कविताएँ :: बाबुषा कोहली
जीवन के शिल्प में
कविता,
अपने सौंदर्य के लिए
थोड़ा छद्म संभव कर लेती है-
बिना हिचकिचाहट.
एक सच्चे जीवन की उपमा,
एक सच्चा जीवन ही हो सकता है.
कविता आग का फूल है ; जीवन फूल की आग.
कविता नदियों का कोरस है ; जीवन पानी का
एकल आलाप.
सरल है कविता की कठिन बनावट को अर्जित करना
जीवन की सरल बनावट कठिन है
कोई आता है अब मेरे यहाँ कविता से मिलने
कहती हूँ-
बैठो. फूल की आँच चखो.
पानी पियो.
कविता के शिल्प की नहीं,
मुझसे जीवन के शिल्प की बात करो.
पढ़ने का ढंग
मुझे तब मत पढ़ो
जब मैं लिखती हूँ चन्द्रमा पर कविता
बल्कि तब पढ़ो
जब मैं देखती हूँ चन्द्रमा
( घूँट घूँट पीते हुए चाँदनी )
फिर यह पढ़ो
कि चन्द्रमा पर कविता लिखते क्षण
मैं चन्द्रमा को ही देख रही हूँ
मगर चन्द्रमा को देखते हुए मैं कविता नहीं लिख रही
( भला यह सम्भव भी कैसे हो सकता है ? )
स्वयं को देखने से वंचित
देखती हैं आँखें सर्वत्र
और मैं –
चन्द्रमा की आँख बन जा रही हूँ
जिससे वह मुझे ही देख रहा है
मुझे पढ़ो-
एक अनन्य पाठक की तरह नहीं
बल्कि यूँ
ज्यों मैं चन्द्रमा हूँ
और तुम हो नीलआर्मस्ट्रॉंग
या फिर इस तरह ज्यों मैं चन्द्रमा हूँ
और तुम
शमशेर
और एक नीला आईना
बेठोस चाँदनी से दमक रहा है
या फिर इस तरह ज्यों मैं चन्द्रमा हूँ
और तुम समुद्र
जो मेरे भीतर लहरा रहा है
भंगुर की तान पर शाश्वत का गीत
निविड़ रात्रि के मध्य नहीं झरता धरती पर सूर्य का प्रसाद
वर्षा अधिक से अधिक कितनी देर तन भिगो सकती है
पर्वतों की ऊँचाई बँध जाती मीटरों में
ऋतुओं की नियति पर निर्भर है वृक्षों का वैभव
आग बुझ जाती है
फूल मुरझाते हैं
जल उड़ जाता है
जुगनू मर जाते हैं
छोटी-छोटी छवियाँ
उभर आतीं नदियों- समन्दरों में
पूरा का पूरा आकाश कहीं अटता नहीं
इस भंगुर जगत में टिक पाता वही
जो इहलोक का नहीं
कविता
किंचित गड़बड़ा जाती है –
सारे उपमान पड़ जाते क्षीण
इस टुटपुंजिए संसार में जब सचमुच !
कोई करता है प्रेम
मेरे होने की छाया भर है मेरी काया
स्पर्श की सबसे गहन स्मृति देह पर नहीं बनती
संन्यासी !
तुम्हें इस तरह छूती हूँ मैं
ज्यों कोई नन्हा पंजों के बल उचक कर
इन्द्रधनुष छू लेता है !
चिर यौवन का भेद
कभी अस्त नहीं होता वह सूर्य जिसे ताकती है
कोई प्रेमिका
आधा नहीं होता वह चन्द्रमा जिसे निहारते हैं
अलग अलग शहर की छतों से
दो प्रेमी
टूट कर धरती पर नहीं बिखरते वे सितारे
अनायास जिन्हें देखते ही शिशु की इच्छा से भर उठती हो
किसी माँ की छाती
चिर युवा रहती है वह स्त्री जिसे प्रेम करता है
कोई संन्यासी
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बाबुषा कोहली भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार (२०१४) से सम्मानित हिंदी की चर्चित कवयित्री और लेखक हैं। उनकी कविताएँ हिंदी कविता में आध्यात्मिक निरंतरता और श्रम का एक दर्पण भी है। कविता और गद्य के साथ-साथ यात्राएँ, नृत्य और संगीत उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा है।‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ ( भारतीय ज्ञानपीठ -2015), ‘बावन चिट्ठियां’ (2018) उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं।