बीसवी
सदी भारतवर्ष को कई उपलब्धियों से सुषोभित कर गई जिनमें एक थी रवीन्द्रनाथ और
महात्मा गांधी के रूप में साहित्य और राजनीति का मणिकांचन योग। प्रसिद्ध निबंधकार
कुबेरनाथ राय के षब्दों में कहें तो विष्व इतिहास की अदालत में रवीन्द्रनाथ ने
भारत की साहित्यिक महिमा को उपस्थित किया तो महात्मा गांधी ने विष्व इतिहास की
अदालत में अपने व्यापक और सहज जीवन के द्वारा भारत की आत्मा का प्रकटीकरण किया
दोनों ही एक-दूसरे के प्रति इतने श्रद्धावनत रहे कि रवीन्द्र गांधी को ‘महात्मा’ तो गांधी रवीन्द्र को ‘गुरूदेव’ कहते रहे। बावजूद इसके दोनों में कुछ
वैचारिक टकराव भी होते रहे।
सर्वविदित है कि लगभग बीस वर्षों तक
मोहन दास करमचंद गाँधी दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ रंगभेद, नस्लभेद के आधार पर गोरी सरकार द्वारा
किये जा रहे अन्याय, अत्याचार
के विरूद्ध सत्याग्रह-संग्राम चला कर न केवल भारतवर्ष, अपितु विष्व के प्रबुद्ध जनों के बीच
भी काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। उसी का परिणाम था कि 1915 में भारत आने के तुरंत बाद ही उनके
लिए जैसा कि धर्मपाल जी ने लिखा है, जैतपुर
में 21 जनवरी 1915 को किये नागरिक अभिनंदन में दिये गये
प्रषस्ति-पत्र में कदाचित पहली बार ‘महात्मा’ षब्द
का प्रयोग किया गया। तत्पष्चात उनके जहाँ-जहाँ भी नागरिक अभिनंदन हुए उनमें उनके
लिए ‘कर्मवीर महात्मा’ जैसी उपाधियों का प्रयोग होने लगा और
जो मोहनदास दक्षिण अफ्रीका में गाँधी भाई के रूप में जाने जाते रहे, वे अपने देष में ‘महात्मा’ के रूप में समाद्धृत होते गये। दूसरी
तरफ 1913 में न केवल प्रथम भारतीय अपितु प्रथम
एषियाई के रूप में नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर रवीन्द्रनाथ विष्व कवि के रूप में
समाद्धृत हो चुके थे। अपने-अपने कार्यों से ये दोनों ही एक दूसरे को सम्मोहित कर
रहे थे। यही कारण था कि जब नौ जनवरी 1915 को गाँधी दक्षिण अफ्रीका से अपने कई सत्याग्रही-साथियों के साथ भारत
आये तो वे उसी साल फरवरी महीने में करीब एक महीना तक अपने साथियों के साथ
रवीन्द्रनाथ के सान्निध्य में षांति निकेतन में ठहरे रहे। इस दौरान दोनों ही एक
दूसरे के कार्यों तथा विचारों को परखते रहे और अपने बीच एक सामान्य भारतीय मनोभूमि
एवं चित्तवृत्ति की उपस्थिति पाकर वे एक दूसरे के समीप होते गये। परस्पर वैचारिक
समरूपता का ही परिणाम हुआ कि गाँधी रवीन्द्र को ‘गुरूदेव’ कहने लगे तो रवीन्द्र गाँधी को ‘महात्मा’।
एक दूसरे के प्रति आदर-भाव से इतने
ओत-प्रोत होने के बावजूद न महात्मा ‘गुरूदेव’ के
अंध षिष्य बने रहे, न
रवीन्द्र ‘महात्मा’ के अंध भक्त। देषहित एवं विष्व हित से
जुड़े ऐसे कई मुद्दे थे जिन्हें लेकर दोनों में वैचारिक टकराव भी होते रहे। इनके
बीच जबर्दस्त वैचारिक टकराव तब सामने आया जब 1920 में गांधी ने पूरे देष में ब्रिटिष
षासन को अपदस्थ कर स्वराज्य लाने के लिए असहयोग आंदोलन छेड़ दिया। इस आंदोलन के
दौरान गांधी देष में घूम-घूम कर सरकारी नौकरियों तथा षिक्षण संस्थानों का परित्याग
करने, विदेषी वस्तुओं का बहिष्कार करने की
जोरदार गुहार लगाने लगे। परिणामस्वरूप उस समय देष के जाने माने मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास, राजगोपालाचार्य, वल्लभ भाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद जैसे बैरिस्टरों ने
वकालत छोड़ दी,
विद्यार्थियों ने सरकारी विद्यालयों
महाविद्यालयों का परित्याग कर दिया और जनता विदेषी वस्तुओं की होली जलाने लगी। ऐसे
कार्यों से विष्वकवि का चित्त उद्विग्न हो उठा और इसमें उन्हें अंधा राष्ट्रवाद या
संकीर्ण राष्ट्र प्रेम का जहर दिखाई पड़ने लगा। इसलिए महाकवि ने कोलकाता के
यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट हाॅल में 29
अगस्त 1921 को अपना लम्बा उद्बोधन दिया जो ‘सत्य का आहवान’ ;ज्ीम बंसस व िज्तनजीद्ध नाम से ‘मार्डन रिव्यू’ नामक पत्रिका के अक्टूबर अंक में भी
