जानना
नीम का पेड़ नहीं जानता कि नीम है उसका नाम
न पीपल के पेड़ को पता कि वह पीपल है
यह तो आदमी है जो जानता है कि उसका नाम
बाँकेबिहारी दुबे है और उसके पड़ोसी का
शेख़ रहीम
आदमी अपने नाम के गौरव के बारे में जानता है
और भी बहुत कुछ जानता है वह
नामों की उत्पत्ति और नीति-वचनों के बारे में
इतिहास और न्याय के बारे में
तत्त्व-मीमांसा और वेदांत के बारे में
रामायण, हदीस और क़ुरआन के बारे में
रहीम की दूसरी जोरू और तीसरी सन्तान के बारे में
पर आदमी यह नहीं जानता कि रहीम के बारे में जानना
और रहीम को जानना
दो अलग बातें हैं
आदमी यह भी नहीं जानता
कि अतिरिक्त जानना एक तरह की अश्लीलता है
आदमी केवल पेड़ों के नाम जानता है,
पेड़ों को नहीं
शब्द के स्तूप में अर्थ का नख
छाती से शिशु का शव चिपकाए
बिलख-बिलख गिरती थी
धरती पर बेसुध हो
किसा गौतमी
धरती के धीरज पर धूजती
हाय हाय करती
शोक से लिथड़ाई
बावरी-सी फिरती थी
किसा गौतमी
तब किसी ग्रामीण ने कहा-
तथागत के द्वार जा !
आस का दीपक बाले
गोद में उठाये निष्प्राण देह
आकाश का पता ढूँढ़ने
पृथ्वी पर दौड़ी थी
किसा गौतमी
आँखों पर अश्रुओं का पट था
कुछ भी न दिखता
लाग के सावन की अंधी
हरे-हरे घाव वह उघाड़ती
टूटी टहनी-सी बार-बार गिरती थी
किसा गौतमी
देर तक मौन रहे मारजित
फिर बोले-
पुत्र पुनर्जीवित होगा अवश्य
एक विधि से।
क्षण भर में नाचने लगी
बिना विधि जाने ही
किसा गौतमी
( तब कौतूहल-से भरी किसी बाबुषा ने
शोक को संबोधित किया –
हे शोक !
तू कितना अस्थायी
व उथला है-
विश्व के सबसे व्यथित प्राणी के निकट भी
क्षण भर ही ठहरा है ?
हाय ! मरने को आतुर थी अविलम्ब
किस भ्रम के अधीन हो नाच रही-
किसा गौतमी ?
तब शास्ता ने सातवें शरीर में प्रवेश कर
अबोध बाबुषा की दुविधा का
अंत किया।
लौटे वहीं-
जहाँ सुख की आस में हँसती थी-
किसा गौतमी। )
पुत्र पुनर्जीवित होगा अवश्य
एक विधि से-
जा ! मुट्ठी भर सरसों लेती आ
ऐसे घर से
जहाँ कभी कोई न मरा हो
पुत्र तेरा जागेगा पुनः
किसा गौतमी !
कहते हैं,
पुत्र तो न जागा किन्तु उस दिन
प्रथम बार जागी थी
किसा गौतमी
भगवान व्यथाओं के उपवन से बोध के पुष्प चुन गाथाएँ कहते हैं। अबोध बाबुषा की कविता स्तूप भर है, जहाँ उनका नख रखा है। शाक्यमुनि की अनुमति ले बाबुषा ने उनके नख से लिखा-
मृत्यु-
नींद का नीला फूल है
दुनिया भर में पाया जाने वाला-
हर आँगन उगता
ऋतुओं से निरपेक्ष वह
ऐसा प्रतीत होता कि मानो खिला अकस्मात्
देखा ही नहीं कभी बीज को
गड़ा रहा माटी की देह में
श्वास में पड़ा रहा
नींद का वह फूल कहीं भी खिले-
सुदूर या निकट
किसी भी रुत
तीखी सुगन्ध से-
आज भी जाग उठती है
किसा गौतमी
बैरंग कविताएँ
पेड़ों के लिए लिखी कविता-
काग़ज़ तक पहुँचती है,
पेड़ों तक नहीं
शोषितों के लिए लिखी कविता-
गोष्ठियों तक पहुँचती है,
शोषितों तक नहीं
ईश्वर के लिए लिखी कविता,
फ़साद तक पहुँचती है,
ईश्वर तक नहीं
प्रेयस के लिए लिखी कविता,
ईश्वर तक पहुँचती है,
प्रेयस तक नहीं
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बाबुषा कोहली भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार (२०१४) से सम्मानित हिंदी की चर्चित कवयित्री और लेखक हैं। उनकी कविताएँ हिंदी कविता में आध्यात्मिक निरंतरता और श्रम का एक दर्पण भी है। कविता और गद्य के साथ-साथ यात्राएँ, नृत्य और संगीत उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा है।‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ ( भारतीय ज्ञानपीठ -2015), ‘बावन चिट्ठियां’ (2018) उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं।