वैधानिक में प्रवेश करता अवैधानिक- रवीन्द्र त्रिपाठी

                                        चंदन पांडे का उपन्यास `वैधानिक गल्प’ आज के भारत के उस पहलू को सामने लाता है जिसमें वैधानिक और अवैधानिक यानी कानूनी और गैरकानूनी के बीच का फर्क मिटता जा रहा है।  दूसरे शब्दों में कहें तो गैरकानूनी को कानूनी जामा पहनाया …

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गहन है ये अंध-कारा – निशा नाग की समीक्षा उपन्यास कालचिती पर/लेखक शेखर मल्लिक

निराला की ये पंक्तियों उपन्यास ‘कालचिती’ की इस इबारत” अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा…हम लोगों का सब खत्म हो रहा है जैसा” का ही पर्याय है जिसे नक्सल प्रभावी क्षेत्रों के जिये जाने वाले वर्तमान जीवन के कई संदर्भों में देखा जा सकता है किंतु अनंत और दीर्घकालिक समस्याओं के संदर्भ में ये पंक्तियाँ उतनी ही सटीक हैं जितना ‘कालचिती’ …

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