चन्द्रामणिदेवी भीत दृष्टि से भीति पर खड़िया से बनी आकृतियाँ देखती रही। गौरी-गणेश मनाती रही कि भोर तक नववधू के काका का मन पलट जाए और वह बहू को यहीं छोड़ जाए।
पौ फटते ही नववधू के काका नहाधोकर जाने की तैयारी में घरभर में कोलाहल करने लगे। नववधू को अपना बक्स तैयार करने का आदेश दे दिया।
“किन्तु बक्स तो बहुत भारी है। उसे मेरे स्वामी ही उठा सकते है” नववधू के कहा। वह नहाकर गीले कपड़ों में चौके में खड़ी थी। गदाधर पूजा के लिए दीपक बना रहा था।
“शारदा, देखता हूँ लग्न पीछे तू बड़ी दीठ हो गई है। अपने काका को उत्तर देते लज्जा नहीं आती!” नववधू के काका ने कहा और बाहर निकल गए।
जाते जाते कह गए, “शीघ्र ही तैयार हो जाना होगा अन्यथा जैसी होगी वैसे हो जाना होगा।”
नववधू नैहर जाने के लिए उल्लसित तो थी किन्तु काका की अकारण डाँट से रोने लगी। चन्द्रामणिदेवी चुपचाप नववधू का समान समेटने लगी। थोड़ी ही देर में नववधू को पड़ोसन ने शोले के गहनों में सजाकर चौकी पर बैठाया और चन्द्रामणिदेवी भोजन के प्रबन्ध में व्यस्त हो गई।
“मुझे भूख नहीं। मैं कुछ खाना नहीं चाहती” नववधू हठ करने लगी। वह चिड़चिड़ी होकर ठुनकती थी। चन्द्रामणिदेवी समझा समझाकर हार गई किन्तु नववधू ने अन्न का एक दाना जिह्वा पर नहीं धरा। नववधू के काका कलेवा करके जाने को उद्धत हुए। चन्द्रामणिदेवी दूसरे कक्ष में जाकर रोने लगी। वह बाहर ही न आती थी।
भोजन बाँधकर दे दिया गया। लोटाडोरी लिए नववधू के काका जाने को तैयार खड़े थे। रामेश्वर और गदाधर उन्हें नमस्कार कर रहे थे। किवाड़ की ओट से चन्द्रामणिदेवी ने देखा बहू को पड़ोसन आलता लगाना भूल गई थी। वह पार्श्वद्वार से पड़ोसन को बुलाने दौड़ी। गदाधर ने देख लिया।
“कहाँ भागी जा रही हो, माँ?”
“बहू के पग कोरे छोड़ गई, चिंतामणि। उसे बुलाने जा रही थी। आलता लगाए बिना कैसे विदा कर दूँ” चन्द्रामणिदेवी हाँफते हुए कहने लगी।
“काकी को आने में समय लगेगा। वहाँ बहू के काका जाने को खड़े है” गदाधर ने कहा।
चन्द्रामणिदेवी रोने लगी। वहीं भूमि पर बैठ गई।
गदाधर भीतर गया और आलते की कटोरी उठा ली। नववधू को गुरुजनों के आगे गोद में उठाकर चौकी पर बैठ गया।
“कोरे कोरे चरण लेकर मेरी बहू कहीं जा सकती है भला! यह देखो यह रेखा गई नैहर से गदाधर के घर” आलते से नववधू के पाँव पर रेख बनाते गदाधर ने कहा।
“सुना ही था कि निर्लज्ज दरिद्री होते है आज देख भी लिया। अपनी बहू को गुरुजनों के आगे गोद में बैठाना, हरे हरे।” नववधू के काका तिर्यकदृष्टि से गदाधर और उसकी गोद में बैठी नववधू को देखकर कहा किंतु शेष सब चित्रलिखित से यह दृश्य देख रहे थे। उन्हें लोक-समय का भान न था।
“क्या इस रेखा पर चलकर मैं कभी भी माँमणि से मिलने आ सकती हूँ?” नववधू ने पूछा।
“केवल माँमणि से और मुझसे अपने स्वामी से मिलने नहीं आओगी?” गदाधर को नित विनोद सूझता था।
“तुमसे मिलने आऊँगी फिर तुम मुझसे भूतों के लिए भोजन बनवाओगे। मैं नहीं आऊँगी तुमसे मिलने” नववधू ने कहा। उसके पग आलते से रचे कमल की भाँति दिखाई दे रहे थे। गदाधर ने उसे खड़ाऊँ पहनाए और अंगुली पकड़कर ग्राम की सीमा तक छोड़ आया।
पीछे चंद्रामणिदेवी की क्या दशा हुई क्या यह संसार की जननियों और उनके स्वामियों को बताने की आवश्यकता है!
