कवि-कथाकार-आलोचक रजत रानी ‘मीनू’ की ‘पिता
भी होते हैं मां’ काव्य-कृति का प्रकाशन
वर्ष- 2015 है।
यह काव्य-कृति कई कारणों से उल्लेखनीय है! इस 184 पृष्ठों की
लम्बी काव्य-यात्रा में दलितों की एक ऐसी दुनिया बस्ती है जहां स्त्रियां आज भी
झुग्गी-झोपड़ियों/सड़कों पर रहती दोहरें-तिहरें शोषण का शिकार हैं तो दलित पुरुष आज
भी स्वराज के लिए संघर्षरत। बच्चे बालश्रम
और बाल-विवाह के लिए विवश! इक्कीसवीं सदी में बड़े-बड़े नेताओं द्वारा मंचों-टीवी या
विज्ञापनों में चीख-चीख कर भारत बनाम इण्डिया की जो छवि या चित्र प्रस्तुत किये
जाते हैं वो ‘मीनू’ की कविताओं में पेश किए गए भारत की तस्वीर के सामने झूठे और
बेबुनियादी प्रतीत होते हैं यहां- एक ओर प्रसव से कहराती, सड़क पर दम तोड़ती
स्त्रियां हैं तो भूख-गरीबी और जातिगत पीड़ा से त्रस्त आत्महत्या करती स्त्रियां भी।
बलात्कार की शिकार स्त्री हो या वंशानुगत पेशे के अपमान का घूंट पीती झाड़ूवालियां
केवल स्त्री ही नहीं दलित पुरुषों की भी एक ऐसी जमात है यहां जो आज भी खेतों में
बेगारी करने को विवश हैं तो अस्पताल की मोटी फीस न जमा कर पाने के कारण अस्तपताल
के दरवाजे पर दम तोड़ने को विवश! स्कूल की फीस न दे पाने के कारण अशिक्षित रहने और
खेलने की उम्र में काम करने को विवश हैं दलित बच्चे। दलित बस्तियों या सड़कों पर
रहने वाले बच्चों की आंखों में पढ़ने की जिस ललक और जिज्ञासा से ‘मीनू’ ने
साक्षात्कार करवाया है वह हाशियाकृत समाज की एक ऐसी तस्वीर पेश करती है जो
वर्चस्ववादियों को ‘पानी-पानी’ करती है! यहां ऐसी मांएं भी हैं जो अपने बच्चे को
पढ़ा न पाने के लिए जीवन-भर अपराधबोध पाले घुट रही हैं और आदिवासी भी जिनके घर-आँगन
में विकास नाम की कोई चिड़ियां भूले से भी
नहीं भटकती। कह सकते हैं कि मीनू ने वंचित-पीड़ित-शोषित-परेशानहाल-किसान-मजदूर की
एक ऐसी दुनिया से हमारा साक्षात्कार करवाया है जो ‘इण्डिया बनाम बहिष्कृत भारत’
की सच्ची किन्तु कटू तस्वीर पेश करती है!
आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी गयी ये कविताएं
जमीन से जुड़कर जमीनी लोगों को पर लिखी गयी कविताएं हैं- जहां आपबीती में जगबीती का
सार पेश कर लेखिका ने भूख-गरीबी-अपमान और जहालत झेलते उनसे दो-चार होते लोगों के
यथार्थ का फलसफा कबीर की ‘जस की तस धर दिनी चदरिया’ वाले भाव से उजागर किया है।
‘मीनू’ के लिए कविता लिखना मन ‘‘बहलाव का साधन नहीं/ बदलाव का दूसरा नाम है।’’
‘मरघट से गुजरते हुए’(हो या
‘साक्षात्कार’ या ‘मेरा दर्द’ जैसी कविताओं में एक ओर व्यवस्था के प्रति विद्रोह
दिखता है तो दूसरी ओर वर्णवादी व्यवस्था के
प्रति खुली चुनौतीयां भी जिसमें परिवर्तन की अनुगूंज को लक्ष्य किया जा सकता हैंः
“कब तक/ यूं ही ढोता रहेगा/आदमी, आदमी को?/ मेरे
देश में कब तक/चलता रहेगा ये सिस्टम?/ आखिर कब तक/खून चूसेगा आदमी?/ आदमी का??”(पृ.-131)
‘मीनू’ एक दलित लेखक हैं वे लम्बे समय से
दिल्ली जैसे महानगर में रह रही हैं इसके बावजूद कि महानगर की चकाचौंध-मॉल, रेस्टोरेण्ट,
बड़ी-बड़ी पार्टियां के अनुभव उनके लेखन का बिन्दु नहीं बनते बल्कि
अभावग्रस्त-दुखी-वंचित-परेशानहाल श्रमिक और शोषित ही उनके लेखन में आश्रय पाते
हैं। ये उनकी करुणासम्बलित न्याय दृष्टि का ही प्रतिफल माना जाना चाहिए! ‘मीनू’ की
लेखनी में वह ताकत और साहस है जो दुनिया के हर तरह के भेदभाव, हर तरह की राजनीति-
भूख-गरीबी-अपमान और जहालत ही नहीं, हर तरह के पूर्वाग्रह को बुहार देना चाहती हैं।
पर बड़ी ही नफासत से- ‘उठो तात अब आंखें खोलो/पानी लाई हूं मुंह धोलो!’ वाले भाव से
रजत की कविताएं- चेतना जगाती हैं, हृदय परिवर्तन का अवसर देती हैं- कुछ-कुछ गालिब
वाली शैली में- ‘लड़ते हैं और हाथों में तलवार भी नहीं’।
प्रस्तुत आलेख के अन्तर्गत मुख्यतः रजत रानी ‘मीनू’
की स्त्री दृष्टि पर विचार करते हुए उनके काव्य-संग्रह- पिता भी तो होते हैं मां
में अभिव्यक्त अस्मितामूलक विमर्श का अध्ययन कर उक्त संग्रह के शिल्पगत प्रयोगों
पर विचार किया जाएगा!