छपा। इस लेख में रवीन्द्रनाथ ने भारत की दीर्घकालीन सहिष्णुता, तितिक्षा, उदात्तता की परम्पराओं का उल्लेख करते
हुए विदेषी वस्तुओं को जलाने जैसे कार्य को अंध राष्ट्रवाद का लक्षण बताया, गाँधी द्वारा मषीनों के बदले चरखे को
अपनाये जाने के तर्क को अव्यावहारिक, प्रगतिविरोधी बताया अर्थात् रवीन्द्र गांधी की असहयोग-रणनीति से पूरी
तरह सहमत नहीं थे।
लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि वे
गाँधी को धिक्कारने लायक समझते थे। उसी लेख में गाँधी के प्रति उनके जो उदात्त
भावोद्गार प्रकट हुए हैं वे देखने लायक हैं-‘‘आज देष में जो आंदोलन चल रहा है वह बंग
विभाजन के आंदोलन से बहुत बड़ा है। उसका प्रभाव सारे भारतवर्ष पर पड़ रहा है। बहुत
दिन तक हमारे नेताओं ने अँग्रेजी षिक्षा प्राप्त लोगों के अतिरिक्त किसी की ओर
दृष्टिपात नहीं किया, उनके
लिए ‘देष’ नाम की वस्तु वही थी जो अँग्रेजी
इतिहास पुस्तकों में मिलती है। वह देष अंँग्रेजी भाषा की वाष्प से निर्मित एक
मरीचिका जैसा था। उस मरीचिका में बर्क, ग्लैडस्टन, मैंजिनी, गैरीबाल्डी की अस्पष्ट प्रतिमाएं ही
दिखाई पड़ती थी। उसमें प्रकृत आत्मयोग या देष के लोगों के प्रति यथार्थ सहानुभूति
नहीं थी। ऐसे समय महात्मा गाँधी भारत के कोटि-कोटि गरीबों के द्वार पर आकर खड़े
हुए। उन्होंने लोगों से उनकी अपनी भाषा में उनकी अपनी बातें कहीं। यह एक सत्य
वस्तु थी, इसमें पुस्तकीय ‘दृष्टान्त’ नहीं थे। इसलिए उन्हें जो महात्मा का
नाम दिया गया है वह सत्य नाम है। भारत के इतने लोगों को अपना आत्मीय समझनेवाला और
कौन है। आत्मा में जो षक्ति का भंडार है वह सत्य का स्पर्ष लगते ही उन्मुक्त हो
जाता है। जैसे ही सत्य, प्रेम
भारतवासियों के अवरूद्ध द्वार पर खड़ा होता है, वह द्वार खुल जाता है। चातुर्य पर
आधारित राजनीति वंध्या है-इस बात की षिक्षा हमारे लिए बहुत दिन तक आवष्यक रही है।
महात्मा के प्रसाद से आज हमने प्रत्यक्ष देखा है कि सत्य में कितनी षक्ति है।
लेकिन चातुर्य है भीरू और दुर्बल लोगों का सहज धर्म-उसका विनाष करना हो तो उसे जड़
से काटना पड़ता है। आजकल बहुत से बुद्धिमान लोग महात्मा के प्रयत्न को भी अपने
राजनीतिक खेल की गुप्त चालों में षामिल कराना चाहते हैं। उनका मन, जो मिथ्या से जीर्ण हो गया यह नहीं समझ
पाता कि महात्मा के प्रेम से देष के हृदय में जो प्रेम छलक उठा वह कोई अवान्तर चीज
नहीं है-उसमें ही मुक्ति है, उसमें
ही देष अपने आप को प्राप्त कर सकता है।’’
इसी आलेख में आगे चल कर रवीन्द्रनाथ यह
कहते हैं-‘‘महात्मा ने अपने सत्य-प्रेम से भारत का
हृदय जीत लिया है और इसके लिए हम सब उनकी श्रेष्ठता स्वीकार करते हैं। इस सत्य की
षक्ति को प्रत्यक्ष देखकर आज हम कृतार्थ हैं। चिरन्तन सत्य के बारे में पुस्तकों
में पढ़ते हैं,
उसकी चर्चा करते हैं, लेकिन जब उसे सामने देखते हैं वह हमारे
लिए पुण्य क्षण है। बहुत दिनों के बाद अकस्मात हमें यह सुयोग मिला है। काँग्रेस तो
हम रोज बना सकते हैं और भंग कर सकते हैं, भारत के प्रदेष-प्रदेष में अँग्रेजी भाषा में राजनीतिक भाषण देना भी
हमारे लिए सरल है, लेकिन
सत्य प्रेम का वह स्वर्णदंड जिसके स्पर्ष से सदियों के बाद चित्त जाग उठा, मोहल्ले की सुनार की दुकान में नहीं
बनता। जिनके हाथ में यह दुर्लभ वस्तु देखी उन्हें हम प्रणाम करते हैं।’’ (रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रतिनिधि निबंध, सं० डाॅ० कृष्ण दत्त पालीवाला, प्र० सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली)।
रवीन्द्रनाथ
के उपरोक्त षब्दों में गाँधी के युगान्तरकारी महत्व की जिस षालीनता, औदात्य के धरातल पर अभिव्यंजना हुई है, वह कुछेक असहमतियों के बावजूद गाँधी के
प्रति रवीन्द्र की गहरी संषक्ति का प्रमाण है। इसका यहाँ अलग से भाष्य करने की
जरूरत नहीं। गाँधी भी चुप नहीं बैठे रहे। उन्होंने ‘यंग इंडिया’ के 13 अक्टूबर 1921 के अंक में ज्ीम ळतमंज ैमदजपदमस (महान प्रहरी) नाम
