जीने की विवशता हो, जहाँ बदलाव को जीवन की सहज प्रक्रिया न माना जा
रहा हो। हर सम्बंध तयशुदा अपेक्षाओं के भारी बोझ को वहन करने के लिए मजबूर हो। वर्ना
हर जिंदा चीज समय के साथ बदलती ही है पर हम अतीत को लाश और व्यतीत को दफनाना नहीं
कहते।
विवाह और परिवार संस्था में
बदलाव की आवश्यकता को यह उपन्यास रेखांकित करता है। व्यक्तित्व विकास की दो भिन्न
स्थितियों से दो रचनाकारों जो कि पति-पत्नी भी हैं, द्वारा लिखे जाने के कारण
स्थिति की व्यापक समझ पैदा करने में यह उपन्यास सक्षम है। प्रेम द्वारा छली जाने
पर या वैवाहिक जीवन में पत्नी की शोषित स्थिति पर तो स्त्री-रचनाकारों ने खूब लिखा
है। किंतु पुरुष पात्र के मानसिक द्वंद्व का इतना गहन विश्लेषण कम ही देखने में
आता है। इसके प्रभाव से ही लेखिका पूर्णता की ओर अग्रसर अमला का चरित्र सम्भवतः रच
पाई हों। पुरुषों की रचनाओं में स्त्री का पक्ष प्रामाणिक ढंग से उभरने से रह जाता
है। परम्परा संरचित स्त्री को प्रेम जैसे सहज भाव के लिए भी समाज से विद्रोह करना पड़ता है। उसकी क्षतिपूर्ति के एवज
में जाने-अनजाने प्रेमी/पति से
इतना कुछ चाह बैठती है कि वह घबरा के भाग खड़ा होता है या इतना मानसिक दवाब महसूस
करता है कि उसकी जिजीवेषा और रचनात्मकता कुंठित होती है। दोनों को अपनी-अपनी और
फिर दूसरे की स्थिति की साफ समझ हो तो परिदृश्य काफी बेहतर हो सकता है।
अमर लेखक है और उसकी
बातचीत और विश्लेषण में लेखन का महत्व, उसके सरोकार, उसकी बाधाएँ, दायित्व,
चुनौतियाँ, उसकी रचना-प्रक्रिया बार-बार आते हैं। रंजना भी कॉलेज में पढ़ाती है।
माता-पिता का घर छोड़ कर अकेले महानगर में रहने के पीछे प्रेरक भले प्रेम रहा हो
पर आधार तो नौकरी ही उपलब्ध
करवाती है । एक नए परिवेश, नई दुनिया से जोड़ने का माध्यम है अध्यापन, जो सामाजिक
महत्ता का एक बड़ा काम है। किंतु रंजना कभी भी अपने काम की, अपने दायित्वों की कोई
बात नहीं करती। अमर के साथ घर बसाना है, उसे चलाने का साधन भर है उसके लिए नौकरी।
इससे उसे सार्थकता बोध नहीं प्राप्त होता। उसकी पूरी चेतना अमर पर उसके निजी
क्रियाकलापों, पत्रों, डायरी पर केंद्रित रहती है। मन्नू जी की अन्य पात्रों की
भाति अधूरे चाँद सी रंजना को अमर से बिंध कर पूरा होना है। पढ़ी-लिखी आत्मसम्मान
सजग स्त्री है इसलिए उसे अपनी इस परनिर्भर मानसिकता का एहसास नहीं है और उसे अमर
को भी पूरा बनाना है। पूरे बनाने की यह प्रक्रिया परस्पर होनी चाहिए इसीलिए अमर के
भीतर अधूरे होने का एहसास होना लाजमी है। अमर में इस तरह की निर्भरता की जरूरत का न
होना उसे आहत करता है। स्त्री-पुरूष सम्बंध के लिए अर्धनारीश्वर का मिथक संगत नहीं
लगता। दो अधूरे लोगों के मिलकर एक होना प्रेम नहीं है अपितु प्रेम दो स्वतंत्र
अस्तित्वों के बीच ही सम्भव है। सही संगति होने पर एक और एक मिलकर ग्यारह भी हो
सकते हैं।
मन्नू भंडारी के स्त्री
पात्रों से बहुत अलग है अमला । अपने अधिकारों के प्रति सजग, बुद्धिमती,