माँमुनि भाग ६ से १०
अपने पिता रामचन्द्र मुखोपाध्यय के गृह आकर नववधू शारदा का कलेवर तो वही रहा किन्तु मन सींझ गया था। माता-पता ने विदा किया था तब कच्चे दूध जैसा मन था और लौटी तो लगता था ह्रदय के स्थान पर गुड़ की खीर से भरा कटोरा लिए घूम रही है।
माँ अपनी बेटी ठाकुरमणि शारदा पर रीझती भी थी और खीझती भी थी। प्रेम की एक कुटैव है उसे एक नाम से सन्तोष नहीं, नित्यनूतन नाम धरकर उसे तृप्ति होती है जैसे नए नए नाम देकर वह अपने प्रेमपात्र को एक से असंख्य करना चाहता है। शारदा के भी सहस्र नाम थे। सब भिन्न भिन्न नामों से टेरते थे। माँ श्यामसुन्दरी ठाकुरमणि कहती थी पिता क्षेमकरी कहकर पुकारते सखियाँ खेमनकरी बोलती थी।
ठाकुरमणि सखियों के संग खेलती किन्तु देखकर लगता कि उसका मन कहीं सुदूर घने वृक्षों से शीतल, एकान्त और अनन्त मार्ग पर अपने पति के संग पाँव पाँव चला जा रहा है। श्यामसुन्दरीदेवी बहुत बार शारदा को पकड़कर केशों में तैल देने के लिए बैठा लेती और पूछती, “मेरी दुलालपुतली, बता न, तेरे गृह सब कैसे है? अपनी जननी को नहीं बताएगी अपने मन की दशा”।
“माँ, माँमणि बहुत अच्छी है। तुम सुपारी खाने नहीं देती किन्तु उन्होंने मुझे डिब्बाभर सुपारी दी है” शारदा कहती। चन्द्रामणिदेवी ने शारदा के बक्स में पान और सुपारी धरवाये थे।
“और शेष सब कैसे है?” श्यामसुन्दरीदेवी गदाधर के विषय में पूछना चाहतीं।
“मेरे भतीजे का नाम अक्षय है और भांजे का नाम ह्रदयराम। अक्षय बहुत सुंदर है और ह्रदयराम बहुत चतुर है” ठाकुरमणि कहकर चोटियाँ हिलाते हुए बोली।
“और?”
“और मेरी शय्या के नीचे अद्भुत कमलकुंज बना है। माँ, पाँव बचा बचाकर रखना पड़ता है। कमल यों लगते हो जैसे सच के हो। गन्ध से घर भरा रहता है।” ठाकुरमणि घर की शोभा के विषय में बताने लगी।
“अच्छा बता, तेरे स्वामी कैसे है?” गदाधर और ठाकुरमणि के वयों में अन्तर से श्यामसुन्दरीदेवी भीत रहती थी। जवाईबाबू उससे कैसा व्यवहार करते होंगे?
“वह बड़े दुष्ट है। बहुत बहुत दुष्ट है मेरे स्वामी” चक्षु फाड़ फाड़कर ठाकुरमणि बताने लगी।
श्यामसुन्दरीदेवी ने घबराकर पूछा, “क्या करते है वह? जल्दी बता, क्या करते है वे?”