से लेख लिखा जिसमें उन्होंने रवीन्द्र की राष्ट्रवाद तथा विष्वबंधुत्व को लेकर, चरखा तथा खादी को लेकर उठाई गई षंकाओं
का निराकरण करते हुए बताया कि कैसे चरखा को अपना कर करोड़ों भारतवासियों को रोजगार
दिया जा सकता है, आर्थिक
रूप से देष को स्वावलम्बी बनाया जा सकता है और स्वावलम्बन तथा स्वराज्य प्राप्त
करके ही भारत विष्वबंधुत्व को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभा सकता है। इसलिए
उन्होंने कवि से भी चरखा चलाने की अपील की। लेकिन इस लेख में रवीन्द्र से अपनी
असहमतियाँ दर्ज करने के पूर्व गांधी भी जिस षालीनता और औदात्य के धरातल पर
रवीन्द्रनाथ को याद करते हैं वह भी देखने लायक है-‘‘षान्ति निकेतन के गायक ने ‘मार्डन रिव्यू’ में वर्तमान आंदोलन पर एक बड़ा सुंदर
लेख लिखा है। वास्तव में यह षब्द-चित्रों की एक आकर्षक मालिका है जिसे केवल वे ही
गूँथ सकते थे। इसमें आप्तत्व के खिलाफ मानसिक दासता के खिलाफ-अर्थात् भय में आषा
से किसी की सनक का आँख मूँद कर अनुकरण करने को जिस नाम से भी पुकारा जाए, उसके खिलाफ एक जोरदार आवाज उठायी गई
है। वह हम सभी कार्यकर्ताओं को इस बात की याद दिलाता है कि हमें धीरज नहीं खोना
चाहिए, किसी पर जबर्दस्ती किसी का मत नहीं
लादना चाहिए चाहे वह कितने ही बड़े आदमी का कयों न हो। इस रूप में यह लेख कल्याणकर
तथा स्वागत करने लायक है। कविवर हमसे कहते हैं कि जो चीज बुद्धि या हृदय को ठीक न
लगे उसे तुरन्त अस्वीकार कर देना चाहिए। अगर हम स्वराज्य पाना चाहते हैं तो हमें
हर हालत में सत्य के उस रूप पर दृढ़ रहना चाहिए जिस रूप में हम उसे जानते हैं।
…………..मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि प्रेम के आगे आँख मूँद कर
आत्म-समर्पण कर देना अक्सर अत्याचारी के अत्याचार को लाचार होकर स्वीकार करने से
भी अधिक अनिष्टकारी सिद्ध होता है। जो अत्याचारी का गुलाम है उसकी मुक्ति की आषा
तो फिर भी है,
किन्तु प्रेम के गुलाम के लिए कोई आषा
नहीं है। प्रेम की उपयोगिता दुर्बलों में बल का संचार करने में है और उस दृष्टि से
वह जरूरी है, लेकिन जब प्रेम के कारण किसी बात में
विष्वास न करनेवाला व्यक्ति भी उसको मानने लगता है तो प्रेम अत्याचार हो जाता है।
किसी मंत्र का महत्व जाने बिना उसका जप करना पुरूषोचित नहीं कहा जा सकता। इसलिए
कविवर ने जो लोग चरखे की पुकार पर बिना सोचे-समझे अंधभाव से चल रहे हैं, उन सबसे विद्रोह करने को कहकर ठीक ही
किया है। हममें से जो लोग अधीर होकर अपने से भिन्न मत रखनेवालों के प्रति
असहिष्णुता या यहाँ तक कि हिंसा से भी काम लेते हैं, उन सबके लिए यह लेख एक चेतावनी है। मैं
कविवर को एक प्रहरी मानता हूँ, जो
हमें हठधर्मी,
बौद्धिक आलस्य, असहिष्णुता, अज्ञान, जड़ता और इसी तरह के अन्य षत्रुओं के
आगमन के खिलाफ आगाह कर रहा है।’’ (सम्पूर्ण
गाँधी वांगमय,
खंड 21, पृ० 308)
इन
दो महान विभूतियों की आपसी असहमति में भी एक दूसरे के प्रति जिस उच्च धरातल पर आदर
एवं सम्मान के भाव व्यक्त हुए हैं वही किसी की महानता के लक्षण होते हैं। वे दोनों
ही तत्कालिक आंदोलन की कार्यपद्धति को लेकर एक दूसरे से असहमत थे किन्तु एक दूसरे
के महत्व को स्वीकार करने में मानों दोनों एक दूसरे से होड़ कर रहे थे। ऐसी असहमति
के बावजूद दोनों के बीच संवाद का अनवरत सिलसिला चलता रहा। गाँधी चरखे के माध्यम से
जिस दैत्याकार मषीनीकरण का विरोध कर रहे थे, उससे रवीन्द्रनाथ पूरी तरह सहमत नहीं
हो पा रहे थे। जब फरवरी 1924
में जेल से रिहा किये जाने के बाद गाँधी फिर रचनात्मक कार्यक्रम के अन्तर्गत चरखे
एवं खादी के देष व्यापी प्रचार में पिल पडे तब फिर कविवर ने ष्ज्ीम ब्नसज व िजीम
ब्ींताींष् नाम से लेख लिखा जो ‘माॅडनी
रिव्यू’ 1925 के सितम्बर माह के अंक में छप कर
सामने आया। इसके प्रत्युत्तर में गाँधी ने ष्ज्ीम च्वमज ंदक जीम ब्ींताींष् नामक
लेख लिखा जो ‘यंग इंडिया’ के 05.11.1925 के अंक में छपा। यधपि इस बार चरखे के