रजत रानी ‘मीनू’ की स्त्री-दृष्टि
“अन्याय
की अनुगामिनी न बनूं / बात व्यक्तिगत की नहीं /गलत परम्परा की है/ टूटनी चाहिए
झूठी और गलत परिपाटी!” (पृ.- 58)
साहित्य में अभिव्यक्ति की दो दृष्टियां
आरंम्भ से ही दृष्टिगोचर होती रही हैं- स्त्री-दृष्टि और पुरुष-दृष्टि! स्त्री
दृष्टि का एक व्यंजनार्थ ‘द हिन्दु’ मैगजीन के मुख पृष्ठ
पर छपी एक तस्वीर के माध्यम से देना चाहूंगा, देखें- “दस महीने का इराकी
बच्चा मुंह उठाए रो रहा है और उसकी आठ बरस की बहन- जो खुद भी बम से उतनी ही आहत
है- अपना रोना भूलकर उसे चुप करा रही है।” ‘मीनू’ की दृष्टि इसी नियम से परिचालित
दिखती है जहां हर वंचित-परेशान-दुखी उनके लेखन में अनुस्यूत दिखता है। वे उनके
अधिकार के लिए प्रतिबद्ध दिखती हैं। अजन्ता और एलोरा की गफाओं में उकेरे गए स्त्री
की नग्न प्रतिमाओं की रुंधी अनसुनी आवाज का भी वे स्वर बन जाती हैं:
“अजन्ता-एलोरा में/पत्थर की तराशी
गयीं/सुन्दर कमनीय मूर्तियां/रो रही हैं-/आजाद होना चाहती हैं/वे नहीं
चाहतीं/उन्हें आज भी/पुरुष देखें/उसी दृष्टि से जिससे/देखा था उन्हें/हजारों वर्ष
पूर्व।’’ (पृ.- 94)
‘दृष्टि’ जेण्डर की मुखापेक्षी नहीं होती।
जरूरी नहीं पुरुष की दृष्टि पुरुषवादी और स्त्री की दृष्टि स्वीवादी दृष्टि से ही
परिचालित हो बल्कि पुरुष की दृष्टि स्त्रीवादी भी हो सकती है या स्त्री की दृष्टि
पुरुषवादी भी। यह परिवेश और स्वभाव पर निर्भर करता है। इसके कई उदाहरण आज साहित्यक
विधाओं- कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध में देखने को मिल रहे हैं। संयोग से आज
ज्यादातर स्त्री रचनाकार ‘जैसे को तैसा’ (विध्वंसक-दृष्टि) नीति का अवलम्बन करती
दिखती हैं जिनपर जाने-अनजाने उषा उथुप के निम्न गाने का प्रभाव लक्ष्य किया जा
सकता है:
“दुनिया ने हमको दिया क्या/दुनिया से हमने
लिया क्या/हम सबकी परवाह करें क्यों/ सबने हमारा किया क्या?”
क्या ‘अन्याय का प्रतिकार अन्याय होना चाहिए?’
इस प्रतिक्रियावादी दृष्टि से तो पूरी धरती ही लहूलुहान हो जाएगी! ‘मीनू’ की
दृष्टि करुणासम्बलित न्याय दृष्टि है जो संतुलन को ही विकास का मूलमंत्र मानती है।
अनामिका रजत रानी ‘मीनू’ की दृष्टि के सम्बंध में लिखती हैं, “जीवन के बृहत्तर
पाठों के लिए तैयार करती सजग-सरल मातृदृष्टि, भेदभावरहित नये समाज की संरचना बुनती
मातृदृष्टि… पुरुषों की ममता और वात्सल्य में इसने आस्था नहीं खोई।’’(समीक्ष्य
पुस्तक की भूमिका से)। ‘मीनू’ की स्त्री-दृष्टि का प्रमाण है उक्त संग्रह में
संकलित ‘पिता भी तो होते हैं मां’ कविता। जो यह सिद्ध करती है, ‘मीनू’ की दृष्टि
पुरुष विरोधी नहीं बल्कि विरोध उनका पितृसत्ता से है, वर्णवादी व्यवस्था से है जो
हमेशा यह मानकर चलती है कि स्त्री और दलित उनसे हीनतर हैं।
‘मीनू’ केवल आतताई पुरुषों के चित्र नहीं
खींचतीं, उनमें आए बदलावों को भी रेखांकित करती हैं जो सिद्ध करता है वे
पुरुषविरोधी नहीं पुरुष की सामंतिवादी मानसिकता से उनका विरोध हैः
“मां की तरह/ पापा ने सिखाया/उठना-बैठना/पढ़ना-लिखना/सिलना-बुनना/खाना-पकाना/रहना-सहना/वे
सुलाते थे मुझे/अपने सीने से लगाकर/मम्मी की तरह।/मेरे कपड़ों पर इस्त्री/नहलाते थे
मुझे रगड़-रगड़ कर/मेरी चोटियां गूंथते थे/बालों में तेल लगाकर/ खाना खिलाते थे/अपने
हाथों से निवाला तोड़-तोड़ कर/तभी मिलती थी उनको तृप्ति!” (वही, पृ.-30)
गौरतलब हो, स्त्रीवाद की सारी लड़ाई उस
व्यवस्था के खिलाफ है जो स्त्री को पुरुषों से कमतर मानते हैं। उन्हें स्वतंत्रता
और समानता से वंचित रखने में ही अपनी और समाज की भलाई मानते हैं। कभी धरती पर उक्त
कविता में वर्णित पुरुष- सखा या मित्र भाव वाले पुरुष को धरती पर न देख ‘जनाबाई’
ने अलौकिक पुरुष- माधव से अपनी पीड़ा यूं कही थी- “ऐ माधव! देखो न,/कितने तो काम