स्वतंत्रचेता, आत्मसम्मानी अमला ने विवाह की सीमाओं को भली भाँति समझ लिया है। वह
व्यक्तित्व के अकुंठ विकास को तरजीह देती है। 18 साल की उम्र में बिना किसी कारण
के पति ने उसे त्याग दिया था। समृद्धशाली पिता की
पुत्री शान से भरा-पूरा वैभवपूर्ण जीवन जीती है। पढ़ना-लिखना, बागवानी और अन्य
रचनात्मक काम सीखना, भिन्न लोगों के साथ उठना-बैठना, जश्न मनाना, घूमना-फिरना,
खुली आँखों से दुनिया को देखना। यही उसका जीवन है। उसे जीने के लिए किसी आधार की
दरकार नहीं है। उसके विचारों में एक खुलापन है और खुद हो कर जीने के लिए समाज में
जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसके लिए वह सहर्ष तैयार है। संतुलित, संयमित अमला के
होंठों पर हमेशा एक मुस्कान रहती है। वह किसी को रहस्यमयी लगती है, किसी को उसकी
सच्चाई ढापने का पर्दा, किसी को कुछ। पर हर मिलने वाला उसकी मुस्कान में बिंध
अवश्य जाता है। उसका हर करीबी उसकी मुस्कराहट के पीछे छिपी उसकी सच्चाई को उघाड़ना
चाहता है। तो उसे खुद ही संदेह होने लगता है कि उसका ऐसा क्या राज है आखिर जिससे
वह खुद ही अनजान है। व्यक्तित्व सम्पन्न स्त्री जो परमुखापेक्षी नहीं है, जिसे
किसी से मिलकर पूरा नहीं होना, जो विवाह को जरूरी नहीं मानती। समाज और साहित्य में
50-60 के दशक में विरल थी इसलिए वह सबको रहस्यमयी लगती है। साधारण रूप रंग की परित्यक्ता स्त्री अविवाहित खूबसूरत कैलाश के साथ के
लम्बे साहचर्य को पल भर में खत्म करने को तैयार है मगर उसके मुताबिक खुद को ढालने
के लिए नहीं। वह अपनी सार्थकता सम्बंधों से परिभाषित नहीं करती। अपने दुर्व्यवहार
के लिए पति के पश्चात्ताप करने पर भी वापस लौटने का प्रस्ताव सुनना मात्र भी उसके
सम्मान को गँवारा नहीं है। भले ही उसका मानसिक विकास पुरुष से किसी तरह कम न हुआ
हो फिर भी स्त्री होना उसकी विडम्बना को बढ़ाता तो है ही। पिता के सक्रिय दिनों तक
तो उसकी स्वतंत्रता और वैभव बरकरार रहते हैं किंतु बाद में उसके भाई-भाभी उसे उसके
अधिकार से वंचित करते जाते हैं। पिता के न होने पर वह अकेली और संसाधनहीन हो जाती है।
सम्पन्न वर्ग की अमला को शारीरिक श्रम की आदत है नहीं, सुविधाएँ सहज उपलब्ध होने
के कारण आर्थिक आत्मनिर्भरता का आयोजन उसने किया नहीं है। किसी की आश्रित होना उसे
गँवारा नहीं। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में सहज, स्वतंत्र, स्वस्थ सम्बंधों
के लिए भी अवकाश बन नहीं पाता इसलिए एकाकी जीवन में कई तरह की वंचनाएँ अंतर्निहित
होती हैं। इस सब की परिणति उसकी आत्महत्या में होती है। हालांकि करुण अंत के लिए
अमला का व्यक्तित्व और विशिष्ट परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार हैं। उसकी चमक-दमक और
हँसती-मुस्कराती जिंदगी भीतर से खोखली थी या फिर समाज की संरचनाओं में इतना बल
नहीं था आंतरिक सम्पन्नता को पनाह दे सकें। सामाजिक गतिकी के उस दौर में पूर्ण