“कैसे बताऊँ तुम्हें! तुम भयभीत हो जाओगी यदि मैंने बताया तुम्हें कि वह क्या करते है?” ठाकुरमणि ने भयाक्रांत होने का अभिनय करते हुए कहा।
“तुझे कष्ट देते है क्या वह?” श्यामसुन्दरीदेवी रोने रोने को हो आई।
“हाँ, बहुत कष्ट किन्तु वह तो मुझे सहना पड़ेगा मेरे स्वामी जो है वह” ठाकुरमणि ने कहा और चिबुक पर अंगुली धरकर बैठ गई।
श्यामसुन्दरीदेवी रोने लगी। देखकर ठाकुरमणि घबरा गई। माँ की हथेलियाँ आँखों से हटा हटाकर कहने लगी, “इतना भी कष्ट नहीं देते वे। भूतों का भोजन बनाने में इतना भी कष्ट नहीं है किन्तु निर्लज्ज बहुत है। गुरुजनों के सम्मुख मेरे पाँवों में आलता लगा दिया।”
श्यामसुन्दरीदेवी को अपनी कन्या की बात समझते देर नहीं लगी।
“भूतगण भोजन करते है क्या! वह तुझसे विनोद कर रहे होंगे।” श्यामसुन्दरीदेवी का भय विलीन हो गया था।
“विनोद नहीं है यह। वह दिनभर श्मशान में रहते है कभी कभी तो रात्रि को भी घर नहीं लौटते” ठाकुरमणि ने कहा और अधोमुखी होकर बैठ गई।
“लग्न को हुए पक्ष नहीं बीता और श्मशान यात्रा!”
“यात्रा नहीं, माँ; निवास करते है वहां । उन्होंने कहा गृहस्थी श्मशान में ही करेंगे।
“उनके सहोदर ने तो कहा था कि वह दक्षिणेश्वर मन्दिर में पुजारी है। ऐसा तो नहीं कहा कि वामाचारी है वे” श्यामसुन्दरीदेवी चिन्तित हो गई। उसके पश्चात् उन्होंने कुछ नहीं कहा। मौन देर तक बैठी रही। ठाकुरमणि बमबम भोलेबाबा के लिए धतूरे तोड़ने पोखर के निकट चली आई ।
बाहर उसके पिता रामचन्द्र अपने भाई से कुछ मंत्रणा करते थे, “दादा, भोजन के लिए थाली तक नहीं उस घर। क्या विचारकर आपने उस दरिद्र से अपनी पुत्री ब्याह दी!”
देर तक रामचन्द्र ने उत्तर नहीं दिया फिर प्रत्येक शब्द तौलते हुए बोले, “आभूषण, भोजनपात्र, धनधान्य, वैभव भले उनके निकट कुछ न हो। मेरी पुत्री अब उनकी बहू है, क्या इसे चतुरानन ब्रह्मा भी मेट सकते है अब!”
भीतर से श्यामसुन्दरीदेवी चिल्लाती हुई आई, “हमसे बड़ी भारी भूल हो गई, वामाचारी को बेटी ब्याह दी।” उन्होंने अंतिम शब्द कहा और मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी।
धतूरों के झाड़ों पर अभी फल नहीं आया था। श्वेत कुसुमों से घिरी ठाकुरमणि अपनी सखी अघोरमणि के साथ धतूरे का फल खोजती भटकती थी। अरुण पगतलियों पर गड़ते कंटकों की उसे चिंता न थी।
“बहुत पीड़ा हो रही है। इस धतूरे के वन में कंटक बहुत है, खेमकरी” अघोरमणि ने उचकते हुए कहा।
“तो क्या हुआ जो कंटक है! क्या अपने बमबम भोलेबाबा को बिन हार और किरीट के वर बनाकर भेज दूँ!” निश्चिन्त धतूरे की झाड़ियों में विचरती ठाकुरमणि ने कहा। धूल और कंटकों से उसके रंजित चरण भरे हुए थे।
“मैं तो नहीं जाती और भीतर। ताई कहती है वहाँ नागलोक है” अघोरमणि कूदी और भागकर अश्वत्थ के नीचे खड़ी हो गई।
“अघोरमणि, तू बता राजा विदेह की राजदुलारी सीता को क्या वन में नंगे पाँव घूमते कंटक न लगे होंगे, उनके चरणारविंदों के नीचे नाग-वृश्चिक न आए होंगे!” गम्भीर स्वर में ठाकुरमणि ने कहा। वह झाड़ियों में हाथों से धतूरे के फल टटोल टटोलकर ढूँढ रही थी।
“ओ माँ, यह सब बातें किसने बताई तुझे?” अघोरमणि के लिए यह कथा कल्पनातीत थी।
“मेरे स्वामी ने बताई है मुझे यह बात। देख धतूरे का एक फल मुझे मिल गया।” धतूरा तोड़ते ठाकुरमणि प्रसन्नस्वर में चिल्लाई।
“अच्छा बता क्या तुझे अपने स्वामी से प्रेम है?” अघोरमणि ने पूछा। अघोरमणि का किशोर पति उससे अक्सर यह पूछता था।
“क्या पति से प्रेम करना आवश्यक है, अघोरमणि?” झोलीभर अकालफलित धतूरे लाते हुए ठाकुरमणि ने पूछा।
देर तक अघोरमणि उत्तर सोचती रही। फिर ज्ञानियों की-सी भंगिमा बनाकर बोली, “स्वामी की भक्ति करना चाहिए। वह तो भगवान होते है न!”