धरे हैं सर पर/कितना आटा गूथना है अभी/कितने तो कपड़े फींचने हैं/ आओ, जरा हाथ बंटा
दो/ या तुम/हेर दो जुएं ही।
(अनामिका/कविता में
औरत/पृ.- 41)
क्या रजत रानी ‘मीनू’ का पुरुष माधव-सा ही
नहीं? निश्चय ही रजत रानी ‘मीनू’ की कविता का ‘पिता’ ऐसा ही पुरुष है जिसकी तलाश
स्त्रीवादियों को बरसों से थी। वही सखा-बन्धु वाले पुरुष, भरतमुनि के
धीरोदात्त-धीरललित-धीरप्रशांत नायक।
स्त्रीवाद बनाम दलित स्त्रीवाद : रुंधी हुई
अंतरध्वनियों की पुकार
‘‘मेरे जज्बातों का/संज्ञान तुमने लिया नहीं/गुलामी मैंने चुनी
नहीं/आजाद तुमने किया नहीं/पंख उगने दिये नहीं/फिर व्यंग्य करते हो मुझ पर/कि अपने
पंखों में/उड़ा ले चलो/आसमान में/मुझे भी यदि तुम- ‘नर से बड़ी नारीवादी हो’।’’(पिता
भी होते हैं माँ/ रजत रानी मीनू/पृ.-69)
साहित्य में स्त्री की अभिव्यक्ति आरंभ से होती रही, पिकबैनी, मृगनैनी, सेविका, या हृदय में पंप भरती मां, बहन, बेटी या प्रेमिका के रूप में। सही मायने में स्त्री के मनोविज्ञान या
मानसिक अवगुंठन को समझ पाना (यथार्थ के धरातल पर) संभव न हो पाया। सूरदास की भाषा
में कहूं तो स्त्रियों से सहानुभूतिवश पुरुषों की भाषा में
‘हलराया-दुलराया-मलराया’ तो खूब गया पर वह यथार्थ का फलसफा न बन सका ! बेशक वह
अच्छे रहे पर स्त्री के हृदय के समक्ष सच्चे न बन पाए। एक पीड़ित और भोगी दृष्टि से
वे स्त्रियां द्वारा ही लिखी गयीं। यह संभव हो पाया विशेषकार आजादी के बाद। जब
स्त्री शिक्षा पूरे जोर से आरंभ हो पायी। हालांकि की कुछ गिनी-चुनी स्त्रियां पहले
भी शिक्षित थीं, और राजनीति में सक्रिय भी। पर यह आजादी सवर्णों और उच्चवर्गीय लोगों
की अंग्रेजों से थी। सही मायने में ज्यादातर दलितों की स्थिति पहले जैसी ही बनी
रही- ‘गरीबी हटाओ’ का नारा हो या ‘सर्वशिक्षा अभियान’- ‘सब पढ़ें सब बढ़ें’ जैसे नारे ये पंचवर्षीय योजनाओं का हिस्सा अवश्य बने पर
दलितों की हिस्से से इनका पूरी तरह उन्मूलन
न सही मायने में तब हुआ था और न अब ही । दलित आज भी अपने ही देश में वंचित, पीड़ित-शोषित और गुलाम अवस्था में ही
देखें जा रहे हैं। महिला सशक्तिकरण के जो दावे मंचों पर गले फाड़ व्यक्त किये जाते
हैं किन्तु क्या उनसे समस्त स्त्री का
सरलीकरण करना लोकतंत्र के साथ न्याय होगा। रजत रानी ‘मीनू’ का सवाल है:
‘‘सड़क किनारे/उबड़-खाबड़/आंगन उनके /वे
उन्हें लीपती हैं/मिट्टी से,/लगाती हैं झाड़ू।/तीन-चार फुट्टा दीवारों को जो देते हैं/मात्र घर का
अहसास।/वे पोतती हैं उसे/कभी मिट्टी से….कूड़े-कबाड़ से बनती हैं उनकी झुग्गियों
की छतें/ दूर से हो जाते हैं दर्शन/एक विशाल भारत के।/जहां रहते हैं अभी
भी/जीते-जागते इंसान।/आधारभूत संसाधनों से एकदम विलग।’’ (वही,पृ.- 65)
दलित स्त्रियों की स्थिति इस
लोकतांत्रिक देश में बद से बदतर है, “दलित स्त्रियां सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और
राजनीतिक क्षेत्रों में बहुत पीछे हैं।
साहित्य-कला, संगीत, शिक्षा संस्थानों में दलित स्त्रियों का प्रतिनिधित्व भी
नगण्य है। वे सभी क्षेत्रों में दलित पुरुषों से भी पीछे हैं। वे जाति भेद और लिंग
भेद दोनों की शिकार हैं।”(जाति, स्त्री और साहित्य/रजत रानी मीनू/पृ.- 12) ज्यादातर दलित स्त्रियां आज भी शहरों में
सवर्णों की कोठियों में झाड़ू-पोंछा करती, जूठे बर्तन मांजती, बच्चे खिलाती या केयर टेकर की भूमिका में और गांवों में
ठाकुरों-बाभनों के खेतों में कटनी-बंधनी-रोपा-डोपा करने तथा फटकन-झाड़न कर अपना
जीवन निर्वाह करने को विवश हैं। उनके लिए रविवार का दिन अवकाश का दिन नहीं, काम में हुई बढ़ोतरी का दिन बनकार आता
है। उनके लिए अवकाश कहां:
‘‘करती रही/इन्तजार अपने लिए/थोड़ा-सा
वक्त/बचाने का- पर/सिर उठाकर देखा/तो बीत चुका था दिन!’’
(पिता भी तो होते हैं
माँ/रजत रानी मीनू/ पृ.- 64)
× × ×
‘‘वह कोना कहां है?/कभी मिल सकेगा?’’( वही, पृ.- 62)
‘कोना?’ वजिर्निया वुल्फ ने स्त्री के निजी कमरे की बात की थी। तसलीमा नसरीन
‘देश’ की बात करती हैं- ‘औरत का कोई देश नहीं’। रजत रानी ‘मीनू’ स्त्री के एक
‘कोने’ की बात करती हैं। सच है, दलित स्त्री के पास एक कोना भी नहीं जहां बैठ कर वह अपने निजी अनुभव
कागजों पर निर्बाध उकेर सकें :
‘‘मैं
कैसे कहूं, किससे
कहूं/कौन सुनेगा, मेरी बात/कौन करेगा, मुझपर विश्वास?/गोया अपने ही घर में मैं मोह-ममता की कैद में हूं।/अपनों के द्वारा ही
/की जाती है/मुझपर निगरानी/किस से कहूं/अपनी हकीकत-/भरी, जिन्दा कहानी।’’ (वही,पृ.- 121)
जिस वास्वविकता से ‘मीनू’ ने दलित
स्त्रियों की शिनाख्त करवायी है उससे कौन इंकार कर सकता है। आज भी करोड़ों
स्त्रियों के संघर्ष, यातनाएं और चुनौतियां दलित बस्तियों की अशिक्षा और अंधविश्वास की बलि
चढ़ वहीं दफन हो जाती हैं। रोटी-कपड़ा-मकान-बिजली-पानी जैसी बुनियादी चीजों से दूर ‘उच्च-शिक्षा’
का स्वप्न भी भूले से उनके स्वप्न में नहीं आता। आजादी से पूर्व जो स्थिति दलितों
की तब थी वह अब भी बरकरार है।
रजत रानी ‘मीनू’ के यहां
स्त्रियों की एक ऐसी ही दुनिया बस्ती हैं जो अपने जज्बातों का संज्ञान मांगतीं
हैं(कविता-गोया मैंने किया है अपराध), घर-बाहर का अंतर्द्वंद्व झेलती, खटती कभी न छुट्टी पाती
स्त्रियां(‘रविवार का दिन’- कविता) या चेतना होते हुए भी बोलने-लिखने से डरती-सहमती स्त्री( कविता- वह
स्त्री); इक्कीसवीं सदी में भी महानगर में सड़क किनारे फट्टों से खड़ी दीवारों को
लिपती स्त्रियां(महिला सशक्तीकरण-कविता) यानी दलितों की एक दुनिया ही यहां दिखती
है। जैसा की रजत रानी ‘मीनू’ की निम्न कविता में व्यक्त हुआ है:
‘‘प्रधानमन्त्री बदले/मन्त्री बदले, बदली हैं सरकारें/कुर्सी वही, ऑफिस वही/काम मेरा वही/कूड़ा उठाना/झाडू लगाना/मैला
ढोना!’’7(वही,
पृ.- 127)
क्यों आज भी ज्यादातर दलित अपने वंशानुगत कार्य करने या उसी पेशों में
जाने को विवश हैं? यह प्रश्न विचारणीय है। ‘मीनू’ ने अनेक सार्थक प्रश्न न केवल उठाएं है
बल्कि उसके उत्तर भी वे दलित बस्तियों से ढूंढ लायी हैं-
‘‘वे नहीं जानती/ किसे कहते हैं/अधिकार?/कैसी होती है-/नारी मुक्ति?’ (वही,पृ.- 52)
दलित स्त्रियों की स्थिति बचपन से ही एक ‘कामगर’ या ‘बालश्रमिक’ के
रूप में देखी जाती है- मां पिता के साथ खेतों में सहयोग करते या घरों में घर के
काम-काज निपटाते। यथास्थिति तो ये भी देखी गयी है कि दलित बच्चे सवर्ण की गुलामी
या बेगारी करने को विवश हैं। दलित आत्मकथा- मेरा बचपन मेरे कंधों पर में सौराज है
जिसके पिता पाँच वर्ष की अवस्था में ही गुजर जाते हैं और सौराज सौतेले पिता का दंश
झेलता अंततः निर्वासित हो विस्थापन झेलने को मजबूर होता है। अपनी अस्मिता और
अस्तित्व के संघर्ष के लिए सौराज कभी नींबू बेचता है, कभी अंडे तो काभी अखबार। कभी
जूते पोलिश करता है तो करता है तो खिलौनों और किताबों से खेलने और पढ़ने वाले हाथों
को तेजाब कि फैक्ट्रियों में अपने हाथ गलाने को भी विवश होना पड़ता है।
प्रेमपाल नामक अपने मास्टर साब की ही नहीं कई यादवों की भी दिन चाकरी रात बेगारी भी
कम नहीं करनी होती । बेगारी करवाने के पीछे चाहे प्रेमचंद की ‘सवा सेर गेहूं’ के
शोषक- विप्र महाराज वाली मानसिकता हो या श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की ही कहानी ‘घूँघट
हटा था क्या’ के पात्र ‘बच्चू’ (गुलाम) के पिता जैसों की विवशता- उक्त कहानी में
छल-बल और कौशल का सहारा ले सवर्ण- चौधरी बलाधीन दलित- बच्चा- बच्चू को अपना गुलाम
बना लेता है। स्त्रियों के घर को कामकाज में इतना व्यस्त रखा जाता है कि खुद
उन्हें अपनी उपेक्षा और हाशियाकृत स्थिति का एहसास नहीं हो पाता। वे तो
पिता-पति-पुत्र की सेवा-सत्कार में ही अपनी अस्मिता और अस्तित्व को होम कर देते
हैं! दलित स्त्री के साथ यह है कि उसे घर-बाहर दोनों ही जगह शोषित-पीड़ित होना पड़ता
है। तमिल कवि- सरूपा रानी कहीं लिखती हैं-
‘‘घर
में पुरुष अहंकार एक गाल पर थप्पड़ मारता है
तो गली में जातीय अहंकार दूसरे गाल पर!’’
स्त्री
को उसके श्रम का उचित मूल्यांकन उसे आज भी नहीं मिल पा रहा, “स्त्रियां अपने घरों में मुफ्त में
सारा काम करती हैं, उनके श्रम का कोई मूल्य नहीं दिया जाता, बल्कि इसे परिवार की सेवा कहा जाता है
