माँमुनि- श्रीमाँ शारदा के जीवन पर आधारित उपन्यास / किश्त- ९

षोडशी की षोडशोपचार उपासना ४
 
जो चला जाता है उसे तो नया भुवन मिल जाता किन्तु जो पीछे रह जाता है उसके पुराने संसार में क्षण क्षण जानेवाले का अभाव खटकता है।
 
ऐसी ही दशा प्रसन्नमयी की हुई। शारदा और ठाकुर के जाने के पश्चात् वह चौका करती और शेष दिन माला फेरती रहती। ठाकुर के आने से जीवन में जो उत्सव हुआ था अब वहाँ मेले के उठ जाने के पश्चात् सूनी भूमि की नीरवता पसरी हुई थी। माला फेरते फेरते नयन मूँदें ठाकुर और शारदा के संग हुई बातों को दुहराने लगती।
 
चातुर्मास यों बीत गया जैसे पूर्णिमा की रात्रि बीत जाती है। स्वामी के संग की कामना करती शारदा प्रसन्नमयी को अपने जैसी ही लगती। फिर मन झटककर कहती ‘प्रसन्नमयी कहाँ तू बालविधवा स्वयं की सौभाग्यवती सती शारदा से तुलना करने बैठ गई! विधवा का एक ही आभूषण है- लज्जा।’ संकोच के कारण प्रसन्नमयी अपने मन से ही अबोला साध लेती।
 
माला पर जल्दी जल्दी अंगुलियाँ फेरने लगती। दिन हो जाता था तो रात्रि होने का नाम नहीं लेती थी और रात्रि होती तो नींद नहीं आती। ऐसी अनन्त रात्रियाँ केवल प्रसन्नमयी, ब्राह्मणी और शारदा जैसी वियोगिनियों के कपाल पर ही विधाता ने लिखी थी। ठाकुर की निशा तो कालीमाँ से बोलने-बतियाने में ही बीत जाती थी।
 
कोई ऐसे से मन लगा ले जिसे स्वयं को ही गढ़ना पड़ता हो तो जीवन कैसे आँख झपकते बीत जाए, प्रसन्नमयी सोचती। जैसे ठाकुर ने दक्षिणेश्वर की काली से मन लगा लिया। जो गढ़ते है ठाकुर ही गढ़ते है और प्रेम के कारण कल्पना कैसी प्रबल हो जाती है। ब्रह्मा ने संसार बनाकर कौन सा चमत्कार किया जैसा ठाकुर जैसे गढ़ैये ने भगवान बनाकर किया!
 
ठाकुर ने काली गढ़कर भी कौन सा चमत्कार किया जैसा शारदा ने ठाकुर को गढ़कर किया। मिट्टी में जल मिलाकर मूर्ति गढ़ना सरल है किन्तु जो पहले से वर्तमान हो उससे वांछित प्रतिमा गढ़ना कितना कठिन। जगत के ठाकुर से शारदा का ठाकुर गढ़ना खेल है क्या! पाषाण काटकर मन्दिर बनाने से भी अधिक कठिन। संसार का सबसे कठिन काज।
 
और उससे भी अधिक गूढ़विद्या है ठाकुर को जो भाती है वैसी मछली बनाना। सोचकर प्रसन्नमयी अकेली बैठी भी हँस पड़ती। घर की बहुएँ देखकर व्यंग्य करती। मीठा अधिक खाकर बालविधवा का माथा फिर गया है। कीर्तन के कारण ऐसी दशा होती है। दिवसभर बाहर कीर्तन रातभर भीतर कीर्तन।
 
प्रसन्नमयी से कोई पूछता तो बाहर बाहर का कीर्तन माँग लेती। ठाकुर और शारदा के जाने के पश्चात् तो केवल भीतर भीतर कीर्तन शेष था। बाहर केवल भग्न देवालयों का मौन और एक आधा लिखा हुआ पत्र। वह पत्र प्रसन्नमयी के जीवन की सबसे अमूल्य वस्तु था। उसकी निरावरण आत्मा का परिधान।
 
कैसी अपूर्व घटना है। अक्षरज्ञानशून्य शारदा का ठाकुर को पत्र! ठाकुर तो लिखापढ़ी को ऐसा मानते थे जैसे चन्द्रदर्शन के लिए कोई पंचांग बाँचे; दृष्टि उठाकर आकाश की ओर देखे तक न। जो बात सम्मुख बैठकर दृष्टि से दृष्टि मिलाकर कही जाना चाहिए थी उसे कहने के लिए शारदा ने पत्र क्यों लिखा?
 
