सेरिंग वांग्मो धोम्पा
सेरिंग वंग्मो धोम्पा के माता पिता को सन् १९५९ में तिब्बत से पलायन करना पड़ा. उनका पालन पोषण धर्मशाला (भारत) व काठमांडू (नेपाल) के तिब्बती समुदायों के मध्य रहते हुए उनकी माता द्वारा किया गया. धोम्पा ने नई दिल्ली के लेडी श्री राम कॉलेज से बीए और एमए की उपाधियाँ अर्जित कीं, तत्पश्चात एमहर्स्ट के मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय से एमए और सैन फ्रांसिस्को स्टेट यूनिवर्सिटी से रचनात्मक लेखन में एमएफए की उपाधि प्राप्त की. सन् २००० में उन्होंने दो पद्यपुस्तिकाएँ लिखीं ‘इन राइटिंग द नेम्स’ और ‘रिकरिंग जेस्चर्स’. रूल्स ऑफ़ द हाउस (2002), इन द एब्सेंट एवेरीडे (2005) और माय राइस टेस्ट्स लाइक लेक (2011) उनके पूर्णाकार कविता संग्रह हैं, जिनमें से ‘माय राइस टेस्ट्स लाइक राइस’ उत्तरी कैलिफोर्निया के स्वतंत्र पुस्तक विक्रेताओं द्वारा प्रायोजित बुक ऑफ़ द इयर 2012 सम्मान के लिए नामांकित हुआ. धोम्पा की कथेतर गद्य की पुस्तक ‘ए होम इन तिबेत’ (पेंगुइन इंडिया, 2013), जो अमरीका में ‘कमिंग होम टू तिबेत: ए मेमॉयर ऑफ़ लव, लॉस एंड बिलॉन्गिंग (2016)’ के नाम से प्रकाशित हुई है, और उनके अपने जीवन पर आधारित है.तिब्बती, हिंदी और नेपाली समेत अनेक भाषाओँ और बोलियों पर समान अधिकार रखने वाली धोम्पा अंग्रेज़ी भाषा में लिखती हैं. उनकी कविता अभिनव संरचनाओं और प्रणालियों के माध्यम से तिब्बती समुदायों के बुजुर्गों की यादों को दर्ज़ करते हुए, विस्थापित तिब्बतियों की अतीत के प्रति ललक को अभिव्यक्त करती है. जोशुआ मैरी विलकिंसन, अपनी वर्स नामक ऑनलाइन समीक्षा में कहती हैं कि “उनकी रचना ‘इन द एब्सेंट एवरीडे’ उन असंख्य रेखाओं की सी विलक्षणता या परिचित विचित्रता से युक्त है जो एक ही समय में कभी अचानक आपस में जुडी हुई और कभी अलग दिखाई देती हैं. उनकी कविताओं की कड़ियाँ भी एक ही समय में परस्पर पृथक और सहज रूप से सम्बद्ध दिखती हैं.”धोम्पा को सैन फ्रांसिस्को आर्ट कमीशन और द गैलेन रोवेल फण्ड की ओर से लेखनवृत्तियां प्रदान की गयीं.