और इस मुफ्त की सेवा को स्त्री का धर्म बताया जाता है। उसी प्रकार स्त्रियां घरों
के बाहर भी सेवा करें। सरकार स्त्रियों को किसी काम पर लगाती है, तो उन्हें उसी तरह के काम की वही
मजदूरी या तनख्वाह दी जानी चाहिए, जो श्रम के बाजार में पुरुष के श्रम का होता है। लेकिन स्त्रियों के
संदर्भ में सरकार श्रम के मूल्य की नहीं, सेवा की बात करती है। श्रम-कानूनों के ढांचें में नहीं, बल्कि सांस्कृतिक ढांचे में सोचती है
और उसके अनुसार चाहती है कि स्त्रियां ‘आशा’ (एक्रडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) के
रूप में या आंगनबाड़ी कार्यकत्ता के रूप में वैसे ही काम करें, जैसे वे अपने परिवार की सेवा के लिए
करती हैं। इसी मानसिकता का नतीजा है कि आज लोखों स्त्रियां ‘आशा’ की कार्यकर्ता या
आंगनवाड़ी की जनसेविका के रूप में बहुत ही नगण्य या न के बाराबर मानदेय लेकर काम कर
रही हैं।’’
(स्त्री सशक्तीकरण की
राजनीति/संपा. रमेश उपाध्याय, संज्ञा उपाध्याय/पृ.- 14)
संग्रह की काव्य यात्रा के आरम्भ में ही ‘मीनू’ ने अपनी लेखनी के
सरोकार स्पष्ट कर दिये हैं- ‘‘मैं अपने देश के उस सामाजिक हिस्से से आती हूँ जिसे सहने को समुद्र भर सन्ताप है और कहने को
बूंद भर अवसर नहीं है। स्त्री के हक में आधी में वे कौन हैं जो मेरे जैसियों के
हिस्से का बोल जाती हैं। मेरी काया में प्रवेश कर मुझसे बहनापा बनाती हैं? पर क्या वे सुविधाभोगी, मेरी गैरदलित बहनें स्त्री-मुक्ति की उपलब्धियां
मेरे साथ साझा कर पाती हैं? जाहिर है नहीं।’’( ‘पिता भी तो होते हैं माँ’ की भूमिका से) यह स्पष्ट
है कि ‘मीनू’ को क्यों अपना स्त्रीवाद गैरदलितों- सवर्ण स्त्रियों से अलग अपना
स्त्रीवाद परिचालित करना पड़ा। इसकी बानगी निम्न कविता में भी देखी जा सकती है:
‘‘हमारे साथ जब होता है बलात्कार/समूहिक
बलात्कार-/तब क्यों हिलता नहीं पत्ता एक भी?/और जब तुम्हारे साथ हुआ बलात्कार/तब क्यों हिल गयी संसद भी?’/चीख उठीं महिला सांसद बलात्कार के
खिलाफ/क्यों उड़ गयी ‘महिला आयोग’ की चैन की नींद/आज क्यों उठी बलात्कारियों को/सजा-ए-मौत
की मांग?’’ (वही,
पृ.- 39)
दलित स्त्री को क्यों गैरदलित स्त्री की मुक्ति से अलग अख्तियार करनी
पड़ी उसी के उत्तर स्वरूप इस कविता को पढ़ा जा सकता है। यह सच है कि दलित की समस्या
को रेखांकित करने या उन्हें प्रकाश में आने नहीं दिया जाता। शायद इसीलिए अम्बेडकर ने
दलितों के लिए अलग से दलित पत्रिकाएं निकालने पर जोर दिया था।
‘मीनू’ के यहां लैंगिक विभेद के साथ परम्पराओं और दकियानूसी रिवाजों
का विरोध करती अनके कविताओं को भी रेखांकित किया जा सकता है। परम्परा के नाम पर
जिस तरह के लैंगिक विभेद की राजनीति का शिकार स्त्रियां सदियों से होती आई हैं ‘मीनू’
उनकी मुखालफत करती हैं। साथ ही दलित स्त्री के ऐसे मारक प्रश्न खड़े करती हैं मानों
एकलव्य के तीर धुनष से छूटे हों:
‘‘क्यों
नहीं करते/ पति पत्नी की तरह/करवाचौथ?/क्यों नहीं करता/एक बेटा, मां की तरह अहोई पूजा?/क्यों नहीं लगाता/बहन के भाल
पर दूज का टीका?’’(वही, पृ.-138)
रजत की स्त्रीवादी दृष्टि प्रगतिशील है वे पितृसत्ता और वर्चस्ववादी
षड्यंत्रों को खूब समझती है। वे एक स्त्री
को मां, पत्नी, बहन, प्रेमिका से पूर्व एक मानवी के तौर पर देखती हैं और हर तरह के
मानवाधिकार की आवश्यकता पर बल देती हैं जो
स्त्री की मानवीय गरिमा को ठेस नहीं पहुंचाते। अवसर और संसाधन के बराबर बंटवारे पर
बल देती हैं। इसके लिए वे किसी भी तोहमत की परवाह नहीं करतीं, ‘‘यदि तुम्हारा पढ़ना, आगे बढ़ना/बिगड़ना है तो मैं कहती
हूं/तुम जरूर बिगड़ो/यदि तुम्हारा पर्दा न करना बिगड़ना है/तो मैं कहती हूं/तुम जरूर
बिगड़ो!/यदि तुम्हारा बोलना सही-गलत के लिए/तर्क करना, बौद्धिक बनने को बिगड़ना कहता है समाज/
तो मैं कहती हूं तुम, खूब बिगड़ो!’’ (बहुरि नहिं आवना/सम्पा- प्रो. दिनेश राम जनवरी-जून, 2022, पृष्ठ-11) समता, स्वतंत्रा और धर्मनिरपेक्षता की वकालत करती रजत रानी ‘मीनू’ की कविताएं
एक ओर सवर्ण स्त्रीवाद की राजनीति के पीछे के षड्यंत्रों को उजागर करती है तो वहीं
दूसरी ओर दलित स्त्रीवाद की दशा-दिशा को रेखांकित करती हुई वंचित-शोषित-पीड़ित
स्त्रियों को मुक्ति के लिए प्रेरित करती है। मुक्ति- भूख, अपमान से ही नहीं हर प्रकार के भेदभाव
की राजनीति से हर तरह के पूर्वाग्रहों से जिसके कारण आज भी दलित स्त्री हाशियाकृत
है!