प्रति कविवर के रूख में थोड़ी नरमी थी, किन्तु उसकी व्यवहार कुषलता को लेकर षंकाएँ जरूर थीं। गाँधी ने फिर
रवीन्द्रनाथ की षंकाओं का समाधान करते हुए चरखे को भारतवर्ष की गरीबी मिटाने तथा
ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के बीच समानता लाने का अमोघ
अस्त्र बताया। बहराल इन छोटे-मोटे मतभेदों के बावजूद दोनों के हृदय में एक दूसरे
के प्रति आदर एवं प्रेम का सागर लहराता रहा। इसी समय गाँधी जी द्वारा ‘मार्डन रिव्यू’ के संपादक रामानंद बाबू को लिखे पत्र
में रवीन्द्रनाथ के संबंध में उनका यह उद्गार देखने लायक है-‘‘एक सुधारक के नाते मैं उनका विरोध जरूर
करूँ, परन्तु उनके कवित्व का मुकाबला कौन कर
सकेगा ? आज दुनिया में बहुत सुधारक हैं, परन्तु कवित्व षक्ति में उनकी बराबरी
करनेवाला कोई नहीं है। उनके अन्य गुण कितने ही महान हों, तो भी उनकी कवित्व-षक्ति के साथ उनका
उल्लेख करने में तो मुझे ऐसा लगता है कि उनकी कविता की अप्रतिम प्रतिभा से इन्कार
किया जा रहा है।’’ (महादेव
भाई की डायरी खंड 6, पृ०
213, सर्व सेवा संघ प्रकाषन, वाराणसी)।
यहाँ
अवान्तर सी प्रतीत होनेवाली यह बात भी जानने लायक है कि रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई
द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर तो रवीन्द्र से भी अधिक गाँधी जी की महानता के कायल थे। वे ‘बड़ो दादा’ के रूप में जाने जाते थे। उम्र में वे
रवीन्द्र से लगभग बीस वर्ष बड़े थे और वेद, उपनिषद, गीता आदि के गहरे अध्येता थे। उनका 1925 में निधन हुआ था। वे गाँधी जी से किस
कदर अभिभूत थे,
इसका प्रमाण है उनका यह कथन-‘‘हम सब जानते हैं कि गाँधी काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर के कीचड़ से निकल कर बहुत ऊँची
भूमिका से अपना कार्य करता है। गाँधी में रणोन्मत्तता जैसी चीज नहीं है, वह तो अहिंसा का एकान्तिक सेवक है। वह
आवेष या नषे में एक भी प्रवृत्ति नहीं कर सकता। इसलिए ऐसे मनुष्य के मोहमुक्त, विषुद्ध साधुजनोचित सत्कार्य में
सर्वान्तः करण पूर्वक षरीक होन में ही श्रेय है। मेरा तो ध्रुव विष्वास है कि
गाँधी जैसा सौ टंच का सोना इस घोर कलिकाल में मिलना दुलर्भ है। इस सोने का व्यापार
क्यों न कर लें।’’ (महादेव
भाई की डायरी,
खंड सात, पृ० 27 सर्वसेवा संघ, वाराणसी)
चरखे
को लेकर रवीन्द्र गाँधी की सफलता के प्रति जरूर सषंकित थे, लेकिन देषहित के अन्य मुद्दों पर वे
गाँधी का खुलेमन से समर्थन करने में पीछे नहीं रहे। उल्लेखनीय है कि जब अगस्त 1932 में ब्रिटिष सरकार ने अस्पृष्यों को
पृथक निर्वाचन मंडल देने के निर्णय की घोषणा की तो गाँधी ने इसके प्रतिरोध में
आमरण अनषन की घोषणा कर डाली और 20
सितम्बर से यरवदा जेल में बंदी गाँधी ने आमरण अनषन षुरू कर दिया। गाँधी के इस अनषन
से पूरा देष हिल उठा। मदन मोहन मालवीय, राजगोपालाचार्य, राजेन्द्र
प्रसाद, तेज बहादुर सप्रु जैसे बड़े-बड़े नेता
यरवदा जेल से लेकर डाॅ० अम्बेडकर तक समझौता कराने के लिए दौड़ लगाने लगे। कविवर
रवीन्द्र भी षान्ति निकेतन में षांत नहीं रह सके। गाँधी के इस निर्णय से चमत्कृत
होते हुए उन्होंने अपनी जबर्दस्त आवाज गाँधी जी के उद्देष्य के समर्थन में पूना
पहुँच कर उठायी। पूना की एक सार्वजनिक सभा में कवीन्द्र रवीन्द्र ने कहा-‘‘आज हम युगों से चली आई दासता के उस बोझ
को जिसने मानवता का तिरस्कार किया, उन
झुकी हुई पीठों से उतारने में, जो
इस कालिमा के षिकार केवल अपने जन्म के कारण हुए, महात्मा जी के दिव्य कार्य में दृढ़
संकल्प होकर सहयोग दें। हम केवल भारत की नैतिक गुलामी की जंजीरों को ही नहीं तोड़
रहे हैं, बल्कि समस्त मानवता का भी पथ प्रदर्षित
कर रहे हैं। हम अन्याय को चुनौती दे रहे हैं, चाहे वह जिस रूप में जहाँ कहीं हो कि
वह हमारी अन्तरात्मा की उस चिरंतन पुकार का उत्तर दे, जो महात्मा जी ने हमारे जीवन में
प्रस्थापित की है।’’ (महात्मा
गांधी, पृ० 153 ले० आचार्य जे० बी० कृपलानी)।