माँ
(पुस्तक ‘ल्हासा का लहू’ का एक अंश)
(अपने देश और परिजनों से बहुत दूर भारत के एक राजमार्ग पर हुई सड़क दुर्घटना में अपनी माँ को खो देने के बाद सेरिंग ने तय किया कि वे उनकी मुट्ठीभर राख़ को तिब्बत ले जाएंगी। जब वे पूर्वी तिब्बत में स्थित अपनी माँ के पैतृक घर पहुँचीं तो उन्होंने महसूस किया कि उनका अब तक का सम्पूर्ण जीवन उन्होंने इसी वापसी की तैयारी में व्यतीत किया था।
अ होम इन तिबेत, एक पुत्री द्वारा अपनी माँ और मातृभूमि को बारम्बार अर्पित की जानेवाली श्रद्धांजलि है। यह उन माँ और बेटी के परस्पर प्रेम की कथा भी है, जिनके पास परिवार और आश्रय के नाम पर बस वे दोनों ही थीं। यह पुस्तक मात्र उन दोनों की ही नहीं उन असंख्य शरणार्थियों की कथा भी है जिन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया है।)
मेरा यह संशय कभी दूर न हो सका कि मैं छह मार्च को पैदा हुई थी या सात मार्च को। स्कूल के कागज़ात में मेरी जन्मतिथि छह तारीख लिखी है पर न जाने क्यों मैं सात मार्च को ही अपना जन्मदिन मानती हूँ। माँ का वाक्छल भी इस गड़बड़ी को दूर करने में कुछ काम नहीं आया। यह तारीख छह या सात कुछ भी हो सकती है। क्या फर्क पड़ता है, वह मेरी जिज्ञासा के जवाब में कहती।
हमारे नए वर्ष (लोज़ार) पर हर तिब्बती की आयु स्वयमेव एक वर्ष बढ़ जाती है अतः अनन्य रूप से अपना जन्मदिन मना सकना केवल हम निर्वासन में रह रहे बच्चों के लिए ही संभव हुआ। फिर भी हम अधीर और चौकन्ने रहते क्योंकि बहुत संभव था कि हमारे माता- पिता ने घर पर हुए प्रसव के कारण समय हमारी ठीक जन्मतिथि ध्यान न रखी हो या स्कूल में प्रवेश के समय तिब्बती माह और सप्ताह को अँग्रेज़ी में रूपांतरित करने में गड़बड़ कर बैठे हों।
हर साल मार्च में माँ मुझे जन्मदिन कार्ड भेजा करती जिसमें वे एक बेटी की माँ होने का सुख व उस बेटी के प्रति अपने प्रेम की बातें प्रवाहपूर्ण कर्सिव अक्षरों में लिखा करती थीं । यह एक माँ का अपने बच्चे के प्रति उस प्रेम का प्रकटीकरण था जो वैयक्तिक सम्प्रेषण की अपेक्षा उनके द्वारा भेजे गए उन शुभकामना कार्डों की आलंकारिक भाषा के माध्यम से अधिक संप्रेषित हुआ। इस तरह किसी दिन एक व्यक्ति का जन्मदिन मनाना उनके लिए एक नया प्रत्यय था फिर भी उन्होंने जन्मदिन कार्ड व उपहारों को जाना, समझा। वे कहती थीं कि वे यह नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी अपने समय के रीति- रिवाजों से बहिष्कृत महसूस करे। उनकी अपनी जन्मतिथि का कुछ अतापता न था, लिखापढ़ी के लिए ज़रूर उन्होंने इसे 11 नवंबर निश्चित कर लिया था।