बाल-विमर्श
: ‘उठो तात अब आंखे खोलो’
किसी भी देश की उन्नति में बच्चों का बहुत योगदान होता है इसलिए कहा
जाता है बच्चे देश का भविष्य होते हैं। किन्तु भारत जैसे देश के भीतर एक और भारत और
बस्ता है जिसे अम्बेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ कहा था। उस बहिष्कृत भारत में बच्चों
की स्थिति उसकी दशा और दिशा की झांकी रजत रानी मीनू की ‘बचपन’ कविता में देखी जा
सकती है। यह कविता शांत गति से चलचित्र की तरह धीरे-धीरे किन्तु अंत में भीतर तक
पैठ जमा लेती है! द्रष्टव्य देखें-
‘‘आज/सुबह की सैर पर निकली/ तो बचपन मिल गया/बच्चों को खिलाते हुए/जब
सैर से घर लौट रही थी/तब बचपन झाड़ू-पोछा कर रहा था/और जब जल्दी-जल्दी ऑफिस
निकली/रेड लाइट पर बचपन/अंग्रेजी-हिन्दी की/पुस्तकें और पत्रिकाएं बेचते मिल गया/ऑफिस
पहुंची तो चाय का कप/लेकर खड़ा था
बचपन/मेरे सामने/जब इलाज कराने अस्पताल पहुंची/तो बचपन/अपनी बीमार मां के इलाज के
लिए डाक्टर, नर्स
और वॉर्ड /के सामने गिड़गिड़ा रहा था/बच्चों के स्कूल की पी.टी.एम. में पहुंची/तो
बचपन/नौनिहालों के बीच/मैले-कुचैले वस्त्रों में स्कूल के बाहर खड़ा था।’’(पिता भी
तो होते हैं माँ/ रजत रानी मीनू/ पृ.-170-172)
× × ×
‘‘वे पकाती हैं रोटी-तरकारी /ईंटों के चूल्हे पर।/वहीं खेलते हैं/उनके
छोटे-छोटे नौ-निहाल, फटेहाल/दौड़ते हैं/स्ट्रीट डॉग के पिल्लों के साथ।/मोटर गाड़ियों के
पीछे-पीछे।’’ (वही, पृ.-65)
‘मीनू’ यहां जिन बच्चों की तस्वीरें रखती हैं उन बच्चों की तुलना
प्राइवेट स्कूीलों में मोटी-मोटी फीस देने वाले अभिभावकों के बच्चों से नहीं की जा
सकती है और न ही डॉक्टरों की महंगी फीस अदा करने वाले अभिभावकों के बच्चों से।
क्योंकि ये ऐसे बच्चे हैं जिनको दो जून
रोटी के पैसे भी नहीं जुट पाते फिर महंगी शिक्षा, इलाज कहां से करें। क्यों ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ से ये बच्चे अछूते रह
जाते है? दलित लेखक श्यौराज सिंह बेचैन ‘चाचा’ कहे जाने वाले जवाहर लाल नेहरू पर
अक्सर सवाल उठाते रहे हैं कि क्यों नेहरूजी के आस-पास ऐसे दलित, पीड़ित, परेशानहाल बच्चे नहीं दिखते? क्यों नहीं उनके इर्द-गिर्द कोई भीख मांगता, कलम बेचता कोई भी बालश्रम बच्चा दिखता
है? क्या
मान लिया जाए नेहरू की चिंता केवल अमीर-घराने के ही बच्चों से है जो सूट-बूट या
चकाचक कपड़ों और जूतों में बालों में कंघी किये, हाथों में गुलाब का फूल लिए होते हैं। खैर नेहरू ही क्यों सत्ता कोई भी हो ऐसे बच्चों की चिंता कहीं नहीं दिखती, दिखती भी है तो केवल चुनाव के समय
अपनी सहानुभूति प्रकट करने के बहाने सही मायने में वोट बैकिंग की राजनीति करते, जैसा की ‘मीनू’ यहां लिखती हैं-
‘‘हर
पांच साल बाद-/हरे होते हैं-/इनके दिन,/बारिश के मौसम में घास की तरह।’’(मीनू/पृ.- 44)
आजादी के बाद भी रोटी-कपड़ा और मकान के साथ शिक्षा जैसे बुनियादी विषय
दलितों से दूर ही रहे। दलित आज भी दो जून रोटी के लिए कड़ी मेहनत करते हैं बावजूद
उन्हें उचित श्रमिक मूल्य नहीं मिल पाता। ज्यादातर दलित बच्चे खेतों में काम करने, सवर्णों के घर
की साफ-सफाई करने, तथा केयर टेकर की ही भूमिका में देखें जाते हैं। ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की
नजरें क्यों इनसे ओझल रह जाती है। उनकी नजरें केवल परोक्ष बालश्रमिक और शोषित
बच्चों को ढूंढती है क्या इसलिए के इससे वे हंगामा खड़ा कर सकें। लोगों का ध्यान
आकृष्ट कर सकें? मेरा कहना ये नहीं कि उन्हें जस के तस वाली स्थिति में छोड़ दिया जाए,
किन्तु प्रश्न उठाना जरूरी है कि जो अप्रत्यक्ष हैं उनका संज्ञान क्यों नहीं लेते-
शांति के नोबेल पुरस्कार विजेता ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के संस्थापक- कैलाश सत्यार्थी!
दूसरा सवाल है क्यों चुनाव के समय ही नेताओं को दलितों की बस्तियां
याद आती हैं- दलितों की शिक्षा, पिछड़ापन, बीमारी, संघर्ष, रोजगार या विस्थापन, भूख-गरीबी याद आती हैं? किन्तु जब चुनाव नहीं होते तब क्यों दलित की
पीड़ा, दलितों
का रुदन उनकी चीखें किसी को सुनाई नहीं देती? ‘मीनू’ का प्रश्न है:
‘‘एक चीख-/मजदूरों के बच्चों की/जो ललचा रहे हैं/अंग्रेजी स्कूलों में
पढ़ने को/इंसान बनने की ख्वाहिश में/फिर सुनाई देती है/एक चीख- /मोटी डोनेशन फीस न
जमा कर पाने की/बच्चों के मां-बाप की/अनसुनी चीख।’’ (वही पृ.- 77)
आज भी अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में, टी.वी चैनलों पर दलित से जुड़े मुद्दे कम ही देखने को मिलते हैं।
अम्बेडकर ने इन्हीं कारणों को ध्यान में रखते हुए दलितों को अपनी पत्रिकाएं
निकालने पर जोर दिया था। सर्वशिक्षा अभियान- सब पढे सब बढ़े का नारा क्यों दलितों
के द्वारा नहीं पहुंच पाता। कहने को शिक्षा आज किसी की बपौती नहीं रही पर कितने
प्रतिशत दलित आज सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाओं में उच्च पदों पर आसानी होते पाए
जाते हैं, यह प्रश्न विचारणीय हैं।
‘मीनू’ की बिम्बधर्मिता पर अच्छी पकड़ है। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बिम्ब भी
उनके यहां पूरी प्रखता और भास्वरता लिए हुए हैं। उदाहरणार्थ एक मार्मिक कविता-
‘मेरी मां कहती थी’ का उल्लेख करना चाहूंगा! इस कविता में एक मां की अपने बच्चे के
प्रति विवशता और उसकी विवशताओं के पीछे छिपे सत्य वर्चवस्वादी व्यवस्था पर
कुठाराघात के सामान है- मां की विवशता अपने बच्चे को न पढ़ा पाने की, विवशता, अपने बच्चे को पोषण आहार उपलब्ध न करा
पाने की, विवशता, अपने बच्चे से मजदूरी कराने की, विवशता, अपने बच्चे के इलाज के लिए अस्पताल न
ले जाने की.! पर कोई इनके कारणों की तह में नहीं जाना जाता। कारण- ‘मीनू’ जिन