लिखा कहाँ! प्रसन्नमयी से लिखवाया। योगेश्वरी ब्राह्मणी के काशी प्रस्थान के पश्चात् ठाकुर बालकों की भाँति दक्षिणेश्वर जाने की हठ करने लगे, “वर्षा बीत गई। गंगा का जल गुड़ की भाँति मीठा हो गया होगा रे हृदू। चल, अब लौट चले गंगाघाट।” शारदा ने मछली बनाने की सब विधियाँ सिद्ध कर ली थी। गंगा में नहाकर कालीपद से उठाकर सिंदूर लगाने के स्वप्न से उसके नेत्र ऐसे भरे थे जैसे धान से कार्तिक में कृषकों के भण्डार भरे रहते है।
 
एकादशी के दिन प्रसन्नमयी शीघ्र ही फलाहार की व्यवस्था करके जब ठाकुर के घर आ पहुँची तो देखती है शारदा ठाकुरघर के आगे बैठी धीमे धीमे भजन गा रही है।
“चूल्हे-चौके की ऐसी व्यस्त बेला में तुम भजन गाती बैठी हो, भाभी?” प्रसन्नमयी ने पूछा, “किसी ने बताया नहीं आज एकादशी है। मछली नहीं सींझने रखी?”
“एकादशी के दिन की गई यात्रा सब प्रकार से शुभ होती है, प्रसन्नदी” शारदा ने रघुवीर के विग्रह से गिरा श्वेत जवाकुसुम अपने केशों में खोंसते कहा।
“कहाँ चली अब? ठाकुर की सेवा करने के लिए तुम्हें ब्याहकर लाई मेरी बुआ। बार बार नैहर जाओगी तो बड़दा दूजी रख लेंगे, कहे देती हूँ मैं और रखे भी क्यों न! जब स्त्री बार बार माँ के घर जाकर छुप जाए। दूजी लाने को मैं ही कहूँगी उनसे” प्रसन्नमयी झूठमूठ रूठने का अभिनय करने लगी।
“ठाकुर तो पौ फटने से पूर्व ही दक्षिणेश्वर को चले गए। देर तक मैं सोचती रही ‘नहाकर लौटते होंगे’ फिर किसी बालक ने आकर बतलाया कि ठाकुर तो गए। बताकर जाते तो झालमूड़ी तो संग धर देती; यात्रा का आधार हो जाता।”
 
प्रसन्नमयी ने कुछ नहीं कहा। देर तक अचंभित बैठी रही। फिर पड़ौस से शारदा के लिए मछली का एक टुकड़ा मँगवाया। प्रसन्नमयी एकादशी के दिन भाभी को निरामिष रखने का अपराध कैसे करती भला!
 
शारदा का अनुज प्रसन्न मुखोपाध्याय बाहर प्रतीक्षा कर रहा था। मध्याह्न होने में विलम्ब था और शारदा प्रसन्नमयी को कोई पत्र लिखवा रही थी। यह परमगुप्त और वेदना से भरा हुआ कार्य चौके के पीछे अंधेरे भण्डारे में दोनों कर रही थी। शारदा दीया पकड़े खड़ी थी और भूमि पर बैठी प्रसन्नमयी जल्दी जल्दी लिख रही थी।
 
