चंदन पांडे का उपन्यास `वैधानिक गल्प’ आज के भारत के उस पहलू को सामने लाता है जिसमें
वैधानिक और अवैधानिक यानी कानूनी और गैरकानूनी के बीच का फर्क मिटता जा रहा है। दूसरे
शब्दों में कहें तो गैरकानूनी को कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। और ऐसा होने में
वैधानिक संस्थाओ- खासकर पुलिस – का भी इस्तेमाल हो रहा है और मीडिया- अखबार एवं
टीवी चैनलों- की भी इसमें सक्रिय साझेदारी है। इस कारण भारत में नागरिकता अवधारणा पर भी लगातार
चोट और प्रहार किए जा रहे हैं। भारतीय नागरिक की पहचान उसकी जाति या मजहब से
किए जाने पर बल बढ़ रहा है।
हालांकि ऐसा
नहीं था कि ये सब पहले नहीं था। लंबे समय तक भारतीय समाज में व्यक्ति की पहचान इस बात
से होती रही कि वो किस जाति या धर्म का है। लेकिन जब आजादी की लड़ाई के दौरान
जाति-मजहब मुक्त भारतीयता की अवधारणा विकसित हुई और स्वतंत्रता के बाद जब भारत में
संविधान लागू हुआ तो सभी भारतवासियों को भारतीय होने की औपचारिक पहचान मिली।
हालांकि व्यवहार के स्तर पर पहचान की पुरानी रिवायतें भी कायम रहीं लेकिन कानूनी
स्तर पर नहीं।
लेकिन राजनैतिक दलों के बीच बढ़ती सत्ता की लड़ाई की वजह से पुरानी
पहचानों पर फिर से जोर बढ़ रहा है। अब तो राम बनाम परशुराम की बात भी सामने आ रही
है। पिछले कुछ बरसों से भारतीय संविधान-प्रदत्त
पहचान को मिटाने की कोशिश की जा रही है, हालांकि राज्य द्वारा औपचारिक स्तर पर
संविधान की रक्षा का संकल्प भी दुहराया जा रहा है लेकिन व्यवहार में संवैधानिक मूल्यों को मिटाने का सिलसिला भी चल
रहा है। `वैधानिक गल्प’ इसी सिलसिले को चीन्हने में हमारी मदद करता है।
और ये जानने में भी कि कैसे राजसत्ता में अवैधानिक तत्व घुसपैठ करते जा रहे हैं।
उपन्यास रफ़ीक़ नील नाम के किरदार के इर्दगिर्द
रचा गया है। नाम से साफ़ है कि वो मुस्लिम है। वो उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के
नोमा नाम के कस्बे के एक कॉलेज में हिंदी पढ़ाता है। मध्य कालीन भक्ति काव्य और
तुलसी भी। पर अस्थायी शिक्षक है और लंबे वक्त से काम करने के बावजूद स्थानीय
राजनीति की वजह से उसे स्थायी नहीं किया गया है। नोमा के कुछ लोग ये भी चाहते हैं
कि रफीक क़ॉलेज और नौकरी छोड़ दे।
रफ़ीक़ अध्यापन के अलावा नाटक
भी करता है। नुक्कड़ नाटक भी। उसकी नाट्य मंडली में उसके कॉलेज के कुछ विद्यार्थी हैं, जिनमें लड़किया भी शामिल है । एक दिन रफ़ीक़
गायब हो जाता है। रफ़ीक़ ने अनसूया नाम की लड़की से अंतर्धामिक शादी की है। उसके गायब होने पर अनसूया अपने पुराने मित्र और
दिल्ली में रहनेवाले अर्जुन को फोन करती है। अपनी पत्नी के कहने पर अर्जुन
अनसूया से मिलने नोमा पहुंचाता है तो पाता है कि इस कस्बे में रफ़ीक़ के गायब होने
के किस्से बनाए गए हैं। चूंकि रफ़ीक़ के अलावा उसकी नाट्य मंडली में
सक्रिय और उसकी छात्रा जानकी भी गायब है, इसलिए पूरे मसले को `लव जिहाद’ बताया जा रहा है। कुछ लोग इसे `लव-त्रिकोण’ भी कहते हैं जिसमें रफ़ीक़. अनसूया और जानकी को
शामिल किया जाता है। पुलिस भी इसी किस्से को प्रचारित करने में लगी है और उसे न
रफ़ीक़ को ढूंढ़ने में दिलचस्पी है और न इस बारे में रपट (एफआईआऱ) लिखने में। नोमा
का दारोगा रफ़ीक़ को ढूंढने के बजाए उसके
बारे में प्रचलित किए जा रहे किस्से को
ढूंढकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता
है। अखबार वाले भी इसी किस्से को दुहराते- तिहराते हैं और ये नहीं लिखते या छापते
