चिड़िया जाल में क्यों फंसी? — ऋत्विक भारतीय

आदरणीय अजय नावरिया जी/कंवल भारती साहब! मैं एक दलित बालक, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी का शोधार्थी बिहार के अपने छोटे से कस्बे में किसी टूटे मकान के पिछवाड़े एक कनात डालकर रहता था और वहीं ढीबरी की जोत जलाकर आप सभी दलित रचनाकारों को पढ़ता हुआ झूमता था. एक नए भविष्य की उम्मीद में जैसे सब दलित आते है मैं भी …

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देह और प्रेम के कुहासे के बीच सपनों का वसंत — राकेश बिहारी

  इक्कीसवीं सदी मे अपना अस्तित्व-निर्माण कर चुकी कथा लेखकों की पीढ़ी, जिसे मैं भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी कहता हूँ, की आधी आबादी ने नि:संदेह वर्षों पुरानी वर्जनाओं से खुद को मुक्त करते हुये स्त्री- कामेषणाओं पर खुल के कलम चलाई है. लेकिन प्रश्न यह है कि इन वर्जनाहीन कामेषणाओं को जस का तस स्वीकार कर इसके उत्सव में शामिल हो लिया …

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मलयालम भाषा की केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार जेत्री कथाकार — डॉ के.वनजा

बीसवीं शताब्दी के आरंभ का केरलीय समाज विसंगतियों का रहा था। जाति-धर्मों पर केन्द्रित आर्थिक-व्यवस्था के बदले में पूँजीवादी विशेषताओं की व्यवस्था का आरंभ और अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मध्यवर्गीय लोगों का विकास इस ज़माने में हुए। फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार उपन्यास राष्ट्रीय रूपक है।  केरल में उपन्यास के आरंभ में ही अधिकार के खिलाफ एक प्रतिसंस्कृति के निर्माण का स्वभाव व्यक्त …

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पूरे चाँद की ओर — रश्मि रावत

                      पूरे चाँद की ओर      ‘एक इंच मुस्कान’ (1962) के प्रकाशन के साथ मन्नू भंडारी की उपन्यास-यात्रा का शुभारम्भ होता है। उपन्यास राजेंद्र यादव के साथ मिल कर लिखा गया है इसलिए दोनों ही रचनाकारों की सूची में इसे शामिल किया जा सकता है। रचना के तौर पर इस प्रयोग से आंतरिक अन्विति में भले ही कुछ कमी आई …

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स्त्री दर्पण — गरिमा श्रीवास्तव

हमारा इतिहास अभिलेखागारों,शोधपत्रों और इधर –उधर बिखरे आख्यानों के टुकड़े –जोड़ –जोड़ कर ही  हमारे सामने आता है। औपनिवेशिक भारत में स्त्री चेतना और जागरण के लिए निरंतर प्रयासरत पत्रिकाओं की  वैचारिक निष्ठाओं का मूल्यांकन  स्त्री –लेखन के विश्रृंखलित इतिहास को मुकम्मल रूप भी प्रदान कर सकता है। यह  कार्य चुनौती पूर्ण  है क्योंकि पुस्तकालयों और अभिलेखागारों में संकलित सामग्री बिखरी …

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हिन्दी की पहली मौलिक कहानी — महेश दर्पण

    इस कहानी का प्रकाशन ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में अप्रैल, सन् 1901 में हुआ था। छोटी–सी यह कहानी अपने कथानक और सुगठन के कारण याद रह जाती है। यहां माधवराव सप्रे अपनी पहली कहानी ‘एक पथिक का स्वप्न’ की भाषा और शैली से एकदम अलग ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ के माध्यम से कहानी की एक नयी ज़मीन और सोच की खोज करते …

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यहाँ रोज कुछ बन रहा है — अच्युतानंद मिश्र

       आठवें दशक की कविता की केन्द्रीय संकल्पना क्या है? वह कौन सी दृष्टि या परिकल्पना है, जिसके तहत आठवें दशक की कविता एक नया आयाम रचती है. आठवें दशक की कविता का प्रस्थान आज हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है ? आठवें दशक के कवियों और कविताओं से गुजरते हुए ये प्रश्न सहज ही पाठक के अतःकरण …

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‘हम नहीं रोनी सूरत वाले’ : सावित्रीबाई फुले की कविताई – बजरंग बिहारी तिवारी

  जीवन की गहरी समझ के साथ काव्य-रचना में प्रवृत्त होने वाली सावित्रीबाई फुले (1831-1897) अपने दो काव्य-संग्रहों के बल पर सृजन के इतिहास में अमर हैं| उनका पहला संग्रह ‘काव्यफुले’ 1854 में तथा दूसरा ‘बावन्नकशी सुबोधरत्नाकर’ 1891 में प्रकाशित हुआ| दोनों ही संग्रह ज्योतिबा फुले से संदर्भित हैं| पहले संग्रह में उन्होंने अपने जीवनसाथी फुले के प्रति प्रेमपूर्वक कृतज्ञता जाहिर …

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मैला आँचल : लिंग-भेदी नैतिकता की सर्जनात्मक आलोचना – विनोद तिवारी

28 नवंबर 2013 को मनीष शांडिल्य की एक स्टोरी के साथ बीबीसी हिंदी डॉट कॉम एक
खबर प्रकाशित होती है –  रेणु के ‘मैला
आँचल’ की कमली नहीं रहीं ।

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