स्त्री कविता विशेष
वरिष्ठ कवि, लेखिका सुमन केशरी की कविताएँ मिथक, इतिहास द्वारा उपेक्षित छूट गयी स्त्री-अस्मिता और उसके अनुत्तरित प्रश्नों का आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पुनर्पाठ करती हैं और आधुनिक स्त्री के स्वप्न, संघर्ष और द्वंद से संवेदनशील संवाद करते हुए उसकी व्यथा को बहुत गहनता से अपनी कविता में पिरोती हैं। वे आदि कवि भृर्तहरि से यह बेचैन सवाल पूछती हैं कि ‘कोई तो ऐसी जगह होगी/जहाँ दो पल चैन से घर के बुलावे/और बाहर के हिंस्र प्राणियो से दूर/अपने एकांत में मैं बैठ सकूँ/ स्वाधीन स्वतंत्र स्वस्थ।
वे मोनालिसा,चित्रांगदा आदि के बहाने सुनाती हैं ‘औरत को मिथक में बदले जाने की कहानी’- रश्मि भारद्वाज
उसके मन में उतरना
उसके मन में उतरना
मानो कुएँ में उतरना था
सीलन भरी
अंधेरी सुरंग में
उसने बड़े निर्विकार ढंग से
अंग से वस्त्र हटा
सलाखों के दाग दिखाए
वैसे ही जैसे कोई
किसी अजनान चित्रकार के
चित्र दिखाता है
बयान करते हुए-
एक दिन दाल में नमक डालना भूल गई
उस दिन के निशान ये हैं
एक बार बिना बताए मायके चली गई
माँ की बड़ी याद आ रही थी
उस दिन के निशान ये वाले हैं
ऐसे कई निशान थे
शरीर के इस या उस हिस्से में
सब निशान दिखा
वो यूँ मुस्कुराई
जैसे उसने तमगे दिखाए हो
किसी की हार के
स्तब्ध देख उसने मुझे होले से छुआ
जानती हो ?
बेबस की जीत
आँख की कोर में बने बाँध में होती है
बाँध टूटा नहीं कि बेबस हारा
आँसुओं के नमक में सिंझा कर
मैंने यह मुस्कान पकाई है
तब मैंने जाना कि
उसके मन में
उतरना
माने कुएँ में उतरना था
सीलन भरे
अंधेरे सुरंग में
जिसके तल में
मीठा जल भरा था.
सुनो भर्तृहरि
भर्तृहरि
कोई तो ऐसी जगह होगी
जहाँ दो पल चैन से घर के बुलावे
और बाहर के हिंस्र प्राणियो से
दूर
अपने एकांत में
मैं बैठ सकूँ
स्वाधीन
स्वतंत्र
स्वस्थ
सुनो भर्तृहरि
तुम्हारी कही जाने वाली गुफा के
निपट एकांत में उतर
बस खड़ी हुई थी पल भर
तुम्हारा नाम
अपने मन में पुकारती हुई
तुमसे नाता जोड़ती हुई
कि याद गया
कि अंततः
मैं एक औरत हूँ
औरत भर
मोनालिसा
क्या था उस दृष्टि में
उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया
वह जो बूंद छिपी थी
आँख की कोर में
उसी में तिर कर
जा पहुँची थी
मन की अतल गहराइयों में
जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी
प्रलोभन से
पीड़ा से
ईर्ष्या से
द्वन्द्व से
वह जो नामालूम सी
जरा सी तिर्यक
मुस्कान देखते हो न
मोनालिसा के चेहरे पर
वह एक कहानी है
औरत को मिथक में बदले जाने की
कहानी
वे जब भी आए
वे जब भी आए
सफेद पंखों वाले हंसों के वेश में आए
उज्ज्वल धवल पंखों में अपने पंजे छिपाए
उनके मुखों में हर बार मोतियों की लड़ी रही
चमकते-दमकते सपनों की
छोटी-छोटी कामनाओं की
इच्छाओं-वासनाओं की
हर बार वे गाते-बजाते आए
गान स्वाभिमान के
तप और ताप के
मन के आघात के
वे आए थे एक बार
कैसे बताए वह?