कि रफ़ीक़ गायब है। उनमें प्रकाशित समाचारों का भी जोर इस बात पर है कि रफ़ीक़ के
साथ जानकी फरार है। यानी एक बनानटी किस्सा हकीकत पर चेंप दिया जाता है और एक फरेबी
हकीकत तैयार किया जा रहा है। फेक न्यूज गांव गांव में पहुंच गया है।
अर्जुन के बारे में भी ये फैलाया जाता है कि वो
नोमा रफीक को ढूंढने नहीं अपनी पुरानी प्रेमिका, एक्स गर्लफ्रेंड, अनसूया से मिलने
आया है। नोमा के ताकतवर लोग, जिनमें पैसेवालों
से लेकर प्रशासन से जुड़े व्यक्ति शामिल हैं, बतौर लेखक अर्जुन का स्वागत
सत्कार भी करते हैं लेकिन सूक्ष्म तरीके से धमकी भी देते रहते हैं कि ज्यादा मत फैलो और जल्दी दिल्ली लौट जाओ, नोमा
में रहने की जरूरत नहीं है। अर्जुन ने अपने नोमा आने को
लेकर फेसबुक पर जो एक निहायत ही अहिंसक-सा
पोस्ट लिखा है उसके बारे में भी उससे कहा जाता है इससे शहर की इज़्ज़त खराब की जा रही है। मतलब पोस्ट हटा लो।
रफ़ीक़ (और जानकी) को खोजने
या उनका अता-पता मालूम करने के क्रम में अर्जुन के मन में ख़याल आता है- ` ..रफ़ीक़ का पता लगाने के साथ हमसे उसके जीवन पर
रच दी गई कहानियों का जाला साफ़ करना कभी संभव हो पाएगा ? उसकी डायरी, नोट्स, पटकथाएं सब सच बतला रही थीं
लेकिन सबकी पहुंच से बाहर अख़बार थे, पुलिस थी, मोर्चा था, नरमेधी महत्वाकांक्षाएं
थीं।‘
`नरमेधी महत्तवाकांक्षाएं’। ये किसकी हैं? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने में ज्यादा परिश्रम
नहीं करना होगा। आए दिन भारतीय समाज में ऐसी घटनाएं हो रही हैं जो ये बताती हैं
नरमेधी महत्वाकांक्षांए किसकी हैं। आखिर क्यों किसी अल्पसंख्यक समुदाय के शख्स को गोमांस रखने या बेचने के फर्जी आरोप में
मार दिया जाता है? आखिर
क्यों देश के अलग अलग हिस्सों में `मॉब लिंचिंग’ यानी समूह द्वारा हत्या के वाकये हो रहे हैं? बलात्कार
के आरोपियों के पक्ष में जूलूस निकाले जाते हैं, क्यों? ये सब नरमेधी महत्वाकांक्षा नहीं तो और क्या है? क्या रफ़ीक और जानकी इनके ही शिकार नहीं हुए? ये महत्वाकांक्षाएं सिर्फ हत्याएं नहीं करातीं
बल्कि चरित्र हनन भी करती या कराती हैं। इसीलिए तो रफ़ीक़ के साथ जानकी के चरित्र हनन का सामूहिक प्रयास भी हो रहा है।
ऐसा अर्जुन देखता और अनुभव करता है।
अर्जुन के नोमा पहुंचने के
बाद रफ़ीक़ की नाट्य मंडली के दो और सदस्य भी गायब हो जाते हैं। रहस्य धीरे धीरे और गहराता जाता है कि आखिर वो
कौन सी शक्तियां हैं जिनके कारण नोमा में लोग,या यों
कहें कि संस्कतिकर्मी, गायब हो रहे हैं।
क्या उनको सुनियोजित तरीके से गायब करवाया जा रहा है? या वे खुद ही किसी कारण – भय या दबाव से- ऐसा कर
रहे हैं? ये ताकत किसकी है? क्या
किसी राजनैतिक दल की या दल के भीतर उभरे किसी गुट की? `वैधानिक गल्प’ यही सब सोचने की तरफ ले जाता है।
उपन्यास भारक में उभरते
प्रछन्न राज्य ( अग्रेजी में `डीप स्टेट’) की तरफ भी संकेत करता है जिसमें पुलिस, प्रशासन, मीडिया और
दूसरी ताकतवर शक्तियां मिल कर राजनैतिक बदलाव की आकांक्षा लिए हर चाहत या कोशिश को
तुच्छ बना देते हैं, उनको बदनाम करते हैं और एक दूसरा जाली किस्सा गढ़कर मूल मसले को दूसरी दिशा में मोड़ देते हैं।
रफ़ीक़ तो सिर्फ नाटक करता है। लेकिन प्रछन्न राज्य चलाने वालों को ये भी पंसद
नहीं आता। आखिर रफ़ीक़ अपने नुक्कड़ नाटक में किस मसले को उभार रहा है जो कुछ
लोगों को नापसंद है? इस प्रश्न का उत्तर
जानने के लिए कोई शोध नहीं करना पड़ेगा। सब सामने है।