कारणों को उक्त कविता में रखती हैं :
‘‘कैसे भेजती तुझे स्कूल?/खानाबदोश/जिन्दगी में/कहां थे/सरकारी स्कूल?/क्या में दे पाती/प्राइवेट स्कूलों की
मोटी फीस?/मजदूरी
नहीं/कराती तो क्या करती?/कैसे भरता/हम सब का पेट?/और तू क्या/करता खाली समय में?/मेरे पास बनिये/की तरह नहीं थी दुकान/जहां तुझे/लगा देती /कैसे ले
जाती/तुझे अस्पताल?/मेरे पास कहां/थी मोटी फीस डॉक्टरों को देने को?/और कहां बचे थे/सरकारी अस्पताल?/हां, तुझे रस्सी/से नहीं बांधीती,/तो क्या करती,/क्या तुझे छोड़ देती-/मरने को
मोटर गाड़ियों से/पिल्लों की तरह!’’(वही, पृ.- 72)
‘मीनू’
के यहां कविताएं विमर्श की तरह आती हैं जो संवाद के लिए प्रेरित करती है। संवाद
जिसमें प्रजातंत्र के प्राण बसते हैं। इसकी विशेषता है कि ये मार-काट नहीं मचाते, बल्कि मानवाधिकार के प्रश्न उठाते हैं
और जहां-जहां मानदण्ड दोहरे हैं, सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक विडम्बनाएं हैं उसे उजगार करते हैं। हर तरह
के भेदभाव- भूख-गरीबी-अपमान-जाति-धर्म-नस्ल-विकलांग-प्रकृति-स्त्री-वृद्ध-बच्चे
सबको अंकवार लेता है।
आदिवासी-विमर्श
: मुक्ति का पहाड़ा
“धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भारतीय दर्शन की आधारशिला है।’’(वंदना टेटे/वाचिकता/ पृष्ठ-
10) भारतीय समाज में अपना-अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए, सत्ता बनाए रखने के लिए तीनों
शक्तियों- वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी के दर्शन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पर बल दिया जाता रहा है। पर आदिवासी समाज में ‘अर्थ’ को लेकर वो
अवधारणा देखने को नहीं मिलती। जल-जंगल और जमीन का सम्बंध उनके अस्तित्व से ऐसे
जुड़ा मानों उनके बीच नाभिनाल वाला सम्बंध हो। वो प्रकृति से भी उतना ही लेना चाहते
हैं, जितना
उनके लिए आवश्यक है।” ‘‘आदिवासी दर्शन को नकारने के पीछे उनकी राजनीतिक मंशा यही
है कि आदिवासियों के पास अपना कोई जीवन-दर्शन नहीं है। वह आदिम और एक पीछड़ा हुआ
समाज है।” ( वही, पृ.-9) जहां तक आदिवासी की संस्कृति और दर्शन की बात की जाए तो
कहा जा सकता है कि जितने भी धर्म हैं कि उन सभी धर्मों के धार्मिक ग्रंथ हैं
किन्तु आदिवासियों का कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं वह तो आज भी ‘वाचिकता’ पर ही निर्भर
है। आदिवासी प्रकृति को देवी धरती को देवता और पशु-पक्षियों को अपने घर का सदस्य
मानते हैं । और इसका दोहन करने वाले, इसकी
तस्करी करने वाले उन्हें शत्रु लगते हैं।
ऐसे में ये उनका विरोध करते हैं। और खुद नक्सल, अलगाववादी का तमगा ले बैठते हैं तो आज भी उन्हें असभ्य, अनगढ़ और राक्षस-असुर-दानव कह उन्हें ‘मनुष्य’
मानने से भी इंकार करते हैं।
रजत रानी ‘मीनू’ की संवेदनशीलता
दलित-मजदूर-किसान के साथ आदिवासी समाज से भी है। यह कविता आदिवासी समाज के
वास्तविक यथार्थ के साथ आदिवासी समाज में विस्थापन, अशिक्षा, अपमान एवं विकास का सपना दिखाकर आदिवासी समाज के शोषण से जुड़े कई
सार्थक प्रश्न उठाती हैं। सर्वप्रथम ‘आदिवासी’ नामक कविता में सहानुभूति और
स्वानुभति का प्रश्न भी ‘मीनू’ उठाती है-
‘‘तुम मुझ पर/कभी कविता लिखते हो/तो कभी कहानी/और कभी
उपन्यास/पत्र-पत्रिकाओं में/पाते हो कवरेज-/कभी तुमने मुझसे पूछा-/कि मुझे और/मेरे
बच्चों को क्या चाहिए?’’
(पिता भी होते हैं माँ/रजत रानी ‘मीनू’ /पृ.-117)
एक प्रेक्षक और एक भोक्ता में
भोक्ता का अनुभव ज्यादा प्रामाणिक होगा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। पर’
मीनू’ यहां प्रेक्षकों पर सवाल खड़ा करती हैं कि वे कभी भोक्ता से पूछते हैं। यह
बात सच है कि आदिवासी समाज का मुयाना किये बना उनके दुख का हिस्सा हुए बिना अगर
कोई रिपोर्ट करता है तो उसकी प्रामाणिकता भी संदिग्ध ही होगी। जिसके खतरे भी हैं।
आज विकास का सपना दिखाकार आदिवासी समाज में जिस तरह की लूट और खसोट देखने को मिल
रही है उससे तो यही लगता है कि आदिवासी केवल अब ‘गणतंत्र दिवस’ पर नुमाइश के लिए
ही रह गए। जैसा कि रजत सवाल उठाती हैं-
‘‘कभी जंगल/बचाओ के नाम पर/तो कभी/कोयला खदानें बचाने के नाम पर-/अब
तो तुमने हद ही पार कर दी/शहरी व विदेशी/पर्यटकों के लिए/मुझे ही बिठा
दिया/घास-फूंस का/नकली घर बनवा कर/लगा दी मेरी ही नुमाइश/अमूर्त वस्तुओं की तरह।’’
(वही /पृ.-
117)
क्यों ‘‘शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, संचार आदि क्षेत्रों में आदिवासी सबसे पिछड़े हैं। वर्तमान में तो उनका अस्तित्व ही घोर संकट पड़ गया है। औद्योगीकरण, बांध परियोजना, हाइवे, रेल लाइन, फौजी चांदमारी रेंज, अभयारण्य, यहां तक कि फिल्म सिटी, गोरे गांव, मुम्ब्ई और न जाने किस-किस नाम से आदिवासियों का विस्थापन और पलायन हो
रहा है। सूचना है कि करीब एक करोड़ आदिवासी पुश्तैनी जल-जंगल-जमीनों से खदेड़े-उखाड़े
गये। आदिवासियों ने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए जंगली जीवन स्वीकारा, अब वे फुटपाथी और भिखमंगे बनाए जा रहे
हैं।’’ (आदिवासी समाज/सम्पा.- रमणिका गुप्ता/पृ.- 70)रजत अपने कांधे सवाली
प्रत्यंचा हमेशा ही थामें रहती हैं जो बाण बन कभी भी छूट सकते हैं कर सकते हैं
वर्चस्ववादियों के वर्चस्व को नेस्तनाबूद :
‘‘मैंने नहीं जानी/आजादी क्या होती है?/मेरी स्त्रियां रहती हैं/अभी भी अर्धनग्न/जबकि विदेशों/को निर्यात
करते हो/तुम वस्त्रों को/मेरे बच्चे घूमते हैं/जानवरों की तरह/जानवरों के
बीच/…चिड़ियां, चूहा खाकर जीते हैं।’’ (वही, पृ.- 118)
‘मीनू’ यहां सार्थक प्रश्न
उठाती हैं। क्या वजह है कि आज तक आदिवासी समाज हाशिए का जीवन जीने को विवश हैं?