जब भी मुझे माँ का भेजा हुआ कार्ड मिलता मैं उन्हें अपनी कल्पना में एक गिफ्टशॉप में प्रवेश करते हुए और तमाम आलमारियों में एक अचूक कार्ड ढूँढते हुए देखने लगती थी। यह बहुत आसान कल्पना नहीं थी क्योंकि मैंने उन्हें कभी किसी और को कार्ड भेजते नहीं देखा था। उसने वह स्टोर कैसे ढूँढा होगा? मैं उनके लिए भयभीत हो जाती : क्या हुआ होगा यदि वे उस स्टोर में पहुँचकर किसी दुविधा में पड़ गयी होंगी? ऐसा नहीं था कि मुझे उनके खरीददारी कौशल पर भरोसा नहीं था। बात सिर्फ इतनी सी थी कि मैं नहीं चाहती थी कि एक इंसान जिसे मैं सबसे अधिक चाहती हूँ वह किसी अपरिचित स्थान पर भटके या उसे मेरे कारण रंचमात्र भी असुविधा हो। उनकी अपनी दुनिया में हर चीज़ नियत थी, मैं नहीं जानती थी कि अपने लिए अपरिचित स्थानों पर वे कितनी सहज रह पाती हैं : जैसे शहर के वे नये स्टोर जो अब छोटी नोटबुक पर हिसाब जोड़ने की बजाय इलेक्ट्रॉनिक हिसाब करने लगे हैं, वे फास्ट फूड रेस्तराँ जिनका मेन्यू उनकी दीवार पर लिखा रहता है या नियोन लाइट्स और स्वचालित सीढ़ियों से चकाचौंध करनेवाले शॉपिंग मॉल। मुझे उनके बारे में यह सोच- सोचकर चिंता होती थी कि उन्हें बीस साल के अधीर युवाओं को पिज्जा का ऑर्डर देना पड़ता होगा, या किसी ऐसे पार्लर से आइसक्रीम खरीदनी पड़ती होगी जहाँ वे रोज़ नये फ्लेवर परोसकर अपने कभी- कभार आनेवाले और वनीला जैसे आसान चयन से संतुष्ट हो जाने वाले ग्राहकों को असहज करते हैं। मैं बस ऐसे समय में उनके साथ होना चाहती थी जैसे वे मेरे लड़खड़ाने के दिनों में मेरे साथ खड़ी थीं।
मैं आज भी अपनी माँ की चिंता करती हूँ क्योंकि मैं जानती हूँ कि वे अपने नए जीवन में भी इसी दुनिया में कहीं उपस्थित होंगी।
हम वे बच्चे थे जो निर्वासन में जन्मे थे, भारत और नेपाल की भाषा व संस्कृति स्वाभाविक रूप से हमारे जीवन का अंग थी। हम बाज़ारों में, कार्यालयों में और अपने बड़ों के स्कूलों में उनके लिए दुभाषिया का काम करते थे। हमने अपने उन बुजुर्गों का मजबूत सहारा बनना सीख लिया था जिनकी दृष्टि अब भी तिब्बत की ओर जमी थी और जिन्होंने बेमन से, धीरे- धीरे अपने निर्वासित जीवन के साथ समंजस्य बैठाना शुरू किया था।
एक बेटी के रूप में मैं अपनी माँ की ओर उस मार्गदर्शन, निरभिमान और समभाव के लिए देखती थी जो उनके व्यक्तित्व के सहज अंग थे। जब भी हम लामाओं और अन्य बड़ों से मिलने जाते तो मैं उनके संकेतों का अनुकरण करती। मैंने उनसे पूजन वेदिका की सज्जा और प्रार्थनाएँ सीखीं। वे परेशान होती थीं कि मुझे तिब्बती संस्कृति, विशेषतौर पर बौद्ध धर्म का पर्याप्त ज्ञान नहीं है और वे प्रायः मुझे सात वर्ष की आयु में बौद्ध पाठशाला से निकाल लेने के अपने निर्णय पर पश्चाताप करती थीं। उन्होंने तब हमारे अमरीकी आर्थिक संरक्षक डॉ मेल्विन शैफर, जो बाद में मेरे धर्मपिता हो गए, की आर्थिक मदद से मुझे ईसाई आवासीय विद्यालय में भेजना चुना था . वे परेशान रहती थीं कि मैं सारा समय अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ती रहती हूँ। उन्होंने ‘मिलारेपा के गीत’ पढ़ने के बदले मुझे मेहनताना देने का प्रस्ताव भी रखा।