देश में प्रशासनिक स्तरों पर
ही नहीं कुछ राजनीतिक दलों के भीतर भी ऐसे
संगठनों का वर्चस्व बढ़ा है जो जिनका अपना हिंसक एजेंडा है। ये भीतरी संगठन
राजनैतिक दलों को भी नियंत्रित करने में लगे हैं। `मंगल मोर्चा’ एक ऐसा ही संगठन है। इस मोर्चे की नोमा इकाई शहर
में दोल मेले का आयोजन करती है। इस स्थानीय इकाई पर शहर
के एक रसूखदार और धनी शख्स सुरेंद्र
मालवीय उर्फ दद्दा का वरद हस्त है। दद्दा की अपनी राजनैतिक आकांक्षाएं हैं। उनका बेटा
अमित मालवीय उन आकांक्षाओं की पूर्ति में लगा है। इसी कारण नियाज नाम के एक शख्स की, जो अल्प संख्यक
समुदाय का है, हत्या की योजना बनाई जाती है। भीड़ द्वारा हत्या कराने की योजना।
अमनदीप सिंह नाम का पुलिस अधिकारी, जो सिख है, नियाज की जान बचाता है तो उसे
आर्थिक गबन के आरोप में निलंबित कर दिया जाता है। रफ़ीक़ नियाज के साथ हुए प्रकरण को लेकर ही एक नुक्कड़ नाटक कर रहा था। और यही
बात मालवीय परिवार को पसंद नहीं आई थी क्योंकि
इससे मालवीय परिवार की राजनैतिक आकांक्षाएं पूरी होने से रह गईं। रफ़ीक़ की
डायरी में दर्ज है- `एक व्यक्ति को भी
अगर यह नाटक किसी हत्यारी भीड़ के विरुद्ध खड़ा कर सका, हमारा ध्येय सफल होगा’।
इस डायरी से और भी राज़ खुलते हैं और रहस्य पर से पर्दे उठने लगते
हैं। इसमें अमनदीप सिंह एक जगह कहता है- `जिसे हम लोग या कम से कम मैं एक मामूली घटना
मानकर बैठा था वह आज की तारीख में उभरती एक समानांतर व्यवस्था है। ये दूसरी ही
दुनिया के लोग हैं। पुलिस के समानांतर इनके पास गुंडे हैं। ख़ालिस अपराधी। पहले ये
सत्ता सारी हत्याएं पुलिस से कराती थी अब पुलिस वाले इनके लिए दूसरा निमित्त हैं।‘ इसी डायरी में अमनदीप के हवाले से ये प्रसंग भी
खुलता है `.. एक बात ये सुनने में आई है कि मोर्चा (यानी
मंगल मोर्चा) की राज्य स्तरीय बैठक
में दद्दा के बेटे अमित मालवीय की और उसके हरामखोर गैंग की खिंचाई हुई है। इस बात
पर हुई है खिंचाई कि एक विधर्मी तो तुमसे मारा नहीं जाता और चाहिए दद्दा को लखनऊ,
दिल्ली का टिकट?
उस समीक्षा बैठक के बाद इन लोगों ने मेरा निलंबन
कराया है। ये पुलिस को ही संदेश दे रहे हैं।‘
कौन हैं जो पुलिस को ये संदेश दे रहे हैं कि विधर्मियों को मारो। ये `मंगल मोर्चा’ जैसी समानांतर संस्थाएं हैं जो ये तय करती हैं
कि किसको विधानसभा या लोकसभा का टिकट मिले। `प्रछन्न राज्य’ (डीप स्टेट) का जो उदय भारतीय राजनैतिक मानचित्र
पर हुआ है वो सिर्फ राज्य की संस्थाओं तक सीमिति नहीं है बल्कि राजनैतिक दलों के
भीतर भी पसरता गया है। वहां भी राजनैतिक प्रक्रिया के तहत
चुनावी टिकट नहीं दिए जाते बल्कि उनके भीतर जन्मी और उनके द्वारा पालित-पोषित समानांतर संस्थाओं की सहमति और स्वीकृति से
बांटे जाते हैं।
पुलिस और प्रशासन पर भी ऐसी
समानांतर संस्थाओं का दबाव बढ़ा है। औपनिवेशिक काल में जन्मी भारतीय पुलिस तो वैसे
भी पूरी तरह से जनपक्षी नहीं रही। और अब तो उसके ऊपर अपने राजनैतिक आकाओं के अलावा
इन समानांतर संस्थाओं का दबाव भी है जिससे उसके भीतर क्रूरता के तत्व बढ़ रहे हैं।
आकस्मिक नहीं कि रफ़ीक़ की पत्नी अनसूया के साथ स्थानीय पुलिसवाले का व्यवहार इस
तरह का है –` उस नीच, माफ़ कीजिए नीचे बैठे पुलिस वाले ने
अपना रोल उठाया जिसके निचले सिरे पर गीली मिट्टी लगी थी और ड्रिल करने के उसी
अंदाज में अनसूय़ा के पेट में चुभा दिया, घुमाने लगा और अक्षरों को चबा- चबा कर `पूछा, कितने महीने का है?’
