अजंता देव की कविताएं

 

ताँत की साड़ी

मैं बनी हूँ सिर्फ़  मुझे ही पहनने के
लिए

ब्लाउस ग़ैरज़रूरी है मेरे साथ
फिसलती नहीं
पर पारदर्शी हूँ


मेरे  किनारे मज़बूत हैं
ठोक के बुना है जुलाहे ने
मुझे पूरा बुनने के बाद थक गया था वह
मैं नहीं निकलती हज़ारों मीटर लगातार
मेरे रेशे बिखरे रहते हैं धूल के साथ
धूल होते हुए ।

ताँत की साड़ी – २

मेरे ताने बाने  पर उँगलियों के
निशान होते हैं

जुलाहा कोई दस्ताने नहीं पहने होता
कहने वाले कहते रहें मुझे कोरा
लेकिन मेरी स्मृति कोरी  नहीं
मुझे तो कपास बीनने वाला भी याद है

कोरी तो  सिन्थेटिक साड़ी
होती है ।

ताँत  की  साड़ी -३

मेरे बाज़ार की भाषा अलग है
बेचने के लिए नहीं कहा जाता
ले लीजिए बहुत चल रही है आज कल “

मेरे लिए कहा जाएगा हमेशा
ऐसी दूसरी नहीं मिलेगी “

ताँत की साड़ी -४

मेरे अनेक घर हैं
हर घर के अलग रंग
दूर से पहचान ली जाती हूँ
इस बार किसके कंधे पर बैठ कर आई हूँ
दुनिया का मेला देखने

शांतिपूरी,धोनेख़ालि या ढाकाई
कौन ननिहाल ? कौन घर ?
पूछते हैं लोग
जैसे लड़की देखने आए हों
लेकिन मुझ पर दिल आए बग़ैर सब बेकार
और दिल तो अटक जाता है डूरे पाड़  और हाजारबूटी पर
ये नक़्शा  …ये ही नक़्शा 
चाहिए

सिर्फ़ काला नहीं
हर रंग का जादू  सिर चढ़ कर बोलता
है ।

मेरे धागों के सिरे पर ज़िंदा लोग
बँधे होते हैं

कठपुतलियों की तरह ।

ताँत की साड़ी -५

मुझे ख़रीदने से पहले दो बार सोचना
अगर इतराना है बंधु बांधव के आगे
लगाना होगा भात का माँड़
पेश करना होगा मेरी सिलवटों को सीधा
करके

लेकिन सिर्फ़ ख़ुद ही देखना चाहते हो
मेरे नक़्शे  मेरी धूपछाँही रंगत
मेरी  बुनावट पर फ़िदा होना चाहते हो
तो रखना मुझे मुलायम
रोज़ पोखर के पानी में तैरने देना
मुझे

धूप से बचा कर हवा में लहरा देना

देखना मेरा निखार हर दिन बढ़ता हुआ

ताँत की साड़ी -६

मुझे खींचना पड़ता है देह से
साफ़ तौर पर दर्ज करना होता है
अभिप्राय

तुम्हारी सुविधा के लिए अपने आप नहीं
सरकने वाली मैं

मुझे बुना गया है कामकाजी कारणों से
कमर पर ठीक से बँधने के लिए
धोखा मेरी फ़ितरत नहीं
बस में चढ़ते समय मैं पैर में फँस कर
भी अडिग रहूँगी

मुझे सम्हालने को नहीं चाहिए अतिरिक्त
ध्यान

याद रहे अँगोछा मेरा ही छोटा भाई है ।

ताँत की साड़ी -७

दुनिया में जो इतने युद्ध इतनी
मारामारी है

इन्हें सुनते देखते दुख जाती होंगी
तुम्हारी आँखें

तुम क्या करते हो बहते आँसुओं का ?
कैसे देखोगे अपना संसार फिर से समतल
जबकि आँखों में आता जा रहा होगा पानी
लगातार

लो मैं याद दिलाती हूँ
मेरे कोने अब भी मौजूद हैं
स्त्रियों के कंधों के पीछे
दौड़ो और पोंछ लो आँसू
मेरे पल्लू ऐसे ही बुने जाते हैं
जाने कितनी पलकों के बाल अब भी अटके
हैं

मेरे गीले किनारों पर

ताँत की साड़ी -८

भारतीय फ़िल्मों  का काम
मेरे बिना चलना मुश्किल है
दुखी  औरत की  मैं सर्वकालिक पोशाक हूँ
मुझमें असंख्य दाग़ मुमकिन है
मुमकिन है मुझमें रफ़ू
मुझे फाड़ कर बांधी जा सकती हैं
प्रेमी की ऊँगली पर पट्टी

अदृश्य को दृश्य बनाने  में मैं अप्रतिम
हूँ

लेकिन मेरा नाम पात्र परिचय में कभी
नहीं आता

ताँत की साड़ी -९

करघे के बाहर मेरा विस्तार असीम है
ऐश्वर्य से दरिद्रता तक फैला है मेरा
राज्य

जामदानी से आटपोऊरे के बीच तना है
मेरा तानाबाना

मैं कुलीन और आवारा हूँ एक साथ
अभिजात और मेहनतकश
कभी सहेजी गयी पीढ़ियों तक
कभी निचोड़ा गया मुझे  गन्ने की तरह
मेरी वजह से ही स्त्रियाँ लगती हैं
अलग