रवीन्द्रनाथ
ने जिस ‘दासता के बोझ और ‘अन्तरात्मा की उस चिरंतन पुकार’ की बात कही उसका संबंध गांधी के उस
अस्पृष्यता उन्मूलन अभियान से था जिसे वे 1920 से ही राष्ट्रीय स्तर पर चला रहे थे।
इस क्रम में दक्षिण में कन्याकुमारी तक, पष्चिम में महाराष्ट्र, गुजरात तक तथा पूरब में ढाका-चटगांव तक अपने अस्पृष्यता उन्मूलन
अभियान को फैला चुके थे। इसी क्रम में उन्हें कई जगहों पर अस्पृष्यता को षास्त्र सम्मत
माननेवाले सनातनी सवर्ण हिन्दुओं के कड़ा प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, अपमान का गरल घूँट तक पीना पड़ा। इसी
अस्पृष्यता को आधार बना कर ब्रिटिष सरकार अस्पृष्यों का षेष हिन्दुओं से अलग द्वीप
बनाना चाहती थी जिसका गांधी जी ने आमरण अनषन करके विरोध किया और फिर बहुतों के
समझाने पर डाॅ० अम्बेडकर ने समझौता कर इस विभाजनकारी चाल को अप्रभावी होने दिया।
रवीन्द्र ने अपने इस वक्तव्य से गांधी के इस अस्पृष्यता विरोध को ही समर्थन दिया
था दरअसल गांधी के अस्पृष्यता उन्मूलन की मुहिम का जिस तरह कट्टरपंथी सवर्ण हिन्दू
विरोध कर रहे थे, वही
1934 में बिहार में भूकम्प से भीषण तबाही
होने के समय गांधी के इस क्षोभ के रूप में प्रकट हुआ था जब उन्होंने भूकम्प को
अस्पृष्यता के पाप का ईष्वर द्वारा दिया गया दंड बताया था। हालांकि गांधी के इस
वक्तव्य से रवीन्द्रनाथ ने अपनी असहमति प्रकट की थी और इसे ईष्वर प्रदत्त दंड न
मान कर भौगोलिक,
प्राकृतिक परिवर्तनों की उपज बताया था।
लेकिन बावजूद इसके दोनों के मन में मनोमालिन्य नहीं आया, न एक दूसरे की महानता को स्वीकार करने
में कमी आई। यहाँ द्रष्टव्य है रवीन्द्रनाथ द्वारा 2 अक्टूबर 1937 को गांधी जयन्ती के अवसर पर षान्ति
निकेतन मंदिर में दिये गये भाषण के कुछ अंष।
गांधी
से पूर्व के राष्ट्रीय नेताओं का स्मरण करते हुए रवीन्द्रनाथ ने कहा-‘‘प्रादेषिकता के जाल में फँस कर और
दुर्बलता से पराजित होकर जब हमारा पतन हुआ था, उस समय रानाडे, गोखले और सुरेन्द्रनाथ जैसे लोग जनसाधारण
को गौरव प्रदान करने के लिए महान उद्देष्यों को लेकर आये। उनके द्वारा आरम्भ की गई
साधना को आज एक महापुरूष ने अपनी प्रबल षक्ति से बड़ी तेजी के साथ, सफलता के मार्ग पर बढ़ाया है। उसी
महापुरूष की अर्थात् महात्मा गांधी की बातों को स्मरण करने के लिए हम आज यहाँ
एकत्रित हुए है।’’
इसी
उद्बोधन में रवीन्द्रनाथ ने अन्य राजनीतिक लोगों के साथ गांधी जी की तुलना करते
हुए कहा ‘‘पाॅलिटिषियन लोगों की चतुराई के लिए हम
उनकी प्रषंसा कर सकते हैं, लेकिन
भक्ति नहीं कर सकते। भक्ति तो हम कर सकते हैं महात्मा गाँधी की जिनकी साधना सत्य
की साधना है। मिथ्या के साथ समझौता करके उन्होंने सत्य की सार्वभौम धर्मनीति को
अस्वीकार नहीं किया। भारत की युग साधना के लिए यह परम सौभाग्य का विषय है। महात्मा
गांधी ही ऐसे पुरूष हैं जिन्होंने प्रत्येक अवस्था में सत्य को माना है चाहे वह
सुविधाजनक हो या न हो। उनका जीवन हमारे लिए एक महान उदाहरण है। दुनिया में
स्वाधीनता लाभ का इतिहास रक्त की धारा से पंकिल है, अपहरण और दस्यु-वृत्ति से कलंकित है।
लेकिन महात्मा गांधी ने यह दिखाया है कि हत्याकांड को आश्रय दिये बगैर भी
स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है।’’ (रवीन्द्रनाथ
के प्रतिनिधि निबंध, सं०
कृष्णदत्त पालीवाल, प्र०
सस्ता साहित्य मंडल, नई
दिल्ली)
जाहिर
है रवीन्द्र के दिलो-दिमाग पर गांधी का सत्य-अहिंसा के आग्रह तथा उस पर चलते रहने
की दृढ़ता किस कदर छाये हुए थे कि वे उनकी (गांधी की) ‘भक्ति करने’ तक की बात कह जाते हैं। दूसरी तरफ
रवीन्द्र के प्रति गांधी जी के भी श्रद्धावनत भाव में कभी-कभी नहीं आई जिसे वे भी
समय-समय पर अपने भाषणों में एवं लेखों में व्यक्त करते रहे। असहयोग आंदोलन के
संबंध में रवीन्द्र नाथ की षंकाओं को निर्मूल करते हुए गांधी जी ने 01.06.1921 के ‘यंग
इंडिया’ में जो लेख लिखा उसमें कविवर के महत्व