वे कभी मेरे भविष्य को लेकर चिंतित नहीं हुईं न ही भौतिक उपलब्धियाँ उनके जीवन का लक्ष्य रही, उनका पूरा ध्यान इस बात पर था कि मैं बौद्ध धर्म के गहरे आरोपित ज्ञान के मूल्य को समझ कर जीवन की कठिनाइयों से पार पाने का अभ्यास करूँ। उन्हें डर था कि मैं पूजा करना भूल जाऊँगी, किसी गैर तिब्बती से विवाह करके अपनी जड़ों से दूर हो जाऊँगी। उन्हें भय था कि हम उनके जीवनकाल में कभी तिब्बत नहीं लौट सकेंगे। उन्हें यह भी डर था कि उनकी मृत्यु के बाद मैं इस दुनिया में बिलकुल अकेली हो जाऊँगी। इन सब कारणों से वे हर दिन मेरे और मेरी प्रसन्नता के लिए प्रार्थना करती थीं।
जब पूरी दुनिया में एक दूसरे के लिए आप दो लोग ही होते हैं, आपको यह डर लगा रहता है कि यदि दूसरे को कुछ हो गया तो पहला बिलकुल अकेला हो जाएगा। आप दोनों समय, मृत्यु और प्रसन्नता हर संदर्भ में अविभाज्य हो जाते हैं । मुझे यह बताते हुए ज़रा भी संकोच नहीं होता कि मैं वह बच्चा थी जिसने चार साल की उम्र तक स्तनपान किया था। मुझे लगता है अब यह बताने की आवश्यकता भी नहीं रही कि प्रेम ने हमारे इस जीवन को किस हद तक गढ़ा है ।
माँ तिब्बत से अपने पलायन के बारे में अधिक बात नहीं करती थीं लेकिन अपने आसपास के बड़ों की कहानियाँ सुन- सुनकर मैंने यह अनुमान लगा लिया था कि वे मार्च 1959 में ल्हासा में थीं और दलाई लामा के निष्क्रमण के तुरंत बाद हुए तिब्बतियों के महानिष्क्रमण का हिस्सा बनीं। बाद में मेरे अनुरोध पर उन्होंने उन दिनों पर नोट्स लिखने शुरू किए, जिनमें उल्लेख किया कि उन दिनों वे कई- कई दिन भूखी रहीं। उनके समूह के लोगों को दो -तीन बार चीनी सैनिकों के साथ गोलीबारी भी करनी पड़ी थी। 2008 में इस किताब पर काम करने के दौरान मुझे उत्तर भारत में धर्मशाला के निकट बीर में जाना पड़ा जो एक तिब्बती शरणार्थी रहवास है। मेरी माँ यहाँ अपने उन दिनों में रहती थीं जब वे विवाहित थीं। वहाँ अब भी कई ऐसे बुजुर्ग रहते थे जो उनकी तिब्बत से भारत की यात्रा में सहयात्री थे। हमारी मुलाक़ात के कुछ देर के भीतर उन्होंने मुझे इशारों में जता दिया कि मैं वैसी सुंदर नहीं जैसी मेरी माँ अपनी युवावस्था में हुआ करती थी, लेकिन मुझे हँसते देख उनकी आँखें भर आयीं। मेरा सपनीली आँखों से खोये- खोये शून्य में देखना और अपनी गर्दन को ज़रा संकोच के साथ तिरछा रखना उन्हें मेरी माँ की याद दिलाता था।
मैंने उनसे कहा कि तीन महीने की पैदल यात्रा तो बहुत लंबी और दुष्कर रही होगी। उन्होंने कहा तीन ही महीने होते तो क्या बात थी, तिब्बत से भारत आने में उन्हें पूरे तीन साल लगे।
मुझे लगा कि मैंने कुछ गलत सुन लिया है। कहीं वे लोग अतिशयोक्ति तो नहीं कर रहे? क्या सचमुच उन्हें इतने समय पैदल चलना पड़ा था? तीन साल ?