मनुष्य में मेरे जैसी विविधता कहाँ
तुम जब भी करते हो
मेरा ही करते हो मान या अपमान

ताँत की साड़ी -१०

किसी वजह से दुबारा लगाई गई हैं ।

ताँत की साड़ी _

मैं बनी हूँ सिर्फ़  मुझे ही पहनने के
लिए

ब्लाउस ग़ैरज़रूरी है मेरे साथ
फिसलती नहीं
पर पारदर्शी हूँ
मेरे  किनारे मज़बूत हैं
ठोक के बुना है जुलाहे ने
मुझे पूरा बुनने के बाद थक गया था वह
मैं नहीं निकलती हज़ारों मीटर लगातार
मेरे रेशे बिखरे रहते हैं धूल के साथ
धूल होते हुए ।

ताँत की साड़ी – २

मेरे ताने बाने  पर उँगलियों के
निशान होते हैं

जुलाहा कोई दस्ताने नहीं पहने होता
कहने वाले कहते रहें मुझे कोरा
लेकिन मेरी स्मृति कोरी  नहीं
मुझे तो कपास बीनने वाला भी याद है

कोरी तो  सिन्थेटिक साड़ी
होती है ।

ताँत  की  साड़ी -३

मेरे बाज़ार की भाषा अलग है
बेचने के लिए नहीं कहा जाता
ले लीजिए बहुत चल रही है आज कल “

मेरे लिए कहा जाएगा हमेशा
ऐसी दूसरी नहीं मिलेगी “

ताँत की साड़ी -४

मेरे अनेक घर हैं
हर घर के अलग रंग
दूर से पहचान ली जाती हूँ
इस बार किसके कंधे पर बैठ कर आई हूँ
दुनिया का मेला देखने

शांतिपूरी,धोनेख़ालि या ढाकाई
कौन ननिहाल ? कौन घर ?
पूछते हैं लोग
जैसे लड़की देखने आए हों
लेकिन मुझ पर दिल आए बग़ैर सब बेकार
और दिल तो अटक जाता है डूरे पाड़  और हाजारबूटी पर
ये नक़्शा  …ये ही नक़्शा 
चाहिए

सिर्फ़ काला नहीं
हर रंग का जादू  सिर चढ़ कर बोलता
है ।

मेरे धागों के सिरे पर ज़िंदा लोग
बँधे होते हैं

कठपुतलियों की तरह ।

ताँत की साड़ी -५

मुझे ख़रीदने से पहले दो बार सोचना
अगर इतराना है बंधु बांधव के आगे
लगाना होगा भात का माँड़
पेश करना होगा मेरी सिलवटों को सीधा
करके

लेकिन सिर्फ़ ख़ुद ही देखना चाहते हो
मेरे नक़्शे  मेरी धूपछाँही रंगत
मेरी  बुनावट पर फ़िदा होना चाहते हो
तो रखना मुझे मुलायम
रोज़ पोखर के पानी में तैरने देना
मुझे

धूप से बचा कर हवा में लहरा देना

देखना मेरा निखार हर दिन बढ़ता हुआ

ताँत की साड़ी -६

मुझे खींचना पड़ता है देह से
साफ़ तौर पर दर्ज करना होता है
अभिप्राय

तुम्हारी सुविधा के लिए अपने आप नहीं
सरकने वाली मैं

मुझे बुना गया है कामकाजी कारणों से
कमर पर ठीक से बँधने के लिए
धोखा मेरी फ़ितरत नहीं
बस में चढ़ते समय मैं पैर में फँस कर
भी अडिग रहूँगी

मुझे सम्हालने को नहीं चाहिए अतिरिक्त
ध्यान

याद रहे अँगोछा मेरा ही छोटा भाई है ।

ताँत की साड़ी -७

दुनिया में जो इतने युद्ध इतनी मारामारी
है

इन्हें सुनते देखते दुख जाती होंगी
तुम्हारी आँखें

तुम क्या करते हो बहते आँसुओं का ?
कैसे देखोगे अपना संसार फिर से समतल
जबकि आँखों में आता जा रहा होगा पानी
लगातार

लो मैं याद दिलाती हूँ
मेरे कोने अब भी मौजूद हैं
स्त्रियों के कंधों के पीछे
दौड़ो और पोंछ लो आँसू
मेरे पल्लू ऐसे ही बुने जाते हैं
जाने कितनी पलकों के बाल अब भी अटके
हैं

मेरे गीले किनारों पर

ताँत की साड़ी -८

भारतीय फ़िल्मों  का काम
मेरे बिना चलना मुश्किल है
दुखी  औरत की  मैं सर्वकालिक पोशाक हूँ
मुझमें असंख्य दाग़ मुमकिन है
मुमकिन है मुझमें रफ़ू
मुझे फाड़ कर बांधी जा सकती हैं
प्रेमी की ऊँगली पर पट्टी

अदृश्य को दृश्य बनाने  में मैं अप्रतिम
हूँ

लेकिन मेरा नाम पात्र परिचय में कभी
नहीं आता

ताँत की साड़ी -९

करघे के बाहर मेरा विस्तार असीम है
ऐश्वर्य से दरिद्रता तक फैला है मेरा
राज्य

जामदानी से आटपोऊरे के बीच तना है
मेरा तानाबाना

मैं कुलीन और आवारा हूँ एक साथ
अभिजात और मेहनतकश
कभी सहेजी गयी पीढ़ियों तक
कभी निचोड़ा गया मुझे  गन्ने की तरह
मेरी वजह से ही स्त्रियाँ लगती हैं
अलग

मनुष्य में मेरे जैसी विविधता कहाँ
तुम जब भी करते हो
मेरा ही करते हो मान या अपमान

ताँत की साड़ी -१०

किसी वजह से दुबारा लगाई गई हैं ।

 

 ++++++++++++++++++++++++

Leave a Reply