पत्र
 
श्रीकालीप्रसन्न
तुम्हें सम्बोधित करके पत्र लिखवाऊँ ऐसा साहस सम्भवतः कभी नहीं जुटा पाऊँगी। जाती बेला तुम्हारे चरणों की धूल से वंचित रही इसलिए इस पत्र के माध्यम से उसे धूलि को पाने की कामना करती हूँ।
अधिक समय तुम्हारे संग न बिता पाने के पश्चात् भी इतना तो जान गई हूँ कि मेरा लग्न किसी साधारण मनुष्य से नहीं हुआ है। संसार की अभ्यस्त मेरी दृष्टि ने तुम्हारी दिव्यता के दर्शन में अवश्य ही अधिक समय लिया हो किन्तु मन ने उसे अपनाने में क्षण का भी विलम्ब नहीं किया।
जिस काया को धरकर इस भंगुर जग के पुरुष इठलाया करते है उसे कुम्हार की मिट्टी सा कोमल कर श्रीराधा बननेवाला पुरुष क्या साधारण हो सकता है!
केवल इतना कहना चाहती हूँ कि आपके इस मार्ग पर मैं विघ्न तो न बनूँगी।
-पीछे पीछे दीपक लिए आने की आज्ञा की आकांक्षिणी
शारदा।
 
पूरा पत्र कहकर शारदा ने प्रसन्नमयी के हाथ से पत्र ले लिया। बड़ी देर तक देखती रही। फिर कागज लौटाते कहा, “बताओ प्रसन्नदी, ये आढ़ीटेढ़ी अल्पनाओं जैसी आकृतियों को पढ़कर ठाकुर इतना सब जान सकते है तो क्या मेरे नेत्र पढ़कर न जान सके होंगे। यह पत्र उन्हें भेजना उनका अपमान होगा। लिखा अक्षर मिटाना पाप है। इसे कहीं छुपाकर धर दो।”
 
कहकर शारदा चल दी। प्रसन्नमयी पत्र बारंबार पढ़ती थी किन्तु दिगंत की भाँति उसका अर्थ प्रत्येक बार और अधिक विस्तीर्ण होता जाता था।
 
 
षोडशी की षोडशोपचार उपासना ५
 
 

“जठराग्नि सहकर कोई जीवित रह जाए, दावानल में फँसकर भी न मरे, समुद्र की ज्वाला से बचकर मछली आ जाए किन्तु प्रवाद का थोड़ा सा ताप भी सती के लिए मरण है। श्रीमान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर कहते है मृत स्वामी को गोद में लेकर मरनेवाली स्त्री को सती नहीं कहते। सती का अर्थ है जिसका प्रेम सच्चा हो, केवल इतना। मैं जानती हूँ तुम्हारी दशा, भाभी किन्तु उतना ही अपने बड़दा ठाकुर से भी मेरा परिचय है” प्रसन्नमयी ने थोड़े से दूध के संग भात खाते हुए कहा।

 
“प्रवाद से भय नहीं होती। उनके स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता होती है। सब कहते है ठाकुर को शिरोरोग हुआ है” शारदा ने प्रसन्नमयी की पत्तल में और भात परोसते कहा।
 
“भाभी, इतना खानेवाली समझ रखा था तुमने मुझे” प्रसन्नमयी ने हथेली पत्तल के ऊपर करते हुए कहा।
 
“क्या कामारपुकुर के सब जन चिड़िया जितना ही खाते है, प्रसन्नदी?” शारदा हँसने लगी। अचानक ठाकुर की चिन्ता के कारण दोनों के मन में जो विषाद था वह तिरोहित हो गया।
 
श्यामसुन्दरीदेवी भी दोनों के निकट आकर बैठ गई। अपनी बेटी शारदा के स्वामी की चिन्ता की रेखाएँ उनके ललाट पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी। बेटी की वय ही कितनी है और उसपर स्वामी का पागल हो जाना। प्रतिदिन कोई व्यक्ति दक्षिणेश्वर से आकर जवाईबाबू की दारुण दशा का कोई समाचार सुना जाता। जवाईबाबू शारदा को संग भी न ले जाते थे। ऐसे पुरुष की कोई कल्पना भी कर सकता है जिसे अपनी स्त्री के यौवन को भोगने की इच्छा न हो। फलों से झुकती आम्रलता जिसकी हो वह नेत्र उठाकर भी न देखे, यह तो श्यामसुन्दरीदेवी के लिए अश्रुतपूर्व था किन्तु वह शारदा से कुछ कहती न थी। चिन्ता शब्दहीन होकर उनके शरीर से प्रकट होने लगी थी।
 