मेरी माँ की सहेलियाँ जो अब पैंसठ- सत्तर के आसपास की हैं उन दिनों इसी शरणार्थी शिविर में रहा करती थीं। वे कहती हैं कि उम्र के साथ शारीरिक व्याधियों के उपचार के लिए दवाइयाँ खा खाकर उनकी याददाश्त थोड़ी धुँधला ज़रूर गयी है किन्तु वे तीन वर्ष उनकी स्मृति में अमिट हैं। वे खम की गुरिल्ला सेना का हिस्सा तो नहीं थीं लेकिन पूरे तीन साल तिब्बत से बाहर निकलने के लिए उन्हें कदम- कदम पर चीनी सेना से संघर्ष करना पड़ा था। वे कहती हैं, चीनी सेना से छिपते रहने के लिए तीन साल एक बहुत लंबा समय था।
मैंने बहुत जल्दी यह महसूस कर लिया था कि माँ के मिलनसार व जन्मजना प्रफुल्लित स्वभाव के भीतर एक स्थिर उदासी रहा करती है। उनकी वह इकलौती संतान होते हुए भी जिसे वे दुनिया में सबसे अधिक चाहती थीं, मैं उनकी उस गहरी उदासी को दूर न कर सकी जो उनमें अपने माता -पिता, दो बहनों और एक भाई के वियोग से उपजी थी। तिब्बत छोड़ने के पहले और बाद की उनकी जीवन परिस्थितियों में जो वैषम्य था उसने कभी उन्हें अपने अतीत को पुनः जीने की अदम्य लालसा से उबरकर भावी जीवन की योजना के साथ सामंजस्य बैठाने नहीं दिया । भारत के शहरों और कस्बों की चालों के भीड़ भरे कमरों में अकेले अपनी दम पर मेरा पालन- पोषण करते हुए कभी उन्हें अपना अतीत एक स्वप्न सा लगता होगा तो कभी यह लगता होगा कि उनका यह वर्तमान परिवेश एक दुःस्वप्न है। जिन भी स्थानों और घरों में हम रहे उन्होंने उन्हें अपना घर नहीं माना और दृढ़तापूर्वक अपने अतीत से चिपटी रही। मेरी माँ ने मुझे हमेशा अपने शोक से बचाकर रखा क्योंकि वे जानती थी कि मैं उनके दुःखों को अपने ही दुःखों की भाँति ढोने लगूँगी। फिर भी, आज विश्वास नहीं होता कि उन्होंने अपने जीवन की इतनी अनिवार्य यात्रा मुझसे छिपाकर रखी थी।
सन् 1959 में मेरी माँ अपने पहले प्रसव के लिए पतिगृह छोडकर अपनी माँ के घर गई हुई थीं। अत्यंत जटिल गर्भावस्था के कारण उन्हें बिस्तर पर लेटे रहना पड़ता था। मेरी माँ की प्रसवपीड़ा आरंभ होने के साथ ही चीनियों ने नांगचेन में प्रवेश किया और उसने अपने जुड़वाँ बच्चों को पैदा होते ही खो दिया। तभी मेरी माँ के पति ने अपने कुछ लोगों के साथ भारत भाग जाने का निर्णय लिया और वह अपने साथियों के साथ मेरी माँ को अपने साथ चलने के लिए बहलाने फुसलाने उनके मायके आ गया।
मेरी माँ की सहेलियों ने कहा वे मुसीबत भरे दिन थे और हमारे सामने कोई और चारा नहीं था।
माँ इतनी दुर्बल और भ्रमित थीं कि न तो वे अपने परिजनों से यूँ अकस्मात् बिछुड़ने का शोक मना पायीं न उन्हें ठीक से विदा ही कह पायीं, जिन्होंने उन्हें निर्वासन में जा मिलने का वचन दिया था। चीनियों के बहुत निकट आ जाने की सूचना आ रही थी अतः वे धोम्पा से बाहर अपने पति और उनके संगियों से जा मिली। उन्होंने कभी मुझसे अपनी पहली संतानों का उल्लेख नहीं किया। मैंने यह बात अपनी किशोरावस्था में कहीं और से सुनी।