व्यक्तित्व की तरह जीने की स्त्री-आकांक्षा की यही नियति हो सकती थी, वह भी तब
जब अपने भविष्य के लिए कोई व्यवस्था न की
गई हो। रंजना विवाद-विच्छेद करके पुनर्विवाह कर लेती है और अमला दुनिया त्याग देती
है। पुरुष के बिना स्त्री का जीना क्या इतना दूभर है? अमर अकेला भटक रहा है। वह भी इस बीच सिगरेट की तरह जला है और
बूँद-बूँद उसका व्यक्तित्व रिसा है। उपन्यास का कोई भी पात्र मनमुताबिक और भरपूर
नहीं जी पाता, सब अपनी और दूसरे की जिंदगियों को प्यार करते हैं मगर वह सधता नहीं।
सामाजिक संस्थाओं की नई
सम्भावनाओं के लिए अनेक संकेत रचना में मिलते हैं। एक स्त्री के
लिए खुद में पूरी हो कर
जीने की चुनौतियों और समाधान के जो बिंदु हो सकते हैं, वह भी शकुन और अमला के
माध्यम से दिखाए गए हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में शकुन ने विद्यालय खोला है।
श्रम करने वाला व्यक्ति कभी पलायनवादी नहीं हो सकता। आत्मनिर्भरता पूर्णता की
पूर्वशर्त है। अमला और अमर के विचारों में स्वातंत्र्य था पर आचरण में उन्हें अभी
लम्बी दूरी तय करनी थी, वे भी इसी समाज की निर्मिति जो थे। इसीलिए एक-दूसरे के
प्रति आकर्षित होते हुए भी उनके बीच एक हिचक हमेशा बनी रहती है। अमर के प्रति अमला
के मन में दुर्निवार आकर्षण भी उसके अंत का एक कारण बनता है। दोनों ही इस स्थिति
के सहज स्वीकार के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे इसलिए जिंदगी और व्यक्तित्व
में आघात बरदाश्त कर सकते थे पर खुद अपने से और एक-दूसरे से किए अनकहे वादे में
खरोंच नहीं पड़नी चाहिए थी। अमला में पूरा
चाँद होने का बोध विकसित होने तक की स्त्री यात्रा सम्पन्न होती हुई दिखती है। पूर्णताबोध
के अनुरूप आचरण और कर्म विकसित होना अभी बाकी था।
सन
1971 में प्रकाशित ‘आपका बंटी’ उपन्यास हिंदी साहित्य में मील का पत्थर माना
जाता है। अति सजीवता और मार्मिकता से बाल-मनोविज्ञान उभारा गया है। समाज की एक
बहुत बड़ी जरूरत की यह रचना पूर्ति करती है। स्त्रियों के नौकरीपेशा होने से घर-परिवार
के बदलते समीकरणों के कारण एकल परिवार के बच्चे बुरी तरह प्रभावित होते हैं। ‘एक इंच मुस्कान’ में भी विवाह
को स्वतंत्र वैयक्तिक विकास में बाधा बता कर वैकल्पिक रूप खोजने की ओर संकेत मिलते
हैं। उस स्थिति में संतानों की जो स्थिति होती है, उसे बच्चे के की ही कोण से इतने
जीवंत ढंग से आकार दिया गया है कि अपने घर
में, आस-पड़ोस में कहीं भी हम इस बंटी की झलक पा सकते हैं जो माँ-बाप के आपसी
टकराव अथवा तलाक में अकेले पड़ते जाने की अपनी व्यथा कथा कह रहा है। वह अबोध इतनी
मासूमियत से तलाक जैसी जटिल बातों को अपनी बाल भाषा में सामने रखता है कि पाठक उसके
प्रति स्नेह और सहानुभूति से भर उठता है। माँ-पिता की रस्साकसी में वह दो भागों
में बँट सा जाता है और समय से पहले परिपक्व हो जाता है। माँ शकुन के साथ अकेले
रहने की संगति जब तक बिठाता है, माँ के जीवन में दूसरा पुरुष डॉ जोशी आ जाते हैं।