को इन षब्दों में उजागर किया था-लार्ड हार्डिज ने डाक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को
एषिया के महाकवि की पदवी दी थी, पर
अब रवीन्द्र बाबू न सिर्फ एषिया बल्कि संसार भर के महाकवि गिने जा रहे हैं।
दिन-पर-दिन उनकी प्रतिष्ठा और प्रभाव बढ़ रहा है जिससे उनकी जिम्मेदारी भी
दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। उनके हाथ से भारतवर्ष की सबसे बड़ी सेवा यह हुई है कि
उन्होंने अपनी कविता द्वारा भारतवर्ष का संदेष संसार को सुनाया है। इसी से
रवीन्द्र बाबू को सच्चे हृदय से इस बात की चिन्ता है कि भारतवासी भारत-माता के नाम
से कोई झूठा या सारहीन संदेष संसार को न सुनावें। हमारे देष का नाम न डूबने पावे, इस बात की चिन्ता करना रवीन्द्र बाबू
के लिए स्वाभाविक ही है।’’
रवीन्द्रनाथ
के संबंध में गांधी जी की कितनी उच्च कोटि की धारणा थी, इसकी एक मिसाल गांधी जी के सचिव महादेव
भाई देसाई की डायरी में गांधी जी के इस कथन में मिलती है-‘‘टैगोर की क्या बात। उन्होंने क्या नहीं
साधा। साहित्य का एक भी क्षेत्र उन्होंने छोड़ा है ? ऐसी अलौकिक षक्तिवाला आदमी हमारे यहाँ
तो है ही नहीं,
लेकिन दुनिया में भी होगा या नहीं, इसमें मुझे षक है।’’
गांधी
जी ने षान्ति निकेतन जाना 1915 से
षुरू किया रवीन्द्रनाथ के जीवन काल तक वह सिलसिला चलता रहा। रवीन्द्रनाथ का
आर्षीवाद प्राप्त कर वे अपने को कितना कृतार्थ महसूस करते थे, इसकी एक झलक उनके 30.03.1940 के ‘हरिजन सेवक’ में लिखे लेख में इस प्रकार मिलती है-‘‘षान्ति निकेतन और मलिकन्दा की यह
यात्रा मेरे लिए तीर्थ यात्रा है। सचमुच इस बार षान्ति निकेतन मेरे लिए ‘षन्ति’ का ‘निकेतन’ सिद्ध हुआ। मैं यहाँ राजनीति की सब
चिन्ता और झंझट छोड़कर मात्र गुरूदेव के दर्षन और आर्षीवाद लेने आया हूँ। मैंने
अक्सर एक कुषल भिक्षुक होने का दावा किया है। लेकिन आज गुरूदेव का मुझे जो
आर्षीवाद मिला है उससे बढ़कर दान मेरी झोली में कभी किसी ने
नहीं डाला। मैं जानता हूँ कि उनका आर्षीवाद तो मुझे हमेषा ही है। मगर रूबरू
मुझे आर्षीवाद मिला और इस कारण मेरे हर्ष का पार नहीं।’’ ध्यातव्य है रवीन्द्रनाथ का ‘एकला चलो रे’ गीत गांधी जी को अत्यन्त प्रिय रहा।
7 अगस्त 1941 को रवीन्द्रनाथ के निधनोपरान्त गांधी
जी ने ‘हरिजन सेवक’ में इस प्रकार के श्रद्धासिक्त
षोकोदगार प्रकट किये-‘‘डाॅ०
रवीन्द्रनाथ टैगोर के निधन से हमने न केवल अपने युग के सबसे बड़े कवि को ही बल्कि
एक उत्कृष्ट राष्ट्रवादी को जो कि मानवता का पुजारी भी था, खो दिया है। षायद ही कोई ऐसी सार्वजनिक
प्रवृत्ति होगी जिस पर उनके षक्तिषाली व्यक्तित्व की छाप न पड़ी हो। षान्ति निकेतन
और श्रीनिकेतन के रूप में उन्होंने समस्त राष्ट्र के लिए ही नहीं, अपितु समस्त संसार के लिए विरासत छोड़ी
है।’’ (रवीन्द्रनाथ के संबंध गांधी जी के
उपरोक्त उद्गार गांधी जी की संस्मरणात्मक पुस्तक ‘मेरे समकालीन’ से उद्धृत है। प्र० सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली)
उपरोक्त
बातों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि रवीन्द्र और गांधी के आपसी संबंध
सहमति-असहमति के तटबंधों से गुजरते हुए अन्ततः जहाँ एकाकार हो जाते हैं वह है
देषहित से समाविष्ट विष्व कलयाण एवं मानवता का महासमुद्र-इसी संधि-स्थल पर एक ‘गुरूदेव’ तो दूसरे ‘महात्मा’ एक ‘महाकवि’ तो दूसरे ‘महापुरूष’ होने के सच्चे पदवीधारी सिद्ध होते
हैं। इन वैचारिक समरूपताओं का प्रभाव इन दोनों की जीवन-षैली, षिक्षण-पद्धति आदि पर भी देखा जा सकता
है।
ध्यातव्य
है कि रवीन्द्र और गांधी पष्चिमी षिक्षा से बखूबी परिचित होने के कारण उसे भारत की
दीर्घकालीन चित्तवृत्ति के अनुरूप कल्याणकारी नहीं मानते थे। यद्यपि रवीन्द्रनाथ
के सामने ही कोलकाता में अँग्रेजी षिक्षा के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विष्वविद्यालयों के
भव्य, भीमकाय भवन बन चुके थे। लेकिन