उन्होंने प्रायः पाँच सौ पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के साथ अपना घर छोड़ दिया। उनकी यात्रा अपने आरंभ में ही अभिशप्त थी। वे लोग जो भी मार्ग चुनते वह उन्हें अंततः चीनी सैनिकों के डेरों तक पहुँचा देता। दल को नांगचेन से बाहर निकलने में ही बहुत समय लग गया। वे दिन भर पहाड़ों में छिपे रहते और सूर्यास्त के समय फिर चलना शुरू करते। लगभग सभी पुरुषों के पास बंदूकें थीं। माँ की सहेलियों के अनुसार दल की चीनियों से सबसे बड़ी मुठभेड़ नागचुखा के समीप हुई। उनके अपने कुछ आदमी भी मारे गये लेकिन उन्होंने बड़ी तादाद में चीनी सिपाही मार गिराए। जिन दो आदमियों का मैं साक्षात्कार कर रही थी उन्हें कुछ निश्चित ज्ञात नहीं था कि उस मुठभेड़ में कुल कितने चीनी सैनिकों को वे मार गिराने में सफल रहे थे लेकिन उन्हें यह अच्छी प्रकार याद है कि लोग तब भी भिन्न- भिन्न संख्या बता रहे थे। कोई सौ कह रहा था, कोई पचास तो कोई पचीस ही। उन्हें यह संख्या कभी ठीक पता नहीं चल सकी क्योंकि एक तो वे लोग लगातार चल रहे थे दूसरे कोई गिनती करने की अवस्था में नहीं था। उनमें से एक व्यक्ति ने बताया कि चीनी सैनिक खस्ताहाल व मैले कुचैले थे। उनके जूतों के मुँह आगे से खुले हुए थे और कमीज़ों की आस्तीनें गायब थीं। वे बहुत लंबे समय से एक अपरिचित, वैरी भूमि पर लड़ रहे थे।
माँ के समूह पर नेपाल पहुँचने तक आठ बार घात लगाई गयी। वे लोग क्रमशः अपने घोड़े और याक गँवाते गये। खाद्य सामग्री, पानी और बंदूक की गोलियाँ भी। बुजुर्गों को याद है कि वे तीन चार दिन बिना भोजन के भी चले थे।
उन औरतों ने बताया, हम इतने प्यासे थे कि पहाड़ी दर्रों के पास से गुजरते हुए वहाँ पड़ी बर्फ उठाकर चूसने लगते थे। विवश होकर उन्हें कुछ दूसरे खानाबदोशों का खाना छीनना पड़ा। कभी- कभी उन्हें तिब्बती किसानों से अपने आभूषणों के बदले बलपूर्वक खाना और जूते लेने पड़ते थे। हमारे एक बुजुर्ग ने एक किसान को अपनी तलवार जबरन बेच दी ताकि मेरी माँ के लिए एक घोडा लिया जा सके। माँ अपने दुष्कर प्रसव के बाद पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पायीं थीं और उन्हें चलने से अवकाश की आवश्यकता थी।
चीनियों ने उनके निकास को आसान नहीं रहने दिया। दल को नेपाल और भारत की दिशा का बिलकुल भी अनुमान नहीं था और बहुधा चीनी मंसूबे ही उनके चलने की दिशा निर्धारित कर रहे थे कि वे कहाँ से यात्रा आरंभ करके किस दिशा में प्रस्थान करें। हर बार आक्रमण के बाद वे अपनी दिशा, कुछ और जानवर, कुछ और लोग तथा कुछ और संपत्ति खो देते थे। एक बार मेरी माँ और दो और लोग समूह से बिछड़ गये । कुछ समय बाद वे एक दूसरे से एक पर्वतीय दर्रे के पास आ मिले । एक दूसरे को खोज निकालने के हर्ष में वे कुछ देर के लिए अपनी सम्पूर्ण व्यथा भूल गये थे।