उनके विवाह के बाद डॉ जोशी और उनके दो बच्चों के साथ उनके घर में बंटी का तालमेल
बैठ ही नहीं पाता। उसके अलावा शेष चारों एक-दूसरे से आपस में भली-भाँति हिले-मिले
हुए हैं। सबके पास अपनी-अपनी स्थायी जगह और चीजें हैं। जैसे खाने, पढ़ने-लिखने की
मेज और कार में सीट। सिर्फ बंटी एक है जिसे बचे हुए विकल्प को अपनाना है। ऐसी
छोटी-छोटी मामूली बातों से वह खुद को उस घर का अतिरिक्त सदस्य मानना शुरू कर देता
है, जिसकी उस घर में कोई जरूरत नहीं है। उसके बिना भी वह पूरा परिवार है, जिसमें
उसका होना, न होना कोई मायने नहीं रखता। इस नए घर की मम्मी उसकी मम्मी नहीं हैं।
वह भी उस घर का एक हिस्सा हैं और बंटी तो अलग है। डॉ जोशी को पापा नहीं बोलता और
उनके क्लीनिक के बोर्ड में लिखे ‘हम दो, हमारे दो’ में अक्सर उसकी
नजर अटक जाती है। उसका मन करता है उस घर से उस अतिरिक्त को मिटा देने का, जो वह
खुद है। स्त्री-पुरूष के सम्बंधों की जटिलता समझने का बोध उस कच्ची उम्र में नहीं
होता इसलिए भी वह माँ को पराए पुरुष के साथ अंतरंग होते देखना बरदाश्त नहीं कर
पाता। इस सबका उस पर इतना मानसिक दवाब पड़ता है कि वह मेधावी, रचनात्मक बच्चा
धीरे-धीरे प्रॉब्लम चाइल्ड बन जाता है और तलाकशुदा पापा जो अपनी अलग गृहस्थी बसा
चुके हैं, उनके साथ उनके घर चला जाता है। वहाँ भी उसे जुड़ाव महसूस नहीं हो पाता।
तो अंततः उसकी इच्छा के विरूद्ध उसे हॉस्टल भेज दिया जाता है। जिस माँ के बिना वह
थोड़ी देर भी नहीं रह पाता था। उससे पूरी तरह कट जाता है। इस समूचे घटनाक्रम को
बंटी के नजरिए से देखने से पता चलता है कि बच्चे चीजों को किस तरह लेते हैं इसलिए
उनके साथ किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। अपने भले के लिए किए हुए काम भी उसे अपने
विरोधी दिखने लगते हैं। उपन्यास बड़े सशक्त ढंग से यह बोध विकसित करता है कि बंटियों
को यह सब न सहना पड़े। पाठक गहरे तल पर यह महसूस करते हैं कि जिसकी कोई गलती नहीं
थी, त्रासदी का सबसे अधिक असर उसे ही अपनी रग-रग में वहन करना पड़ा। जिसने उसकी
पूरी जिंदगी अपनी गिरफ्त में ले ली। यह उपन्यास बंटियों पर है। इसका मुख्य सरोकार
बंटी हैं पर बंटी के लिए लिखा नहीं गया है। जिन्हें संबोधित हैं। उन पर बात की
जाए।
एक
ही घटनाक्रम को पहले बंटी के फिर शकुन के नजरिए से देखा गया है। कॉलेज की रौबदार
प्रिसिंपल है वह। घर-बाहर सब सहेजने में निपुण शकुन पति अजय के साथ सम्बंधों को
सुकुन से नहीं जी सकी। दोनों के अहम को झुकना गँवारा नहीं था। किसी एक के खुद को
शून्य करके दूसरे में मिलाने से ही अधिकांश दाम्पत्य संबंध बरकरार रहते हैं। जो
यहाँ नहीं हो पाया तो पहले अलगाव और फिर तलाक हो गया। पिछले 7 सालों से शकुन अकेले
बंटी को पाल रही है। स्त्रीत्व और मातृत्व के अतरंद्वंद्व के कई स्तर रचना में
सजीव होते हैं। उसकी सार्थकता का केंद्र बिंदु बंटी ही है। व्यापक सरोकार उसके व्यक्तित्व