इक्कीसवीं सदी का विकास मॉडल उनकी दुनिया से गायब है? विकास का सपना दिखाकर जिस तरह आदिवासी
जल-जंगल और जमीन का दोहन किया जा रहा है वह विचारणीय है। आदिवासी समाज के पुरुष ही
नहीं महिलाएं भी श्रम में अपना योगदान देती हैं- सूप बुनना, सुत कातना, झाड़ू बनाना, पत्तल बनाना पर वह बाजार पहुंच जाते
हैं पर उनके श्रम का मूल्य आदिवासी समाज और बाजार के बीच की दूरी तय करने में ही
खत्म हो जाता है। उन्हें उचित मूल्य क्यों नहीं मिलता। आदिवासी समाज की की
कवयित्री निर्मला पुतुल के यहां श्रम से जुड़े बड़े सार्थक प्रश्न हैं-
‘‘तुम्हारे हाथों के बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारों/पर हजारों
पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट।’’
(निर्मला
पुतुल/नगाड़े की तरह बजते शब्द/पृ.- 12)
× × ×
‘‘क्या तुम्हें पता है कि जब कर रही होती हो तुम दातुन/तब तक कर चुके
होते हैं सैकड़ों भोजन-पानी/तुम्हारे ही दातुन से मुंह-हाथ धोकर?’’ (वही, पृ.- 12)
आदिवासी समाज की इस दुर्दशा या उसकी उपेक्षा की चाहे जो वजह रही हो पर
आज भी सरकार से आदिवासी समाज- विमुक्त-घुमन्तु जनजातियों के सम्बंध में उनका जवाब
रहता है, ‘यह
तो बहुत बड़ा मसला है। हमें इसके बारे में नहीं मालूम।
काव्य-भाषा,
शिल्प और शैली : एक तरह की सविनय अवज्ञा
रजत रानी ‘मीनू’ की भाषा सही मायने में लोकतांत्रिक और जनभाषा है-
गली-मुहल्ले में बोली जाने वाली चटक रंगदार बोलचाल की भाषा! जहां मुहावरे, कहावतें जीवन की विडंबनाओं के
कांधे कभी उलाहने बन जाते हैं तो कभी अपनी
बात मनवाने की जिरह करती, आतताइयों को
सोचने और हृदय परिवर्तन के लिए विवश:
‘याद है मुझे वे सहेलियां/ जो कहती थीं/
तू चमार तो लगती नहीं, और मैं सोचती थी,/यह लगना क्या है?”
( पिता भी तो होते हैं माँ/रजत रानी मीनू/ पृ.-183)
‘मीनू’
जाति-धर्म-ऊंच-नीच की दीवारों को लांघती-फलांगती समता, स्वतंत्रता रूपी बहार लाने का सारा उत्तरदायित्व
अपनी जनतान्त्रिक भाषा पर डालती हैं। यानी भाषा ही यहां अस्त्र बन जाता हैं। भाषा
से सविनय अवज्ञा का काम लेती हुई वे सामने
वाले में परिवर्तन लाने का, आतताईयों की आंखें खोलने में विश्वास रखती हैं और यह मानकर चलती हैं
कि दलित स्त्रीवाद की सफलता इसी में हैं कि वे रक्त का एक कतरा बहाए बिना सकारात्म बदलाव घटित करें!
कविता के शिल्प की बात की जाए तो कहना न होगा जिस तरह पहाड़ों, नदियों, और झरनों का कोई शिल्प नहीं होता, पर उनकी उपस्थिति ही जीवन होती है, उनके
बिना जीवन संभव नहीं! ठीक ‘मीनू’ की कविताओं का कोई शिल्प नहीं पर पहाड़ों-सी
स्थिरता और गंभीरता दोनों ही यहाँ लक्ष्य किये जा सकते है- भूख, गरीबी,
अशिक्षा, कुरीतियाँ, असमानता और
अंधविश्वाश यहाँ दूर-दूर तक पसरे हुए हैं जो कविता में स्थायी भाव की तरह
अंतर्निहित हैं! जिसके प्रति जिरह या कहें जिससे मुक्ति के लिए ‘मीनू’ कविता का
रास्ता अख्तियार करती हुई ‘मानव-मुक्ति’ के रास्ते तलाशती हैं!
शिल्प की विविधता ही इन कविताओं की विशिष्टता है पर ये हमारी धड़कती
हुई विरासत का हिस्सा इस मायने में हैं कि इन कविताओं में आए विषयी-बिम्ब उस जगत
की यात्रा करवाते हैं जहां सही मायने में बहिष्कृत भारत की बड़ी आबादी बस्ती है-
‘मीनू’ की कविताओं से गुजरते हुए ये बराबर एहसास होता है कि अपने धर्म
से विलग कुछ लिखना उचित नहीं समझतीं- दलित-पीड़ित-किसान-मजदूर-बलश्रमिक परेशानहाल
ही उनकी कविता के स्थायी बिम्ब बनते हैं। शैली कहीं मारक है- तो कहीं शांत गति से
हैम्योपैथी दवा की तरह अंतस्थ में उतरती हुई जीवन जगत् की विडम्बनाओं को झपाके से उजागर करती हैं।
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ऋत्विक भारतीय
दिल्ली विश्वविद्यालय में सीनियर फ़ेलो।
ईमेल- ritwikbharatiya.55@gmail.com