रवीन्द्रनाथ के चित्त को षिक्षण का यह पष्चिमी ढंग नहीं भाया और उन्होंने 1901 ई० में कोलकाता के कोलाहल से दूर
बोलपुर के वन प्रांत में भारत की आश्रमवासी ;भ्मतउपज ज्तंकपजपवदद्ध परम्परा का
अनुसरण करते हुए षिक्षण कार्य षुरू किया प्रकृति के खुले प्रांगण में। षिक्षा का
माध्यम मातृभाषा को बनाया और वे आजीवन मातृभाषा के माध्यम से बच्चों को षिक्षा
देने के पक्षधर रहे। दूसरी तरफ गांधी ने भी ऐसी ही आश्रमवासी जीवन-षैली को प्रश्रय
दिया और उसे षिक्षण का भी केन्द्र बनाया जहाँ मातृभाषा में षिक्षा दी जाती थी। 1903 में गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के
डरबन षहर से थोड़ी दूर 80
एकड जमीन में फीनिक्स आश्रम की स्थापना की, 1910 में जोहान्सबर्ग के पास 1100 एकड़ जमीन टाॅल्सटाॅय आश्रम बनाया।
भारत आने पर अहमदाबाद में पहले उन्होंने 1915 में कोचरव सत्याग्रह आश्रम की स्थापना
की जिसे 1917 में साबरमती में स्थानान्तरित किया
गया। 1936 में उन्होंने सेवाग्राम आश्रम की
स्थापना की । इन आश्रमों में बालक-बालिका, युवक-युवती, बूढ़े-बूढ़ी सबको आश्रय सुलभ था। आश्रम
में होनेवाले कार्यों में मातृभाषा में बच्चों को षिक्षा देने का काम भी चलता रहा।
अर्थात् भारतीय चित्त में ढले इन दोनों विभूतियों ने आधुनिकता के तुमुल कोलाहल के
बावजूद भारत की आश्रमाश्रित जीवन षैली को ही देष के लिए कल्याणकारी समझा।
रवीन्द्रनाथ
पर गांधी के प्रभाव का एक उदाहरण है हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्य करना।
भारत आने के बाद गांधी जी पूरे देष के लिए सम्पर्क भाषा की आवष्यकता महसूस करते
हुए राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का जोर-षोर से प्रचार करने में पिल पड़े। वे 1918 में इंदौर में हुए हिन्दी साहित्य
सम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये थे। सम्मेलन से पूर्व गांधी जी ने देष के कई बड़े
नेताओं को पत्र लिखकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान्य करने के संबंध में राय मांगी
थी। यह पत्र रवीन्द्रनाथ को भी भेजा गया था। अपनी राय देते हुए रवीन्द्रनाथ ने
लिखा था-‘‘अन्तः प्रान्तीय व्यवहार के लिए निष्चय
ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।’’
प्रसंगवष
यह भी जानने लायक बात है कि गांधी जी लोकमान्य तिलक, रवीन्द्रनाथ आदि से भी सार्वजनिक सभाओं
में हिन्दी में बोलने का आग्रह करते रहे। गांधी की प्रेरणा से लोकमान्य तिलक ने
हिन्दी सीखना बोलना षुरू भी कर दिया था लेकिन असामयिक मृत्यु ने उनसे यह काम पूरा
नहीं होने दिया। रवीन्द्रनाथ ने तो इतनी तेजी से हिन्दी में प्रगति की अप्रैल 1920 में काठियाबाड़ में उन्होंने पहला
भाषण हिन्दी में किया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने हेतु जनमत को
जाग्रत करने में रवीन्द्रनाथ गांधी का पूरा सहयोग करते रहे।
रवीन्द्रनाथ
और गांधी दोनों के ही चिन्तन, जीवन-बोध
का मुख्य आधार भारतीय वांगमय रहा। वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत के सार तत्व को गांधी ने भी
ग्रहण किया और रवीन्द्रनाथ के जीवन दर्षन में भी ये ही पाथेय स्वरूप रहे। ‘गीतांजलि’ के संबंध में गांधी जी यही कहा करते थे
कि उसमें उपनिषदों का निचोड है। यह बात भी विषेष रूप से ध्यान में रखने की है कि
गांधी के आश्रम में होनेवाली प्रातः कालीन प्रार्थनाओं में पहला ष्लोक
ईषावास्योपनिषद का यह हुआ करता था-‘‘ईषावास्यम्
इदम सर्वम यत् किंच जगत्यां जगत् तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यविद धनम्।’’ यही नहीं, गांधी अक्सर सार्वजनिक सभाओं में भी इस
ष्लोक को उद्धृत कर त्याग के साथ भोग करने के जीवन-सूत्र पर अमल करने पर बल देते
रहे। दूसरी तरफ रवीन्द्रनाथ को भी यह ष्लोक उतना ही प्रिय था। अपने ‘तपोवन’ षीर्षक लेख में रवीन्द्रनाथ एक जगह
कहते हैं-‘‘हमें समग्र के लिए अंष का त्याग करना
है, नित्य के लिए क्षणिक का, प्रेम के लिए अहंकार का, आनंद के लिए सुख का त्याग करना है।
