भाषा में विष
जिन की भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था
दुःखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी
भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था
ख़ौफ़ उजले का
आप मानें या न मानें
उजाले का भी एक अलग ही तरह का ख़ौफ़ होता है
एकदम से कहाँ नज़र टिक पाती सूरज पर
मन की मोटी परतें तक कंपकंपा देते
साँवली आत्मा को ढाँपे हुए उजले कफ़न
मुझे तो दीये से डर लगता है
मशाल से डर लगता है
चूल्हे की, चिता की, चित्त की आग से डर लगता है
चकाचक चकोर की चाह से डर लगता है
चमचम चाँद काटता चिकोटी
पूछता सवाल
अरे ! ओ इनसोम्निया के बेबस शिकार !
तुमको आख़िर किस-किस बात से डर लगता है ?
क्या कहूँ
झक्क सफ़ेद नमक चखे बैठे प्रेम का
जबकि और हज़ार किसिम के स्वाद ललचाते
सोंधे-सोंधे स्वप्न लुभाते थरथराते
चुल्लू भर वचनों में डूब के मर जाते
कि मुझे तो नमक की वफ़ा भरी उजास से डर लगता है
आत्महत्या की हद तक ललचाता धुआँधार का उजेला
उस चाँदी के असभ्य प्रपात से डर लगता है
उजाले से डर के मेरे क़िस्से न पूछो
‘ज्ञानरंजन’ की दाढ़ी के उजले बाल से डर लगता है
सत्यान्वेषी
एक दिन हम सब 12×18 इंच के एक फ़ोटो फ़्रेम के भीतर सिकुड़ कर रह जाएँगे और हमारी मुस्कुराती शक़्लें अगरबत्ती के धुएँ के पीछे छुप जाएँगी। वे लोग जो जीवन भर हमारी फक्कड़ हँसी से ख़ौफ़ खाते रहे या हमारे मुक्त केश बाँधने के लिए चौड़े फीते बनाते रहे, हमारी अच्छाइयाँ गिनते नहीं थकेंगे। हमारी ज़िन्दगी की बड़ी से बड़ी ग़लती पर लाड़ के रेशमी पर्दे पड़े होंगे और हमारी छोटी-छोटी जीतों का आकार अचानक ज्यूपिटराना हो रहेगा। हम सब आगे या पीछे लगभग एक ही तरह की प्रतिक्रियात्मक स्मृति में टाँक दिए जाएँगे जहाँ कुछ घन्टों की सनसनी को दुःख कहते हैं।
गूगल के सहारे किसी को ढूँढा जा सकता
तो यक़ीनन सबसे पहले मैं खुद को ढूँढ़ निकालती
कोई पढ़ने या न पढ़ने वाला भी अगर मुझे जानना चाहे तो कृपया गूगल का भरोसा न करे
न ही उन्हें सुने जो मेरे जाने के बाद मेरी शान में कुछ कह रहे हैं
सुनना तो बस ! उन्हें, जो कुछ नहीं कह पा रहे.
मेरा क़िस्सा ख़त्म होने पर कुछ ( एकदम कु छ ) लोग
ज़रूर ऐसे बच रहेंगे जो जानते थे कि
मुझे सही होने की उतनी चाह नहीं
जितनी कि सत्य होने की
दरअसल मेरे दोस्त !
ज़िन्दगी अपने आप में एक आतंकवादी हमला है
जिससे किसी तरह बच निकली कविता
अपने क्षत-विक्षत टुकड़ों में भटकती
दुःस्वप्न बन अपने कवि की नींद चुनती है
हमारे दुःस्वप्न कितनी ही कविताओं का शमशान घाट हैं
हमारी कविताएँ आँखों देखी मौत का ऐतिहासिक दस्तावेज़
बाबुषा कोहली भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार (२०१४) से सम्मानित हिंदी की चर्चित कवयित्री और लेखक हैं। उनकी कविताएँ हिंदी कविता में आध्यात्मिक निरंतरता और श्रम का एक दर्पण भी है। कविता और गद्य के साथ-साथ यात्राएँ, नृत्य और संगीत उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा है।‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ ( भारतीय ज्ञानपीठ -2015), ‘बावन चिट्ठियां’ (2018) उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं।