केवल छप्पन वर्ष का ही जीवन मिला उन्हें, लेकिन ऐसा ‘दीर्घतपा’ कि मानो अनेक जन्मों की सिद्धियाँ इसी एक जन्म में लभ्य हो गई हों।
रेणु ने जैसा जीवन जिया उसकी तुलना शायद ही किसी हिन्दी लेखक के जीवन से की जा सकती है। अहिंसक और उग्र धाराओं के स्वतंत्रता सेनानी कुछ लेखक ही ध्यान में आते हैं जिन्होंने जेल यात्राएँ कीं, कष्ट भोगे और लगातार लिखते रहे, जैसे – माखन लाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चैहान, अज्ञेय, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन और रामवृक्ष बेनीपुरी आदि। ये सभी इनसे वरिष्ठ और पूर्ववर्ती पीढ़ी के थे, तब भी इनमें से कोई नाम ऐसा नहीं जिसे परतंत्र ही नहीं, स्वतंत्र भारत में भी जेल हुई हो। और ऐसा तो कोई लेखक नजर नहीं आता जिसने अपने देश की आजादी के लिए तो संघर्ष किया ही, परदेश (नेपाल) में अन्यायकारी शासन के खिलाफ भी शस्त्र उठाया हो। ऊपर से स्वदेश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए पुनः अपनी जीर्ण काया में उठ खड़ा हुआ हो और जेल गया हो।
ऐसा नहीं कि लिखने की ये पूर्व शर्तें हैं, लेकिन लेखन में लेखक के अनुभव लोक की, जिस निगाह से उसने दुनिया देखी, उसकी, महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रेणु का जन्म एक बहुत साधारण ग्रामीण परिवार में हुआ लेकिन उनके किसान पिता पर आर्यसमाज का प्रभाव था और वे स्वयं कांग्रेस से जुड़े थे। जब उन्होंने होश सम्भाला तब स्वतंत्रता आंदोलन का माहौल देखा। कम उम्र में स्वातंत्र्य-चेतना और राजनीति के प्रति आकर्षण – ये उनके जीवन की स्थाई वृत्तियाँ बनीं। न राजनीतिक रेणु, न लेखक रेणु ही इनके बाहर हो सके। भले ही वे दलीय या सक्रिय राजनीति से सन् 1952 में ही अलग हो गए लेकिन अपनी राजनीतिक समझ और दृष्टि को उन्होंने अपने लेखन के जरिये अभिव्यक्त किया। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उन्होंने अपनी राजनीति को लेखन का उपजीव्य बना दिया। सक्रिय राजनीति से अलग होने के बीस वर्ष बाद 1972 में विधान सभा के लिए चुनाव लड़ा और हार गए, लेकिन इस कृत्य का उन्होंने यह कहकर औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की कि अरसे से वे लोगों से, खासकर युवाओं से मिल नहीं पा रहे थे, वे क्या चाहते हैं, क्या सोचते हैं, कैसे अपनी दुनिया को देखते हैं – चुनाव ने यह जानने का मौका दिया। लेखन में नई स्फूर्ति और ताजगी के लिए यह जरूरी था। ‘मैंने तय किया था कि मैं खुद पहनकर देखूँ कि जूता कहाँ काटता है।’ उन्होंने 1974 में सुरेन्द्र किशोर को एक साक्षात्कार में कहा था।
इसके दो वर्ष बाद ही 1974 के छात्र आंदोलन का नेतृत्व जब जयप्रकाश नारायण ने सम्भाला और 8 अप्रैल 1974 को कदमकुआँ से छात्र-दमन के खिलाफ शांति-जुलूस निकला तो रेणु मुँह पर पट्टी बाँधे जेपी के साथ आगे-आगे चल रहे थे – ‘क्षुब्ध हृदय है बंद जुबान।’ छात्र आंदोलन ‘सपूर्ण क्रांति आंदोलन’ बन गया, इसका राष्ट्रव्यापी प्रसार हुआ। जेपी लोकनायक बन गए। रेणु जी फारबिसगंज में बाढ़ पीड़ितों के साथ प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार कर लिए गए, लेकिन भारी जनविरोध के कारण उन्हें जल्द ही छोड़ना पड़ा। इसी बीच 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैध ठहराया। पद छोड़ना उनकी मजबूरी बन गई लेकिन 25 जून 1975 को रामलीला मैदान, दिल्ली में जयप्रकाश जी के भाषण को मुद्दा बनाकर उसी रात देश में आंतरिक आपातस्थिति की घोषणा कर दी। जयप्रकाश जी और लगभग सभी विपक्षी नेताओं सहित हजारों आंदोलनकारी गिरफ्तार कर लिए गए। रेणु ने विरोध स्वरूप 1968 में मिला पद्मश्री पुरस्कार लौटा दिया। वे गिरफ्तार किए गए – हिन्दी के अकेले बड़े लेखक जो आपातकाल में जेल गए। गंभीर अस्वस्थता की स्थिति में रिहा हुए, तभी आम चुनावों की घोषणा हुई। वे बीमारी भूलकर ‘लोकशाही’ की विजय के लिए जनता के बीच गए। जनता पाटी विजयी हुई, उनकी हार्दिक इच्छा पूर्ण हुई लेकिन 1977 का साल उनके जीवन का अंतिम साल भी साबित हुआ। आजादी उनके लिए साँस लेने जितनी जरूरी थी, उनके होने की अनिवार्य शर्त। खुली हवा में साँस लेते हुए उन्होंने देह छोड़ी, इतना तो हुआ।
आँख खोलते ही रेणु जी ने गरीबी, अभाव, वंचना और भेदभाव देखा। इनसे लड़ने की युक्ति सीखी, राजनीति की, उसके अनेक रंग देखे। इसी क्रम में उन्होंने आजादी की लड़ाई भी लड़ी और आजादी के बाद भी भूमिहीनों, शोषितों, वंचितों के पक्ष में लड़ते रहे। उनकी पढ़ाई अररिया, विराटनगर (नेपाल) और बनारस में हुई। कम उम्र में ही वे नेपाली क्रांति के अगुआ बिशेश्वर प्रसाद कोईराला के सम्पर्क में आए। उन्होंने अपने समाज को नेपाली समाज तक विस्तारित कर दिया, उनके सुख-दुःख को भी अपना बना लिया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने इंटर किया और छात्र राजनीति में दीक्षित भी हुए। यहाँ वे स्टूडेंट फेडरेशन के पदाधिकारी भी थे यानी कम्यूनिस्ट पार्टी से भी जुड़े थे। 1938 उनके जीवन का महत्वपूर्ण वर्ष था। इसी वर्ष छपरा में एक कार्यशाला में इनकी भेंट जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, कमलादेवी चट्टोपाध्याय और राम मनोहर लोहिया जैसे दिग्गज नेताओं से हुई। वे बिहार सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए और पार्टी के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे।
एक जगह रेणु कहते हैं 1942 के बारे में – ‘‘1942 में बंबई से आई आवाज ‘इंकलाब जिंदाबाद’ हमारे गाँव तक पहुँची थी … लेकिन बंबई से सिर्फ इतनी ही आवाज गई थी कि महात्मा गाँधी पकड़ लिए गए हैं। इसके बाद क्या करना है, यह समाजवादियों को मालूम था, मालूम था देश के युवकों को उस चिट्ठी के जरिए जो जेल से श्री जयप्रकाश ने स्मगल करके भेजी थी।’ सन् 42 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे गिरफ्तार होकर रिहा भी होते हैं लेकिन जेपी के पकड़े जाने पर हताश भी होते हैं। फिर नवम्बर 1942 में जेपी अपने पाँच साथियों सहित हजारीबाग जेल से फरार हो जाते हैं ताकि क्रांति की मशाल बुझने न पाए। वे ‘आजाद दस्ता’ बनाते हैं और रेणु उसका हिस्सा बनते हैं। उनकी यह सक्रियता स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात भी बनी रहती है एक सोशलिस्ट के रूप में। हालांकि इस दौरान कम्यूनिस्ट पार्टी की गतिविधियों और कार्यक्रमों तथा नेताओं-कार्यकर्त्ताओं को भी अपने अध्ययन व अवलोकन कर हिस्सा बनाते हैं। कई लोग उनकी रचनाओं के यागदार पात्र भी बनते हैं। इस बीच 1942 में ही भागलपुर जेल में एक ओर तो वे समाजवादी विचारधारा में एक प्रकार से दीक्षित हुए, दूसरी ओर उन्हें अपने साहित्यिक गुरु सतीनाथ भादुड़ी का भी साहचर्य प्राप्त हुआ। उन्होंने रेणु जी को कथा-कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया। यह आकस्मिक नहीं कि रेणु की पहली कहानी ‘बटबाबा’ कुछ ही समय बाद 1944 में कलकत्ता के विश्वामित्र में प्रकाषित हुई। यहीं से उनकी लेखन-यात्रा आरंभ होती है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वे सोश लिस्ट पार्टी के एक समर्पित बुद्धिजीवी नेता/कार्यकर्त्ता के रूप में कार्य करते रहे। इसी बीच नेपाल में राणाशाही को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष तेज हुआ तो वे अपने नेपाली सहोदरों की सहायता करने से अपने का रोक न सके। उन्होंने स्टेनगन तक उठाया और नेपाली काँग्रेस के समानान्तर रेडियो स्टेश न के ‘डायरेक्टर जेनरल’ का दायित्व भी संभाला। 1951 में राणाशाही का अंत हो गया। स्वतंत्र भारत का पहला आम चुनाव काँग्रेस के विरुद्ध सोशलिस्ट पार्टी पूरे जोर-षोर से चुनाव लड़ी, लेकिन इस अंतर्कलहग्रस्त पार्टी की बड़ी हार हुई। बाद में पार्टी में विभाजन भी हो गया। रेणु के जीवन में ही नहीं देश के लिए भी यह एक क्रांतिक-काल है। प्रथम पंचवर्षीय योजना शुरू हुई है जिसकी प्राथमिकता में गाँव नहीं। गाँवों के साथ ठगी हुई है। यह वह समय है जब जयप्रकाश जी को संसदीय राजनीति से विरक्ति हुई और वे देश में लोकशक्ति के संधान में लगे और अंततः 1954 में बोधगया में दलीय राजनीति को त्याग कर आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़कर सर्वोदय में संभावना तलाश की। इसके पहले 1952 मे रेणु ने सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी और पूरी तरह लेखन में रम जाने का निर्णय लिया। पार्टियों में बुद्धिजीवियों की हैसियत और भूमिका को लेकर उन्होंने जो टिप्पणी की, वह आज भी प्रासंगिक है –
‘‘हमारी नियति यही है कि राजनेताओं के भाषण लिखो और उनको किस प्वाइंट में छापा जाए, किस तरह छापा जाए, वह तय करो। इतना ही नहीं, बल्कि बाद में तो नियति बिगड़ी कि हमारी नीयत पर भी संदेह किया जाने लगा। …. तब मेरा दिल धड़का और अपने को दोराहे पर खड़ा पाया। और मैंने राजनीति को तिलांजलि दी, लेकिन जिन मूल्यों के लिए मैं पार्टी में आया था, वे मूल्य मेरे साथ रहे।’’ वास्तविकता यही है कि रेणु ने भले ही सक्रिय राजनीति, दलीय राजनीति से खुद को अलग कर लिया हो, राजनीति से वे अलग नहीं हो पाए। न केवल लेखन में बल्कि समय-समय पर उन्होंने राजनीतिक स्टैण्ड लिया और लोगों के बीच गए। बिहार में 1967 के अकाल के समय अपने रचानाकर मित्र सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय के साथ सूखाग्रस्त इलाकों का दौरा किया, लोगों का कुशलक्षेम लिया, और बड़े प्रभावी रिपोर्ताज लिखे। बीच-बीच में वे कुछ लेखक सम्मेलनों भी गए लेकिन लेखक संगठनों की संकुचित दृष्टि और कार्यप्रणाली ने उन्हें विरक्त ही किया। इस सम्बन्ध में एक प्रसंग की चर्चा की जा सकती है। 1970 के दिसम्बर में एक लेखक सम्मेलन आयोजित था। इसके माह भर पहले उन्हें जेपी का एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने उनके मार्फत देष के तमाम लेखकों से भूखी और बीमार जनता से जुड़ने का आग्रह किया – मैला आँचल आज भी मैला है, बल्कि और भी मैला हो गया है। यह चिट्ठी सम्मेलन में पढ़कर सुना दी गई, लेकिन आम आदमी, क्रांति, प्रतिबद्धता और लेखक की भूमिका आदि विषयों पर तो खूब चर्चा हुई, बस न रेणु का जिक्र हुआ, न जयप्रकाश का, न गाँव की थकी-माँदी जनता का (बकौल नंद चतुर्वेदी, दिनमान, 22 सितंबर 1974, रेणु सुरेन्द्र किशोर को साक्षात्कार देते हुए)।
इतिहास का यह अजब संयोग है कि ये दोनों विभूतियाँ लगभग एक ही साध्य को लेकर सहचर बनीं, दोनों ने लगभग एक ही साथ दलीय राजनीति से सन्यास ले लिया, लेकिन दोनों से ही एक क्षण के लिए भी न राजनीति छूटी न भारत की साधारण जनता के दुःख-तकलीफों से उन्होंने नजरें फेरीं। ये दोनों लगातार सम्पर्क में भी रहे, और आखिरकार नियति ने सन् 74 में इन्हें वापस एक ही साथ एक ही जमीन पर ला खड़ा किया। रेणु को मानों इसी अवसर की प्रतीक्षा थी। वे कहते हैं – ’भ्रष्टाचार जिस तरह व्यक्ति और समाज के एक-एक अंग में घुन की तरह लग गया है, उससे सब कुछ बेमानी हो चुका है। मैं किसके लिए लिखता! जिसका दम घुट रहा हो, वह लिख भी कैसे सकता है। हम सब एक दमघोंटू कमरे में बंद थे। यदि इस आंदोलन के रूप में स्वच्छ हवा के लिए एक खिड़की नहीं खुली होती तो मैं स्वयं खुदकुशी कर लेता। यह आंदोलन तो जीने की चेष्टा है।’ (सुरेन्द्र किशोर से साक्षात्कार के दौरान)। एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा – ‘‘इस बार जब जनक्रांति हुई तब मेरी आत्मा पुकार उठी। सिर्फ कलम से नहीं अपनी काया से भी कुछ लिखना जरूरी है। अपने ही कलेजे के रक्त में अपनी अंगुली डुबाकर ‘क्रांति अमर हो’ लिख पाऊँ, यही कामना मन में हिलोरें लेने लगी। स्पष्ट है कि मैं आंदोलन में शरीक नहीं हुआ, बल्कि आंदोलन मेरे अंदर समा गया।’’ जेपी और रेणु दोनों जमीन को केन्द्रीय महत्व का सवाल मानते रहे। कोसी अंचल में नक्षत्र मालाकार की उपस्थिति नक्सलपंथियों को रोकती हैं, ऐसा वे मानते हैं, लेकिन जेपी का संदर्भ लेकर वे कहते हैं कि अगर भूमिहीनों को जमीन नहीं मिलेगी तो और क्या उपाय बचता है?
भूमि, जमीन रेणु की वैचारिक चेतना का केन्द्रीय तत्व है। यही तत्व जब सृजनात्मक चेतना में रचना के रूप में ढलता है तो मानो जन्मभूमि, मातृभूमि या स्थानिकता में रूपांतरित हो जाता है। भूमि, विशेषकर भूमिहीन जिस प्रकार और जितनी जगह उनकी रचनाओं में घेरते हैं, वह विस्मयकारी है। लगातार भूमिहीनों के पक्ष में खड़े रहे वे पहले कथाकार हैं। विपन्न पात्रों को नायकत्व प्रदान करना ही मानो उनके लेखन का मूल उद्देश्य है। उनके लेखन का यह भी अद्भुत पक्ष है कि उन्होंने अनेक स्थानों पर भूमि का ही मानवीकरण कर दिया है, पात्रता प्रदान कर दी है। हिन्दी में भूमि को लेकर ऐसे बिम्ब पहले कभी नहीं देखे गए – ‘‘धूसर, वीरान, अंतहीन, प्रांतर। पतिता भूमि, परती जमीन, बंध्या धरती… धरती नहीं, धरती की लाश, जिसपर कफन की तरह फैली हुई है – बालूचरों की पंक्तियाँ। उत्तर नेपाल से शुरू होकर दक्षिण गंगा -तट तक, पूर्णिया जिले के नक्षे को दो अहम भागों में विभक्त करता हुआ फैला-फैला यह विशाल भूभाग। लाखों एकड़ भूमि, जिस पर सिर्फ बरसात में क्षणिक आशा की तरह दूब हरी हो जाती है।
कच्छ पृष्ठ सदृश भूमि! कछुआ-पीठा जमीन! तंत्र साधकों से पूछिए, ऐसी धरती के बारे में, वे कहेंगे – असल स्थान वही है जहाँ बैठकर सब कुछ साधा जा सकता है। कथा है … कथा होगी अवश्य इस परती की भी। व्यथा भरी कथा बंध्या धरती की!’
यही भूमि रेणु की तपोभूमि है। अज्ञेय उन्हें यो ही ‘धरती का धनी’ नहीं कहते। और इसीलिए निर्मल वर्मा ने उनके लिए लिखा – ‘रेणु समकालीनों के बीच संत की तरह उपस्थित हैं। बिहार के छोटे भूखण्ड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की नियति-रेखा को उजागर किया।’ कभी-कभी रेणु का औराही हिंगना तोल्सतोय के यास्नाया पोल्याना जैसा प्रतीत होता है जहाँ वे किसी साधक की तरह जमे रहे और जीवन के विविध रंग देखते रहे और लिखते रहे। तोल्सतोय की कौन-सी विचारधारा थी? वे तो मानवतावाद के उस उत्तुंग शिखर पर थे जहाँ से शेष विचार और विचारधाराएँ निःसृत होती हैं। हर बड़ा रचानाकार विचारधारा के ऊपर होता है। देखिए, रेणु क्या कहते हैं – ‘मैं प्रतिबद्धता का केवल एक अर्थ समझता हूँ आदमी के प्रति प्रतिबद्धता, बाकी सब बकवास है।’
लम्बा राजनीतिक जीवन जीकर वे लेखन में आए हैं। सैकड़ों लोगों- अलग-अलग तरह के लोगों से वे मिल चुके हैं। इनमें से अनेक इनकी कथाकृतियों में पुनर्जन्म पाते हैं। लेखन के माध्यम से वे ‘व्यक्ति को सामाजिक, और समाज को मानवीय’ बनाना चाहते हैं। उनकी कहानियाँ उनकी तीक्ष्ण राजनीतिक दृष्टि और समझ का भी प्रमाण हैं। उनकी निगाह उस हर घटना-परिघटना पर है जो आम लोगों को प्रभावित करनेवाली है, उनके जीवन में बदलाव लानेवाली हैं – चाहे वह कोसी की बाढ़, कटान या अकाल जैसी प्राकृतिक घटनाएँ/विपदाएँ हों या शासन की नीतियाँ। उन्होंने ‘लैंड सर्वे’ यानी भूमि सर्वेक्षण जैसी सरकारी पहल की भी नोटिस ली है और यह दर्शाया है कि थोड़ी-सी जमीन की मिल्कियत या इसमें थोड़ी बढ़ोत्तरी से किसान के अंदर कैसा आत्मविश्वास आता है और उसका जीवन कैसे बदल जाता है। ‘लाल पान की बेगम’ में इसे देखा जा सकता है। गाँवों में नयी तकनीक के उपयोग पर भी उनका ध्यान है – रेल, पेट्रोमैक्स, तार, साइकिल आदि। यहाँ तक कि रोग-व्याधियों की खबर भी – मोहना का पेट फूला हुआ है, तिल्ली बढ़ी हुई है। गाँवों में चेचक-हैजा जैसी महामारियों पर भी उनकी नजर है। प्रेमचंद और उनके समकालीनों के लिए सबसे बड़ा सरोकार था औपनिवेशिक शासन से मुक्ति, भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता। उनके यहाँ राष्ट्र और स्वराज बड़े महत्व के और अर्थपूर्ण शब्द हैं। रेणु का स्वातंत्र्योत्तर भारत में, भेदभाव रहित एक मानवीय समाज का निर्माण सबसे महत्वपूर्ण सरोकार है, सबसे बड़ा सपना भी। गाँवों में यह श्रेणीकरण, स्तरीकरण बहुत प्रगट और प्रत्यक्ष है और अलग-अलग ढंग से अभिव्यक्त होता है। रेणु की कहानियों में केवल गाँव नहीं है, गाँवों में अलग-अलग जातियों के टोले भी हैं, सड़क व नहर के किनारे कतार में लगी मड़इयाँ भी हैं। उनके यहाँ सामाजिक यथार्थ बड़े सहज ढंग से पाठक के सामने खुलता है। लेकिन वे कितने बड़े लेखक हैं, कितना बड़ा उनका मन है, वह इस तथ्य से पता चलता है कि वे इस प्रक्रिया में प्रायः व्यंजना और परिहास का ही सहारा लेते हैं। वे पाठक को उकसाते नहीं, उसके मन में घृणाभाव नहीं भरते लेकिन उसके मन पर एक ऐसी करुणार्द्र छाप छोड़ जाते हैं कि वह मानो हमेशा के लिए बदल जाता है। एक लेखक के रूप में उनका सारा कारोबार करुणा की कमाई करने के लिए है। वे मूलतः करुणा के लेखक हैं। उनका अनुकरण करने वाले, उनके प्रभामंडल से आवरित परवर्त्ती लेखकों ने उनकी लेखकीय युक्तियों को ग्रहण करने का प्रयास तो किया लेकिन अधिकांश ने करुणा को छोड़ दिया।
वास्तव में रेणु कमजोरों के पक्षधर होते हुए भी जीवन को समग्रता में देखने के आग्रही हैं। उनमें जीवन के प्रति गहरा अनुराग और आसक्ति है। वे जीवन-रस का एक-एक बूँद अंतस्थ करना चाहते हैं। इसलिए उनकी रुचियों का विशाल क्षेत्र है और उनपर तमाम तरह के प्रभाव हैं, और बड़ी बात यह कि इनके प्रति उनमें कोई निरुद्ध भाव नहीं है। उनके लेखन और जीवन संघर्ष को दृष्टिगत रखकर यह कल्पना करना कठिन है कि वे निजी जीवन, उठ-बैठ और रुचियों में कितने परिष्कृत, सुघड़ और सलीकेदार थे, और शौकीन थे। वे बढ़िया से बढ़िया भोजन करते थे, और स्वयं कितने ही व्यंजन पका सकते थे। उनकी संगीत में गहरी रुचि थी और सुमधुर कंठ के स्वामी थे। वे अनेक लोकगाथाओं को सस्वर गाते थे। उन्हें लंबे बालों का शौक था, वे अच्छी नस्ल के कुत्तों के भी बहुत शौकीन थे। उनका रचनात्मक उद्यम उन्हें फिल्मों की दुनिया तक भी ले गया। उनकी उपस्थिति अत्यन्त भद्र और सुसंस्कृत व्यक्ति की उपस्थिति थी। उन्होंने एक जीवन में कितने वैपरीत्यों को साधा, यह जानकर अचम्भा होता है। वे क्रांतिकारी लेखक माने जाते हैं , और कम से कम तीन क्रांतियों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही – सन् 42 की क्रांति, नेपाली क्रांति और सन् 74 की सम्पूर्ण क्रांति। लेकिन वे आस्तिक, प्रबल आस्थावान व्यक्ति रहे। बचपन से ही उन पर रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद का प्रभाव रहा। ठाकुर, यानी श्री रामकृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति थी। राॅबिन शाॅ पुष्प को उन्होंने बताया था कि अस्पताल में जब वे भर्ती थे, उन्होंने ठाकुर को देखा था। उनकी तंत्र-साधना में भी गहरी रुचि थी।