“अब निकलूँगी, शारदा। अधिक विलम्ब हुआ तो मेरे विषय में भी लोकोपवाद फैलते देर न लगेगी” प्रसन्नमयी हाथ धोकर जाने को खड़ी हो गई।
 
“आज रात्रि के लिए रुक जाओ न प्रसन्नदी। दो स्त्रियाँ अपना दुःखसुख तो कह ले” शारदा ने प्रसन्नमयी का हाथ पकड़ लिया।
“सुख की कथा कहना चाहिए, भाभी। दुख कहने से दुख दूना होता है और विधवा क्या सुख की कथा कह सकती है, भला!” प्रसन्नमयी ने कहा और शारदा के हाथ में हाथ देकर बैठ गई।
 
श्यामसुन्दरीदेवी भी अनुनय करने लगी, “आज मत जा, प्रसन्नबिटिया। कल कलेऊ करके भिनसारे ही निकल जाना।” श्यामसुन्दरीदेवी प्रसन्नमयी से जवाईबाबू के विषय में और बात करना चाहती थी। क्या जब वे बालक थे तब से ही ऐसे है? जब शारदा को ब्याहने जवाईबाबू आए थे तब तो ऐसे न थे।
 
अन्तत: प्रसन्नमयी जा न सकी किन्तु दो सखियाँ दुखसुख कहती उससे पूर्व शारदा के स्वामी के गाँव से उनकी बालसखी आई है, यह जानकर गाँव की स्त्रियाँ आने लगी। सब ठाकुर की विक्षिप्तता, उनके स्त्रीवेष और स्त्रियों जैसे आचरण के विषय में गप्प करना चाहती थी।
 
“सुनते है, शारदा के स्वामी के दूध से भरे स्तन भी उग आये। वह नारियों की भाँति धोती से इन्हें ढँके गंगास्नान करते है” एक बुढ़िया ने कहा।
 
दूसरी पीछे क्यों रहती, “स्तन तो होंगे ही, अब रजस्वला भी तो होते है शारदा के स्वामी”।
 
“चल हट, ऐसा तो कभी न देखा न किसी से सुना। ठाकुरमणि के पति के मस्तक में कीट होगा। स्त्रैण वस्त्र पहनकर नारियों सी भंगिमा ओढ़ना अलग बात है किन्तु प्रभु जिसे पुरुष बनाकर भेजे वह स्त्री बन सकता है क्या!” एक अतिवृद्धा ने कहा।
 
“उन्होंने श्रीराधासखी का रूप धरा है” एक तरुणि बोली। उसे यह गल्पकाण्ड अच्छा नहीं लग रहा था।
 
श्यामसुन्दरीदेवी दूसरे कमरे में बैठी मौन रो रही थी। शारदा स्त्रियों को कभी जल दे रही थी तो कभी मूड़ी-बताशे ला रही थी। प्रसन्नमयी देर तक सब सुनती रही। फिर अपनी साड़ी झटकारती खड़े होकर कहने लगी, “आप सबको शारदाभाभी के स्वामी की इतनी चिन्ता करते देख अच्छा लगा। आप निश्चिन्त रहे बड़दा कुशल-मंगल है और अगली पूर्णिमा को शारदा अपने स्वामी के घर चली जाएगी। नमस्कार।”
 
शारदा मुकुलित लोचन प्रसन्नमयी को निहारती रही। ठाकुर के संग रहने की बात सुनकर भी मन कैसा पुलककर कदम्बफूल हो जाता है किंतु ठाकुर ने तो शारदा को ले जाने की बात कभी की ही नहीं; तब क्या केवल प्रसन्नदी ने ठाकुर के विषय में लोकोपवाद को शान्त करने के लिए यह कहा। यह क्या किया प्रसन्नदी ने, अब यदि पूर्णिमा के पश्चात् भी यहीं रही तो जगत को क्या मुख दिखाएगी शारदा?
 