में विकसित नहीं हुए हैं। स्त्रीत्व और व्यक्तित्व को अजय की नजरों से देखते जाने
की उसकी मानसिक आदत हो चुकी थी। प्रिंसिपल भी अजय को नीचा दिखाने के लिए उसे बनना
था। अपने काम में वह अपनी सार्थकता नहीं पाती। कभी-कभी तो बंटी भी उसे अजय को
त्रास देने का हथियार लगने लगता है। वह खुद को अपनी नजरों से नहीं देख पाती। वह समझ
नहीं कि जो व्यक्ति साथ रहने के लिए महत्वपूर्ण नहीं लगा, उसके नजरिए से पूरे जीवन
को देखते जाने में कितना अधूरापन है। अजय हो कर खुद को देखना है और अजय पीड़ा के
अलावा कुछ दे नहीं सकता, इसलिए उसकी नजरों को अन्य किसी पुरुष की नजरों से बदलना होगा। कितना अजीब
तरीका है जीने का। जाने-अनजाने हम सब यही किए जाते हैं। जिंदगी के महत्पूर्ण दौर
के 9 साल के अनुभव का हासिल तो यही होना चाहिए था कि खुद को केंद्र में रखकर जीना
सीखते जाना। अपने होने के लिए दूसरे के अस्तित्व की दरकार खत्म होने पर ही कोई
पूर्ण व्यक्तित्व बन सकता है, जिनका परिजनों से, समाज से, अपने काम से स्वस्थ
सम्बंध हों और परिणामस्वरूप व्यापक सरोकार भी। 7 साल के घुटते-घिसटते सम्बंधों और
अलगाव के बाद तलाक मुक्ति का एहसास नहीं देता बल्कि उसे दूसरी अंधी सुरंग के मुहाने
पर खड़ा कर देता है जिसे अपने से बाहर की रोशनी से ही अपने भीतर और बाहर देखना है।
ऐसी स्थिति में समाज में समादृत, स्थापित, आत्मनिर्भर शकुन पर बात करते हुए ऐसा
नहीं लगता कि हम बंटी की दारुण स्थिति के लिए उत्तरदायी व्यक्ति की बात कर रहे
हैं। अपितु प्रतीत होता है कि शकुन भी एक बंटी ही है। पहले यह बंटी परिपक्व, स्वयं
में पूर्ण हो जाए। इस बंटी को गढ़ने वाले कारकों की समझ पहले हासिल कर ली जाए।
आर्थिक समानता स्थापित करने के बाद भी स्त्री अपने को उस तरह से घर-परिवार-समाज
में स्थापित नहीं कर पायी थी कि उसे एक स्वतंत्र इकाई माना जा सके। वह अपनेआप में
अब भी शून्य है जो किसी संख्या के पीछे लगने पर उसकी शक्ति को कई-कई गुना बढ़ाने
में सक्षम हो चुकी है। इसलिए वह फिर से साथी न चुने तो भी उसे बार-बार एहसास
दिलाया जाता है कि पुरुष के साहचर्य से वंचित बंटी औरतों जैसा होने लगा है।
रोना-रुठना, तुनकना, भावनात्मक दुर्बलता स्त्रियोचित गुण हैं जो शकुन के साथ रहने
से उसमें आते जा रहे हैं। इससे शकुन खुद को व्यक्ति के रूप में एसर्ट करने के बजाय
उसे छात्रावास भेजने अथवा अपना पुरुष सहचर खोजने की ओर प्रवृत्त होती है। जब तक
उसकी जिंदगी के केंद्र में दूसरा पुरुष स्थापित नहीं हो जाता तब तक वह सारे
परिदृश्य को अजय की निगाहों से देखना जारी रखती है। पुरुष सहचर के लिए उसके
स्त्रीत्व की पुकार से ज्यादा उस पर ये विचार हावी है कि उसका नया साथी अजय की
नयी साथिन मीरा की तुलना में काफी बेहतर हो।
संतुलित
मिजाज के संपन्न डॉ जोशी के मिलने के बाद उस नए घर में बंटी पूरी तरह अकेला और बेगाना हो जाता है। इससे
साफ है कि समाधान बंटी को पुरुष का साथ मिलने में नहीं मम्मी के व्यक्तिसम्पन्न