ठाकुरमणि अपने धतूरे गिनते हुए बोली, “एक सौ पांच, एक सौ छह और यह एक सौ आठ । मैं तो केवल माँमणि से प्रेम करती हूँ उस घर में किन्तु क्या स्वामी सचमुच भगवान होते है?”
“हाँ। मेरे स्वामी की बहन ने मुझसे स्पष्ट शब्दों में कहा है। उनके भगवान बाल्यावस्था में ही बैकुंठ सिधार गए।” अघोरमणि को अपनी सखी खेमकरी शारदा के धतूरे देखकर ईर्ष्या हुई। यहाँ वर की माला और मुकुट तैयार हो रहे है और वह अपनी पारो को त्यागकर वन वन भटक रही है। उसने न एक शब्द और कहा न कोई शब्द सुने और दौड़ते हुए अपने घर जाने लगी।
ठाकुरमणि चिन्तित हो गई। पहली बात तो भगवान कभी बैकुंठ नहीं जा सकते क्योंकि जहाँ वह निवास करते है वहीँ बैकुण्ठ बन जाता है. दूसरी बात कि यदि स्वामी भगवान होते है तो उसने अपने भगवान को दुष्ट कहकर बहुत भारी पाप किया है। उसके पापकर्म का उसे अवश्य ही बुरा फल प्राप्त होगा किन्तु भगवान तो करुणानिधान है। यदि वह समय पर क्षमा माँग ले तो सम्भवतया भगवान उसे दण्ड का भागी न बनाए।
ठाकुरमणि गदाधर से क्षमा माँगने के लिए अतीव विकल हो उठी थी।
“माँ, क्षमा माँगे बिना पापफल प्राप्त होगा। मैंने अपने भगवान का अपमान किया है” धतूरों की माला गूँथती ठाकुरमणि ने कहा। कंटकों के चुभने से उसके नयनों से अश्रुपात हो रहा था या क्षमा माँगने का अवसर प्राप्त न होने से श्यामसुन्दरीदेवी को समझ नहीं आया।
“ठाकुरमणि, क्षमा माँगने की इच्छा और अवसर का संयोग हमेशा से दुर्लभ ही रहा है” श्यामसुन्दरीदेवी हँसने लगी। पाँच वर्षीय नववधू की पतिभक्ति से मुग्ध ठाकुरमणि को दिक करने के उद्देश्य श्यामसुन्दरीदेवी ने कहा, “जवाईबाबू ने क्षमा करना अस्वीकार कर दिया तो?”
ठाकुरमणि की एक सौ आठ धतूरों से बनी वनमाला भूमि पर दूर तक फैली हुई थी। उसे एक बार में उठाना भी ठाकुरमणि के लिए सम्भव नहीं था। उसे टोकने में धीमे धीमे रखते रखते ठाकुरमणि धप से भूमि पर बैठ गई। एक घुटने पर कोहनी टिकाकर देर तक उसके ह्रदय में कुछ मन्थन होता रहा।
फिर कहा, “बहुत क्रोधी है वे। रूष्ट होने पर पीट भी डालते है”।
श्यामसुन्दरीदेवी ने थाली परे धरकर पूछा, “तुझे भी मारते है क्या?”