हमारे लिए अपने प्रिय व्यक्तियों को उनके अतीत के हृदयाघातों से बचा पाना कहाँ संभव है? अब मैं मुखिया की उस युवा पुत्री को कैसे सांत्वना दूँ जिसने अपनी दो संतानें, पूरा परिवार और पूरा देश स्वतन्त्रता की उस यात्रा के आरंभ में ही गंवा दिया जिसका अंत एक निर्वासन में हुआ। बहुत देर हो चुकी है, उन्हें ढांढ़स बंधाने के लिए अब देर हो चुकी है।
मेरी माँ की सहेलियों को याद था कि उन्होंने मार्ग में दो तिब्बती नववर्ष (लोज़ार) मनाये। तीसरे साल वे भूखे आवारा कुत्तों की तरह नेपाल सीमा पर स्थित लो- मोनथांग जा पहुँचे, आरंभिक पाँच सौ लोगों में से अब सिर्फ पैंसठ शेष बचे थे। मेरी माँ के जूते बमुश्किल उनके पैरों को ढाँप पा रहे थे, उनके वस्त्र जीर्ण- शीर्ण थे। एक साल वे मस्तांग के लो- गेकर बौद्ध विहार में रहीं तत्पश्चात पुनः अपनी ऊर्जा व साहस एकत्र कर भारत की ओर चल पड़ीं।
उनकी मित्र नए जीवन की ओर की जा रही अपनी उस यात्रा की छोटी- छोटी बातें याद कर हँसती रहीं । वे आश्चर्य कर रहीं थीं कि कैसे नेपाल और भारत के स्थानों अथवा मार्गों की तनिक भी जानकारी के बिना वे लोग सफलतापूर्वक यात्रा करते थे। भारतीय सीमा पर पहुँचने के लिए उन्हें अपनी बची- खुची राइफलें काठमांडू में नेपाली व्यापारियों को बेचनी पड़ीं। भारत पहुँच कर, बसों और रेलों में घुसने के लिए वे ‘नमस्ते, धर्मशाला’ और ‘नमस्ते, दलाई लामा’ का उद्घोष करते जाते थे।
मेरी माँ ने अपनी डायरी में लिखा है, कि उन्होंने सुन रखा था कि भारतीय स्त्रियों का सम्मान करते हैं व उन पर प्रहार नहीं करते, अतः रेलगाड़ी में घुसने के लिए स्त्रियाँ पुरुषों के आगे चलती थीं। माँ की सखियों को याद नहीं कि उन्हें भारत- नेपाल सीमा से धर्मशाला पहुँचने में और कितना समय लगा। बस इतना भर याद है कि अपने विभ्रम में वे बार- बार उसी रेल मार्ग पर कई बार आए और गए। नये देश में पहुँच कर उनके एकमात्र दिशा सूचक संकेत और सहायक थे दो शब्द, ‘दलाई लामा’ और ‘धर्मशाला’। जब कभी भारतीय टिकिट कलेक्टर या सहयात्री उन्हें रेल से धक्का देकर बाहर निकालते तो वे धक्का- मुक्की कर वापस घुस आते। मुझे विश्वास है कि भारतीय रेल अधिकारी उन्हें आसानी से रेल के बाहर धक्का नहीं मारते होंगे क्योंकि ये खमपा थे, जिनके बाल अब भी बड़े थे, जिनके पास उनके चाकू मौजूद थे। उन्हें अपने इस दुःसाहस की खतरनाक कीमत चुकानी पड़ सकती थी।
जैसे ही एक स्थान पर उन्होंने सैकड़ों की संख्या में भूतों से भटकते सैकड़ों तिब्बतियों को एक साथ देखा वे समझ गए कि वे धर्मशाला पहुँच चुके हैं। धर्मशाला में वे सड़क मजदूर का काम पाने में सफल हो गए। गर्मियों में गरशा और स्पिती की सड़क और सर्दियों में मनाली की सड़क। मेरी माँ के लेखन से पता चलता है कि सर्दियों में भीषण बर्फ़ीला तूफान आने से उत्तर भारत में अनेक तिब्बती मारे गए थे। उन्होंने लिखा था-