होने में सम्भव था। उस घर में जाकर शकुन के स्त्रीत्व को परितृप्ति मिलती है। नए परिवेश
और बच्चों से भी उसकी संगति बन जाती है। किंतु बंटी की मम्मी बनने में वह हार जाती
है। बंटी को वह अपनी मम्मी से अलहदा कोई दूसरी ही शख्सियत दिखाई पड़ती है जो पूरे
समय डॉ जोशी की आँखें देख कर चलती है, उसकी जिंदगी मानो डॉ. जोशी के भीतर समा गई
हो। “जब तक डॉ. साहब घर में रहते हैं, ममी कहीं भी रहें, कुछ भी करें, उनकी
आँखें बंटी के आगे-पीछे ही घूमती रहती हैं,…सतर्क, चौकन्नी और घूरती हुई
आँखें।…डॉ. साहब के जाते ही ममी की आँखें लौटकर उनके चेहरे पर चिपक जाती
हैं।…उस समय तक वह आँखें बिल्कुल बदल जाती हैं” (पृ.156, आपका
बंटी) जो खुद डॉ जोशी के सामने बंटी बनी हुई हैं उसे बंटी माँ कैसे माने भला। इससे
पहले के 7 सालों में वह दृढ़, अनुशासित, सशक्त ममी से परिचित रहा है जो सिर्फ उसे
प्यार करती थी बाकि सबके सामने खूब रौबदार थी। इसलिए वह शकुन की परनिर्भरता देख पा
रहा है। उसने शुरू से पति के साथ रहती हुई शकुन को ही देखा होता तो उसके मन में भी
बाकी सब की तरह यह बोध समाया हुआ होता कि माँ कमजोर होती है। पर उसके लिए यह नया
अनुभव है इसलिए उसे बार-बार त्रिभुज अ ब स दिखता है। जिसका शकुन सिर्फ एक कोण है
और उसका बंटी के साथ सम्बंध डॉ जोशी की आधार-भुजा पर टिका है। काबिले गौर है कि
जोशी जी के बच्चों के साथ शकुन त्रिभुज नहीं बनाती। माँ-पिता के बीच की अनबन और
अलगाव को अपनी नसों में झेलते बच्चों की त्रासदी को उद्घाटित करने के साथ-साथ यह
उपन्यास यह भी बयान करता है कि घर्षणरहित सामान्य गृहस्थी में भी माँ की व्यक्तित्वरहितता
का बच्चे पर अत्यधिक असर पड़ता है। बच्चे का सबसे अधिक समय माँ के साथ बीतता है
इसलिए उसका व्यक्तित्व बच्चे के पूरे विकास को प्रभावित करता है। मन्नू भंडारी के कथात्मक
साहित्य में समाज की विभिन्न संस्थाओं के द्वारा हर लिए गए व्यक्तित्व को बटोरने
की तमाम कोशिशें मिलती हैं।
तीसरे
उपन्यास ‘महाभोज’ (1979) को मन्नू जी अपने व्यक्तित्व और नियति को निर्धारित करने वाले
परिवेश के प्रति ऋणशोध के रूप में देखती हैं। उनका मानना है कि जब घर में आग लगी
हो तो अपने व्यक्तिगत दुख-दर्द, अंतर्द्वंद्व अथवा अंतर्जगत में बने रहना और उसी
का प्रकाशन करना सुखद और आश्वस्तिकारक भले लगे किंतु अप्रासंगिक और हास्यापद लगता
है। मगर हमें लगता है कि कोई भी यात्रा स्वत्वबोध से शुरू होती है। व्यक्ति के पास
उसका अस्तित्व ही वह उपकरण है जिसके माध्यम से वह समूची दुनिया से जुड़ सकता है। रचनाकार
की उत्तरोत्तर विकसित होती चेतना के परिणाम स्वरूप ही सामाजिक, राजनैतिक चेतना से
सम्पन्न ‘महाभोज’ जैसा उत्कृष्ट उपन्यास साकार होता है।
बिसेसर
की हत्या की घटना के इर्द-गिर्द उपन्यास का सारा ताना-बुना गया है। सारे गाँव को,
प्रशासन को, नेतृत्व को सभी को पता है कि हत्या किसने और क्यों की। फिर भी