साहित्य से, खासकर उपन्यास से, ये अपेक्षा की
जाती है वो अपने समय और समाज का साक्ष्य बने। हालांकि इस बात को लेकर भी पर्याप्त
बहस है कि ऐसा वो, यानी उपन्यास, किस तरह करे क्योंकि साक्ष्य होने की कोई एक
निश्चित और सर्वमान्य प्रक्रिया नहीं है
और न ही कोई सर्वस्वीकृत परिभाषा। पर फिलहाल अगर हम परिभाषाओं के गुंजलक
में ना फंसे, तो ये कहना पर्याप्त होगा कि `वैधानिक गल्प’ हमारे
समाज में जो हो रहा है उसके एक अंश का
गवाह है। ये तो लगातार महसूस किया जा रहा है कि भारतीय लोकतंत्र पिछले कुछ समय से
अपनी लोकतांत्रिकता खोता जा रहा है। उसमें अलोकतांत्रिक प्रक्रियाएं तो काफी पहले
से पनप रही थीं लेकिन पिछले कुछ बरसों में ये प्रक्रिया तेजी से बढ़ी है। `वैधानिक गल्प’ उस तेज होती प्रक्रिया को चिन्हित करनेवाली रचना
है।
पर इन पहलुओं से अलग एक और पक्ष को रेखांकित करना आवश्यक है। रफ़ीक़
की डायरी से लगता है कि उसकी नाट्य मंडली यून फोस्से के लिखे नाटक करने का मन बना रही थी।
नॉर्वेजियन नाटककार यून फोस्से सामाजिक समस्याओं से जुड़े नाटक नहीं लिखते। जैसा
कि उनके बारे मे प्रचारित है, वो वैयक्तिक स्मृतियों और प्रश्नों को उठाते हैं।
ईसाइयत, खासकर कैथोलिक मत, का उनके ऊपर गहरा
प्रभाव है और उनके नाटकों उस तरह का प्लॉट नहीं होता जैसा कि भारत में, या
इंग्लैंड- अमेरिका के रंगमंच में, अमूमन होता है। यही वजह है कि इंग्लैंड और
अमेरिका में भी उनके नाटक बहुत कम खेले गए हैं यद्यपि बाकी यूरोप में वे खासे
लोकप्रिय हैं। फिर रफ़ीक़ या उसकी मंडली फोस्से के नाटक क्यों करना चाहती है? हालांकि रफ़ीक़ की डायरी में इसका कारण ये बताया
गया है कि उसके नाटक में, विशेषकर `द गर्ल ऑन सोफा, में
निर्देशकीय स्कोप बहुतायत में है। पर ये
कोई विश्वसनीय तर्क नहीं लगता है, ये मानने के बावजूद कि कोई कलाकार किसी अन्य देश
या भाषा के किसी ऐसे लेखक से प्रभावित या प्रेरित हो सकता है जो उसकी अपनी
राजैनैतिक सोच से अलग हो। इसलिए रफ़ीक़ या उसकी नाट्य मंडली का फोस्से-प्रेम
प्रश्नांकित तो नहीं किया जा सकता लेकिन ये पाठक को खटता जरूर है और `दूर की कौड़ी’ जैसा लगता है।
आखिर में, प्रसंगवश, ये बता देना भी
जरूरी है कि लेखक ने इस उपन्यास को उत्तराखंड के एक पुलिस अधिकारी गगनदीप सिंह को
समर्पित किया है। गगनदीप सिंह वो शख्स हैं
जिसने 2018 में उत्तराखंड में अल्पसंख्यक समुदाय के एक युवक को हत्यारी भीड़ से
बचाया था। इसे लेकर उनकी सराहना भी हुई थी लेकिन एक राजनैतिक दल से जुड़े कुछ
लोगों ने उसकी इस काम के लिए आलोचना भी की थी।
उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि अमनदीप सिंह का चरित्र कहीं न कहीं इन्हीं
गगनदीप सिंह से प्रेरित है।