छोटा धारा में बहुत दिनों तक हिमपात होता रहा फिर एक हिमस्खलन हुआ जिसने हमें प्रायः ढँक लिया। भागने कि कोई जगह नहीं थी और मैं अकथनीय रूप से डरी हुई थी। हम सब एक स्थान पर एकत्र होकर दिन रात आँखें मूंदकर और हाथ जोड़कर प्रार्थना करते रहते थे। खाने पीने को कुछ नहीं था। अपनी वीरता के सहारे चीनियों का सामना किया जा सकता था, उनसे लड़ा जा सकता था, भाग कर बचा जा सकता था लेकिन जब प्रकृति शत्रुता पर उतर आए तब मात्र बैठ कर सबकी रक्षा के लिए प्रार्थना की जा सकती है, और कुछ नहीं। हममें से अधिकांश शीतदंशित थे और चलने में असमर्थ थे। हमारा सारा सामान बर्फ के ढेर में दब गया था और हम एक बार फिर शरणार्थी हो गये थे।
निर्वासन में माँ ने वे काम करने भी सीखे जिन्हें वे अन्यथा करने का सोचती भी नहीं, जैसे आग जलाना, चाय बनाना, कठोर हिमालयी भूमि को खोदना । सरदार की पत्नी होने के नाते मेरी माँ को कठिन श्रम से बचाकर रखा जाता था और कम मेहनत वाले काम ही सौंपे जाते थे।
वे कहती थीं कि वे बहुधा गहरे अवसाद में चली जाती थीं। ऐसे समय में उन्हें स्वयं को याद दिलाना पड़ता था कि उन्हें अपने जीवित होने के लिए भी कृतज्ञ होना चाहिए। कभी- कभी वे सोचती थीं कि क्या यह कहीं बेहतर न होता कि वे अपने गाँव में ही रुक जातीं और अपने प्रियजनों के साथ हर विपदा का सामना करतीं। वे प्रतिदिन अपने परिजनों की कुशलता के लिए प्रार्थना करतीं। अपने पति के साथ होते हुए भी वे एकाकी अनुभव करती थी। मेरी माँ का निर्वासित जीवन कुछ इस प्रकार से आरंभ हुआ।
आठ साल बाद मेरा जन्म एक धूल भरे छोटे से गाँव से गुजरती हुई भीड़ भरी रेलगाड़ी में हुआ। माँ को लगा कि इस बार वे ज़रूर मर जाएंगी। अपने विवाह के तेरह वर्ष बाद मेरे जन्म से कुछ माह पहले वे अपने पति से पृथक हो गईं। उन्होंने बताया कि वे एक आदर्श पत्नी नहीं थीं। अपने संक्षिप्त वैवाहिक जीवन के अधिकांश समय वे अपने पति से छिपती रहीं : दो साल पांडिचेरी के औरबिंदो आश्रम में अँग्रेजी पढ़ना- लिखना सीखती रहीं, वहीं उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की, उसके बाद उन्होंने अपने उस शरणार्थी रहवास से बहुत दूर तिब्बती बच्चों के अनाथालय में शिक्षिका की नौकरी पकड़ ली, जहाँ उनके पति रहा करते थे। छुट्टियों का भी बहुत थोड़ा समय अपने पति के लिए छोडते हुए अधिकांश छुट्टियाँ वे अपनी सहेलियों के साथ व्यतीत कर देती थीं। उन्होंने अपने पति और विवाह को एक स्वास्थ्य क्लीनिक की तरह ही बरता : संभव है ऐसी ही किसी मुलाक़ात में मैं गर्भस्थ हुई।
प्रसव में मृत, जुड़वाँ बेटों के बाद जन्म लेने पर भी मुझे (मेरी जान बचाने के टोटके के रूप में) एक कुत्ते का नाम न देकर सेरिंग यानी सुदीर्घ आयु – वांगमो- आशीष या सुदृढ़ स्त्री नाम दिया गया।
(ए होम इन टिबेट :लेखक सेरिंग वांग्मो धोम्पा । पृष्ठ 112 प्रकाशक पैंगविन रैनडम हाउस इन इंडिया)
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अनुराधा सिंह