पूछ-ताछ, गहमा-गहमी का सब नाटक चल रहा है। आगजनी, दलितों पर अत्याचार और बिसू की
हत्या पर जो अमानवीय चुप्पी चारों तरफ पसरी हुई है। वह आवाज तो घर-परिवार में,
इंसान के अपने भीतर के संसार में ही जन्म लेती है ना जिसका अभाव पूरे के पूरे गाँव
से आदमियत को गायब किए हुए है? उन गुम आवाजों को पाने के लिए तो व्यक्ति के
भीतर की, घर की, परिवेश की सबकी खुदाई करनी पड़ती है ना? सकोर गाँव में
ऐसा अंधेर मचा हुआ है कि आँखवालों को पागलखाने और थाने में कोई फर्क नहीं दिखता।
ऐसे समाज में घर और पागलखाने में होगा फर्क? व्यक्ति, सत्ता
और समाज के परस्पर सम्बंधों के स्वरूप से ही तो समाज की दिशा तय होती है। घर के भीतर के वातावरण को अभिव्यक्त करने
वाली कहानियों में भी सत्ता के साथ व्यक्ति के स्वस्थ सम्बंध नहीं दिखते। बल का
अनौचित्यपूर्ण उपयोग सत्ताशील के व्यक्तित्व का अंग बन जाता है और सत्तावंचित
अधूरी, कमजोर जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त होता है। उसके गुणों का सम्मान नहीं है
इसलिए ये गुण समाज में विकसित भी नहीं होते। वही समीकरण घर के बाहर सार्वजनिक जीवन
में भी है। ईमानदार, संवेदनशील पुलिस अफसर सक्सेना को सब जनखा (हिंजड़ा) कहते हैं।
आदमियत के कारण वह कमजोर लगता है, नामर्द लगता है इसलिए उसका प्रमोशन भी नहीं
होता। उसकी न्यायप्रियता की उसे सजा भुगतनी पड़ती है। पूरे गाँव में बिसेसर के
अंतरंग दोस्त दम्पत्ति बिंदा और रुक्मा ही उसकी मौत से पूरी तरह उद्वेलित हैं और
न्याय पाने की कीमत देने को तैयार हैं। सामाजिक सरोकारों से भरा हुआ जुझारू बिसेसर
आत्महत्या नहीं कर सकता। उसे जानने वाले हर इंसान को यह पूरा भरोसा है। उनके भरोसे
का आधार है,
“जो जिंदगी को
इतना प्यार करता हो..अपनी ही नहीं, हर किसी की जिंदगी को..वह आत्महत्या करेगा?…उसे मारा
गया है।…क्योंकि वह जिंदा था…और जो जिंदा है, वे अब नहीं जी सकते देश में। मार
दिए जाते हैं, कुत्ते की मौत।” (पृ.-124, महाभोज) इसलिए व्यक्ति को जिंदा
बनाने वाला हर कृत्य, हर कृति प्रांसगिक है और आश्वस्त करती है। जिस तरह जोरावर और
सरपंच के पास लोगों के घर, जमीन, गाय-बैल ही नहीं आवाज और जबान तक बंधक रखी गई है।
वही समीकरण तो नीचे से ऊपर तक, भीतर से बाहर तक सब जगह व्याप्त है। इसीलिए तो
मुख्यमंत्री दा साहब के प्यार से समझाने पर कि जमाना बदल रहा है जोरावर कह पाता है
कि “हमारे रहते
सरोहा में नहीं बदल सकता जमाना”। यही तर्क घर के भीतर चलता है कि अमुक के रहते
घर में जमाना नहीं बदल सकता, जोरावर की रखैल कहे जाने वाले थानेदार के रहते थाना
नहीं बदल सकता,………..चुनावी हथकंडों के लिए हिंसा के पक्ष में खड़े
मुख्यमंत्री के रहते प्रदेश में ही कहाँ जमाना बदल सकता हैं? मुख्य बात तो
सत्ता के चरित्र को समझ कर उसके साथ सही सम्बंध विकसित करने की है। अपनी पत्नी
रुक्मा के अभिन्न सखा बिसेसर के खरेपन के कारण बिंदा सदा के लिए उसका हो जाता है।