इसलिए उपनिषद में कहा गया है ‘तेन
त्यक्तेन भुंजीथा’-त्याग
के द्वारा भोग करो, आसक्ति
के द्वारा नहीं।’’
उपर्युक्त
विवेचन के आलोक में सिद्ध है कि असहमति के कुछेक स्थूल बिंदुओं के आधार पर
रवीन्द्र और गांधी के बीच छत्तीस का रिष्ता देखना बहुत बड़ी भ्रांति है-असहमति से
अधिक सत्य है दोनों की समीपता, एक
दूसरे की पूरकता। इस तथ्य को कुबेरनाथ राय ने अपनी पुस्तक पत्र मणिपुतुल के नाम
में बहुत ही सुविचारित एवं तर्कपूर्ण ढंग से रखा है जो गौरतलब है-‘‘गांधी जी और रवीन्द्रनाथ दोनों का
मौलिक उद्देष्य था जीवन को बढती हुई यांत्रिक जटिलता, असहजता और अऋजुता से मुक्त करके उसे
पुनः सहज, सरल और निर्मल रूप में प्रतिष्ठित
करना। आधुनिक षिक्षा-प्रणाली हमारे आन्तरिक जीवन को और अधिक विखंडित, असहज और जटिल करती है। यह हमें जीवन के
परिवेष से बेगाना और ‘कटा
हुआ’ बना डालती है। आधुनिक षब्दावली में इसे
ही ‘एलियेनेषन’ कहते हैं। अँग्रेजी या अमेरिकन पैटर्न
पर आधारित आधुनिक षिक्षा जो महानगरीय संस्कृति से जुड़ी है और महानगरों के विषाल
मधु-छत्तों जैसे विद्यालयों में पलती है, इस आन्तरिक बिखराव और अलगाव को रोकने को कौन कहे, और अधिक बढ़ाती है। इसी से गांधी जी, रवीन्द्रनाथ दोनों ने विष्वविद्यालय
मुक्त षिक्षा की कल्पना की थी। रवीन्द्रनाथ का श्रीनिकेतन और गांधी जी की बुनियादी
तालीम तथा मातृभाषा पर जोर दोनों इस दिषा में समान चिन्तन के फल हैं। दोनों की
षिक्षा संबंधी परिकल्पना एक दूसरे से मेल खाती है। एक की षैली है ‘अभिजात’ और दूसरे की ‘जनसामान्यगत’। परन्तु दोनों एक दूसरे में खप जाती
हैं और दोनों को जोड देने पर भारत की पूरी आत्मा अभिव्यक्त होती है। अभिजात से
मेरा तात्पर्य जन्म-समृद्ध या अर्थ-समृद्ध नहीं बल्कि संस्कार-समृद्ध से है। गांधी
जी कहते हैं कि आधुनिकता मनुष्य को जटिल, कृत्रिम और नकली बनाती जा रही है, अतः मनुष्य के मनुष्यत्व की रक्षा के
लिए बाहरी कृत्रिमता की जगह पर सादगी और सच्चाई को प्रतिष्ठित करो। रवीन्द्रनाथ
कहते हैं आधुनिक यांत्रिक संस्कृति मनुष्य के अंतराल को जड़ीभूत करती जा रही है
अतः आन्तरिक जडि़मा से मनुष्यत्व की रक्षा के लिए सहजता और भावुकता को धारण करो।
तो पुतुल दोनों बातें एक दूसरे की पूरक है। यही कारण है कि गांधी जी और
रवीन्द्रनाथ दोनों ‘दो’ होते हुए भी एक ही तरह का जीवन ‘आश्रम जीवन’ जिये और जीने का उपदेष दे गये।’’
कुबेरनाथ
राय ने अपने उपरोक्त विष्लेषण में रवीन्द्रनाथ और गांधी जी की एक दूसरे की पूरकता
या सहधर्मिता को समझने में जरा-सी भी चूक नहीं की है। वस्तुतः रवीन्द्र और
गांधी-गुरूदेव एवं महात्मा-के अन्तः संबंधों का फलक इतना विस्तृत है कि उसे लेकर
एक पुस्तक लिखी जा सकती है, लेकिन
एक लेख के कलेवर में उस विस्तृत फलक का अँट पाना संभव नहीं। फिर भी यहाँ प्रस्तुत
तथ्यों के आलोक में साफ है कि रवीन्द्रनाथ और गांधी जी दोनों ही पष्चिमी
ज्ञान-विज्ञान,
साहित्य से बखूबी परिचित थे, फिर भी उनकी जीवन-दृष्टि भारतीय
संस्कृति में अन्तर्निहित जीवन-बोध से ही निर्मित हुई थी इसलिए साहित्य तथा
राजनीति जैसे पृथक क्षेत्रों में कार्य करते हुए भी दोनों सहधर्मी थे, पूरक थे और दोनों ने ही अपने-अपने ढंग
से विष्व मंच पर भारत की आत्मा का प्रकाष विकीर्ण कर उपनिवेषवादियों द्वारा भारत
को बर्बर, असभ्य सिद्ध करने के षडयंत्र का
जबर्दस्त प्रत्याख्यान रच दिया। एक ने साहित्य के माध्यम से तो दूसरे ने
सत्य-अंहिसा पर आधारित सत्याग्रह के प्रयोग से दुनिया को बतला दिया कि युद्ध, हिंसा के बदले प्रेम, अहिंसा, षांति के मार्ग पर ही चल कर मानवता का
कलयाण हो सकता है। इस प्रकार एक ने ‘गुरूदेव’ तो
दूसरे ने ‘महात्मा’ कहे जाने के सर्वथा योग्य अपने को
सिद्ध किया। साहित्य और राजनीति का ऐसा मणिकांचन योग अन्यत्र मिलना दुर्लभ
है।
(चित्र साभार : गूगल)
संपर्क
102,
अम्बुज टाॅवर, तिलकामाँझी,
भागलपुर-812001
मो०
9801055395