यदि वह कहता
आसमान से उस रात आग बरसी
तो कोई उस पर विश्वास न करता
क्यों कि
दूर दूर तक उस रात न कहीं बिजली चमकी थी
न कहीं पानी बरसा था
बादल तक नहीं थे उस रात आकाश में
चाँद-तारों भरी वो सुंदर रात थी
ठीक परियों की कहानियों की तरह
यदि वह कहता कि डूब गया वह गहरे समंदर में
तो कोई विश्वास न करता उसके कहे पर
क्योंकि वह जीता-जागता खड़ा था
ऐन सामने
यदि वह कहता कि
इतने धमाकों इतनी चीखों से उसके कान के पर्दे फट गए
तो सब हँस पड़ेंगे उस नासमझ पर
कि वह हमारा कहा सब सुन रहा था
हाँ बस देखता जाता था बेचैन
कि कैसे बताए वह
उस रात के बारे में
जब उसने अपने ही पड़ोसियों को बाल्टी उठा
पेट्रोल फेंकते देखा था घरों पर
कैसे बताए कि
आया था उड़ता एक गोला और
आग बरसने लगी थी चारों ओर
कैसे बताए उस रात अँधेरे की गोद गरम थी
बावजूद थर थर काँपते जिस्म के
कैसे बताए तब से अब तक
कितनी बार धँसा है वो समंदर में
आग बुझाने
कोई नहीं मानता उसकी बात
कोई नहीं जानता समंदर की थाह
वीरान
घर सुनते ही वह अपने भीतर सिमट जाता था
मानो वही उसका घर हो
घर सुनकर कभी उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं दिखी
बाँया गाल और कान जरूर फड़कते थे
क्षण भर को
फिर वही वीरानी
जो दोपहर को रेतीले टीलों पर
आखिरी ऊँट के गुजर जाने पर होती है
नमी आँख में भी नहीं
सुन्न वीरान
तेरह साल का वह चेहरा
सैकड़ों सालों से अकाल की मार खायी जमीन पर
तेरह सदी पहले बनी दीवार-सा था
घर
घर
घर
कई बार उच्चारा मैंने
और धंसती चली गई अंधे कुएँ में..
घर
कैसा अजीब ढब है
पुरुष घर छोड़े तो
वैरागी हो जाता है
सन्यासी कहलाता है
सब उसके पाँवों पर गिर
धन्य हो जाते हैं
और
औरत अगर घर छोड़े तो
कुलटा कहलाती है
हर दर से ठुकराई जाती है
सबके पाँवों की ठोकरें
वह खाती है
आह!
इसका अपवाद तो
सीता भी नहीं हुई!!
निष्कासित
कभी किसी औरत का घर देखा है?
कहते तो यही हैं
कि औरत ही घर बनाती है
पर जब भी बात होती है घर की
तो वह हमेशा मर्द का ही होता है
और
वहाँ से निष्कासित
औरत ही होती है
चित्रांगदा
डरना मत कभी
गुरु से
पिता से
मृत्यु से
योद्धा हो तुम अद्वितीय हे ब्रभुवाहन
कहती है चित्रांगदा अपने पुत्र से जब तब
सुनाती कथा अर्जुन की
ब्रभुवाहन
सुनते हुए कथाएं पिता की
कितने ही प्रश्न करता है माता से
उन प्रश्नों से कभी डरी नहीं चित्रांगदा
अश्वमेध के घोड़े के संग
विजय की कामना लिए आए पिता को देखता ब्रभुवाहन
मोह में बंध
पुत्र नहीं सेवक बन जाता है
उसका योद्धा जाने कहाँ को जाता है
वह सभी सुख जुटा देना चाहता है
पिता के लिए
पिता हताश है ब्रभुवाहन से!
पिता के मन को भांपता
ब्रभुवाहन
विनय त्याग
वार पर वार करता है अर्जुन पर
श्रेष्ठ योद्धा-सा
सुनाई देती है तो बस माँ की आवाज
डरना मत कभी
गुरु से
पिता से
मृत्यु से
योद्धा हो तुम अद्वितीय हे ब्रभुवाहन
पुत्र चित्रांगदा के!
हिडिंबा: मैं स्वयंवरा
तुम्हें सीखने होंगे
सब उपाय
दाँव-पेंच सब
वन के
नगर के
ओ पुत्र घटोत्कच
मैं नहीं थी राजकुल की कन्या
जिसके स्वयंवर में
आते कुमार देश भर से
और
उनमें से कोई एक
राजा के शर्तों को पूरा कर
जीतता राजकुंवरी को
सुनो पुत्र
मैंने तुम्हारे पिता को वरा
युक्ति और बल के कौशल से
मैं
स्वयंवरा!
मैं रहूँगी तो यहीं इसी धरती पर
मैं रहूँगी तो यहीं इसी धरती पर
भले ही रहूँ
फूल-राख की तरह इसी मिट्टी में हिल-मिल
या फिर
अधजली अंतड़ी के किसी कोने में दबे बीज से
उग जाऊँ पौधा बनकर
यहीं के हवा-पानी-धूप से
पलते-बढ़ते पेड़ हो जाऊँ
अनेक फूलों-फलों-बीजों वाला
मैं रहूँगी तो यहीं इसी धरती पर
किंतु सुनो!
मैं
लिंग-नाम-वर्ण-धर्म से परे
सत्य-करुणा-अंहिंसा को बीज रूप में अपने भीतर समेटे
हथेली की ऊष्मा
और
आँख की नमी लिए
एक विचार की तरह
रहना चाहती हूँ
इस पृथ्वी के अंतिम मनुष्य तक
मैं रहूँगी तो यहीं इसी धरती पर
https://www.youtube.com/channel/UCbEPiP1Eshf7X3LUZRpltVg