हिन्दी के अलावा वे मैथिली, बांग्ला, नेपाली, अंग्रेजी भाषाएं जानते थे। लेखन में वे अपने ऊपर अपने गुरु रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ का प्रभाव मानते हैं, उनकी रचना ‘भइया जी की घोड़ी’ ने उन्हें लिखने की प्रेरणा दी। वे पूर्णिया के जिला कलक्टर डबल्यू.बी. आर्चर को भी बहुत मान देते हैं जिन्होंने संथाली जीवन पर लिखा। इसके अलावा शोलोकोव, ताराशंकर बंदोपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी और प्रेमचंद का उनपर गहरा प्रभाव पड़ा। सतीनाथ भादुड़ी को तो वे अपना साहित्यिक गुरू मानते ही हैं – ‘‘.. मैं बहुत छोटी उम्र से ही श्री सतीनाथ भादुड़ी जी के साथ हूँ। वे मेरे साहित्यिक गुरु हैं। जो कुछ भी हूँ, उन्हीं का बनाया हुआ। बिगड़ा हूँ दूसरों के कूचे में।’’ रेणु जी रामवृक्ष बेनीपुरी जी से भी प्रभावित रहे जो कि उनकी सोशलिस्ट पार्टी के साथी भी थे। अज्ञेय और निर्मल वर्मा के अतिरिक्त समकालीनों में धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, राजकमल चौधरी और राॅबिन शाॅ पुष्प से भी उनकी नजदीकियाँ थीं। पटना निवासी ‘सच्चा-पूरा जनतंत्र’ के लिए समर्पित समाजवादी विचारक बी.पी. सिन्हा से भी उन्होंने समाजवाद का पाठ पढ़ा। जयप्रकाश 1938 से लेकर अंतिम समय तक उनके लिए श्रद्धेय और अनुकरणीय व्यक्ति बने रहे – उनके नेता, उनके सहचर!
‘‘मैंने रात में भैंस चराया है….रात में पानी में भींगकर मछली का शिकार किया है, जाड़े की भोर में तीन बजे ही उठकर तीसी के फूले हुए खेतों में बटेर फँसाया है।….कलाली में बैठकर झूम-झूमकर गीत गा-गाकर दारू पिया है….बारातों में घोड़ा दौड़ाया है… (रेणु रचनावली, सं- भारत यायावर )।
इतना स्पंदित जीवन! इसी की गूँज, इसी की थरथराहट उनकी रचनाओं में लरज रही है। उनकी रचनाओं में जो लालित्य है – स्थानिकता का, ’लोकल’ का, वह उनके जीवन का ही है, स्वयं उनका जिया हुआ!
एक मानवीय दुनिया की रचना के लिए उनका समाजवाद यदि समाज की बनावट के रेशे-रेशे खोल देता है तो विवेकानंद का अद्वैत उन्हें तफरकों तक सीमित नहीं रहने देता, उन्हें भेद से अभेद की ओर ले जाता है, उनके यहाँ बड़े हृदयवाले क्षमाशील पात्रों की भरमार है।
शिवदयाल
पहली जनवरी १९६० को काठमांडू में जन्म ।
हिंदी के समकालीन सृजन -चिंतन के सुपरिचित हस्ताक्षर । बहुमुखी व बहुविधात्मक लेखन । साल २००० से ऊर्जा क्षेत्र की नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक लेखक का जीवन चुना । उपन्यास, कहानियां, कविताएँ समेत दर्जनों वैचारिक निबंध, आलोचनात्मक लेख एवं समीक्षाएँ प्रकाशित।
संपर्क : 1/201, आर के विला, महेश नगर, पटना-800024, मो-9835263930