मर चुके बिसेसर का खरापन बिंदा के आचरण में, उसकी आँखों के अंगारों में दिखता है।
रुक्मा के लिए भी वह कहता है कि “यह जो औरत है न साहब, बेहद बदजुबान और बद मिजाज
है। कोई आदमी बरदाश्त नहीं कर सकता ऐसी औरत को। पर मैं करता हूँ। बरदाश्त ही नहीं,
आदर करता हूँ, साहब। बाहर से भीतर तक कुंदन की तरह खरी। बिसू की असली चेली है।
कैसी सहम गई है बिसू की मौत के बाद से।” (पृ. 126, महाभोज)
रुक्मा
में परनिर्भरता नहीं है, वह अपनेआप में पूर्ण व्यक्ति है। इसलिए उसके पति की नजरों
में उसके दायित्व, उसके काम, उसके परिवार, उसके दोस्त का पूरा का पूरा मान है।
शादी के बाद बिंदा के साथ शहर जाती है। मगर पिता की बीमारी में उनकी और खेत-खलिहान
की सार-सँभाल के लिए गाँव लौटती है तो शहर वापस न जाने का फैसला कर लेती है। ऐसे
में बिंदा क्या करे, यह उसका अपना निर्णय है। वह भी रुक्मा के साथ वापस आ जाता है
और बिसेसर और रुक्मा की दोस्ती का और उनके न्यायोचित कामों का अभिन्न अंग बनता है।
रुक्मा तयशुदा स्त्री सुलभ आचरणों से अपने लिए स्थान नहीं बना रही है। बल्कि कुंदन
सी खरी वह अपने होने और काम के लिए प्रतिबद्ध है और उसे उसी तरह अकुंठ भाव से बिंदा
स्वीकारता ही नहीं, उसकी राह का सहभागी बनता है और फिर वही उसके जीवन का लक्ष्य बन
जाता है। वह इतना साहसी और खरा है कि पुलिस अफसर की आदमियत को भाँप कर ही अपनी
उद्दंडता छोड़ता है, अपना मन खोलता है और साहब कह कर उन्हें मान देता है। वह दबाने
वाले के लिए प्रचंड है और खरे इंसान का गुलाम। बिसू उसके भीतर जिंदा है। उपन्यास
के अंत में राजनीति के कुचक्र का शिकार बन कर वह जेल में बेपनाह हिंसा झेल रहा है।
ठीक उसी वक्त सच्चाई और ईमानदारी का फल भुगतने वाले सक्सेना की गोद में आगजनी और
बिसेसर की हत्या के प्रमाण वाली फाइल है, जो बिंदा के पास थी। और बगल की सीट में
रोती हुई रुक्मा बैठी है, जिसे वह चुप रहने के लिए डपट रहे हैं, रुक्मा को वह आवाज
बिल्कुल बिंदा जैसी लग रही है। बिंदा के भीतर बिसेसर जिंदा है, सक्सेना के अंदर
बिंदा साँस ले रहा है।……………बगल में खरी, निर्णय सक्षम रुकमा और उसकी गोद
में डेढ़ साल का बच्चा। दो खरे, निखरे हुए इंसानों की नन्ही संतान क्या कम
आश्वस्तकारी है? सत्ता के तमाम मानवविरोधी हथकंडों के बाद भी यह परिदृश्य मानवता में
आशा बनाए रखता है। कड़ी दर कड़ी जुड़ने वाली इंसानियत की इन्हीं श्रृंखलाओं में भविष्य
के सपने पलते हैं। रचनाकार ने पहचान लिया है कि मुक्ति अपनी खोल से बाहर निकलने
में है। इस समावेशिता में है। एक के भीतर दूसरे, तीसरे…..होने में ही है। इस
विकराल समय में खुद को जिंदा करके, खुद अपनी कीमत दे कर ही मुक्ति की राह में आगे
बढ़ा जा सकता है और अच्छी बात यह है कि काल के पन्ने में ऐसे लोग मौजूद हैं जो
किसी न किसी रूप में , कहीं न कहीं अपनी मौजूदगी बनाए रखेंगे और उनके होने से कुछ
तो बदलेगा जरूर ही।
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