यह सब देख-सुनकर प्रसन्नमयी सायंकाल को ही लौट गई। प्रसन्नमयी को क्या पता था कि आवेश में उसकी कही बात को रखने के लिए दूसरे ही दिवस शारदा को दक्षिणेश्वर जाने के लिए निकलना होगा। जिस दिन प्रसन्नमयी ने पूर्णिमा को शारदा के ठाकुर के घरगमन की बात कही थी उस दिन त्रयोदशी थी।
 
रामचन्द्र मुखोपाध्याय आए तो जननी-आत्मजा दोनों को सूझ ही नहीं पड़ रहा था कि महाशय मुखोपाध्याय को कैसे शारदा की दक्षिणेश्वर जाने की इच्छा के विषय में बताए। दोनों देर तक गृहस्वामी की थाली पर झुकी चने की दाल और पूड़ियाँ परोसती रही और संसारभर की बात करती रही।
साहस बटोरकर अंत में श्यामसुन्दरीदेवी ने ही कहा, “माघी पूनो का पर्वस्नान करने शारदा को गाँव की स्त्रियों के संग दक्षिणेश्वर भेज दे क्या?”
रामचन्द्र मुखोपाध्याय ने नेत्र उठाकर शारदा को देखा तो वह आड़ लेकर खड़ी हो गई। शारदा को अनुभव हुआ पिता ने उसके ह्रदय को पोथी की भाँति पढ़ लिया था। रामचन्द्र मुखोपाध्याय खाते रहे। उन्होंने एक शब्द नहीं कहा। हताश शारदा भीतर ठाकुरघर में जाकर बैठ गई। पति के निकट जाने की आज्ञा कोई पुत्री पिता से माँगती है भला! छी: कैसी निर्लज्जता!
 
माथा भूमि पर रखकर सोचते सोचते शारदा सो गई। ब्रह्ममुहूर्त से पूर्व घर पर खटपट होने पर शारदा जागी तो चौके में कोई कचौरियाँ बना रहा था। शारदा ने बैठे बैठे ही सोकर रात्रि काट दी थी। तुरन्त चौके में गई तो श्यामसुन्दरीदेवी जलपान की व्यवस्था कर रही थी। पिता भी जाग गए थे।
 
“पौ फटते ही चलेंगे तो रात्रि तक पहुँच जाएँगे। तू चल तो पाएगी न शारदा इतनी दूर?” रामचन्द्र मुखोपाध्याय ने शारदा से पूछा।
 
“चलेगी क्यों नहीं! ऐसी कर्मठ बेटी है मेरी” श्यामसुन्दरीदेवी ने उत्तर दिया।
 
“उसे जाने का अभ्यास नहीं है न; इस कारण पूछ रहा हूँ।” रामचन्द्र मुखोपाध्याय बोले।
 
शारदा पोटली में अपनी धोतियाँ बाँधने लगी। उसे यात्रा करने की बहुत जल्दी थी। मुखोपाध्याय दम्पति देखते थे कि अभी शारदा कपड़े बाँध रही थी और अभी नहाने चली। फिर अचानक ठाकुरघर में दीपक लगा रही है। ऐसा उल्लास तो राधा में था रमापति से मिलने का।
 
कचौरी बाँधकर दोनों जब तक दौड़े दौड़े दक्षिणेश्वर जाने के मार्ग पर पहुँचे, जयरामवाटी के जन निकल चुके थे। मार्ग ऊबड़खाबड़, दस्युओं और हिंस्र पशुओं से भरा और बहुत लम्बा था किन्तु शारदा ऐसी चली जाती थी जैसे भगवान से मिलने राधा बिच्छू-नाग उलाँघती, अमा के अन्धकार में दौड़ी चली जाती थी।
 
(क्रमश:)
अम्बर पाण्डेय 
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