ठाकुरमणि माला का एक छोर पकड़े यों कहने लगी जैसे कथा सुनाती हो,
“माँ, तुम जानती हो वे दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में अर्चना और नैवेद्यादि की व्यवस्था देखते है। रानी रासमणि उन मन्दिर की मालकिन है। बड़े दादा बता रहे थे कि षष्ठि का दिन था। मेरे स्वामी नीम की डाली, केले, घुइयाँ और हल्दी के पात, केतकी के कुसुम, जयंती के किसलय, बिल्बपत्र, धानरोपनियाँ, दाड़िमदल और सीताशोक के अरुणपुष्प लेकर आ रहे थे तब उन्होंने देखा रानी रासमणि कालीकलेवर के आगे करबद्ध, अधोमुखी खड़ी कोई श्लोक पढ़ रही है।
स्वामी ने उन्हें देखते ही थप्पड़ लगा दिया। रानीरासमणि वृद्धा है तब भी है अपूर्व रूपसि । उनके कपोलों का गौरवर्ण आरक्त हो गया। अपमान के कारण चक्षुओं से जलधारा बहने लगी।
उनके दासों के मेरे स्वामी को पकड़ लिया। इससे पहले कि रानी कुछ कहती, वह दास मेरे स्वामी को अपशब्द कहने लगे।
सुनते ही रानीरासमणि ने इन्हें टोका और मेरे स्वामी के चरणों पर लिलार रख दिया। दास विस्मयाछन्न अनिमेष रानीरासमणि को स्वामी के चरणों पर रोते हुए देखने लगे।
मेरे स्वामी शीघ्र ही कुपित होनेवाले है तो क्या हुआ वह आशुतोष भी तो है। रानीरासमणि को उन्होंने उठाकर गादी पर विराजमान किया। रानीरासमणि के जवाई मथुराबाबू कहने लगे, “प्रतिमास हमारे दिए धन से जीवनयापन करनेवाला ब्राह्मण यदि हमें चाँटा लगाए और हम बदले में उसकी पदधूलि ले तो लोक में हमें कहाँ मान प्राप्त होगा, रानीमाँ!”
रानीरासमणि रोने लगी। देर तक रोने के पश्चात् मुख उठाकर उन्होंने कहा, “गदाईपण्डित ने उचित ही किया है। दोष का दण्ड तुरन्त देना चाहिए। मैं धन्य हूँ कि मेरे पाप के पूर्ण होने से पूर्व उन्होंने मुझे दण्ड देकर शुद्ध कर दिया”।
“रानीमाँ, पुनः काली के सम्मुख खड़े होकर व्यापार मत विचारना। मन्दिर के भीतर जब आओ तो जगत किवाड़ पर त्यागकर आना” स्वामी ने कहा और भोग की व्यवस्था में व्यस्त हो गए।
रानीरासमणि ने पुनः उन्हें प्रणाम किया और लौट आई।
ऐसा मुझे बड़े दादा ने बताया। मेरे स्वामी कुपित होने पर मारते भी है। मुझे भी दण्ड देंगे अब किन्तु अच्छा ही जो मुझे मेरे पाप का फल प्राप्त हो जाये।”
श्यामसुन्दरीदेवी ने अनुभव किया कामारपुकुर से लौटने के पश्चात् ठाकुरमणि जैसे साक्षात् बालसरस्वती ही हो गई थी। कथा ऐसे कहती जैसे उसी स्थान और काल में विराजमान हो जहाँ की कथा कहती है। बालोचित भोलापन और माँ सरस्वती का वाङ्मय कौन विध एक ही देह में समाहित है! वह एकटक ठाकुरमणि का मुख देखती रही। कुछ कह न सकी।
दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर से मन जब लौट आया तब श्यामसुन्दरीदेवी ने पूछा, “ये बड़े दादा कौन हुए?”
ठाकुरमणि अपनी माँ की बात सुनकर हँसने लगी, “वह मेरे जेठ है न। अक्षय उनका ही तो पुत्र है”।
“अच्छा वे तुझे जवाईबाबू की कथाएँ सुनाते है। बड़े अद्भुत पुरुष है” श्यामसुन्दरीदेवी का माथा हर्ष से दीप्त हो रहा था कैसे विचित्र किन्तु कल्याणमय गृह में अपनी बेटी ब्याही है उन्होंने। कल वह अकारण चिन्ता में मूर्च्छित हो गई जैसे अपनी पुत्री के परिजनों का उन्होंने परोक्ष अपमान किया था।
“हाँ वह मेरे स्वामी की बहुत कथाएँ सुनाते है। अच्छा माँ, अब मैं अपने स्वामी से कब मिलूँगी?” ठाकुरमणि अपने बमबम भोलेबाबा की मूर्ति ले आई और टोकरे में धतूरे की माला के बीच उसे रख दिया।
श्यामसुन्दरीदेवी से उत्तर देते न बना।
इधर चन्द्रामणिदेवी बहुधा विचारती, पुनः पुनः मन को समझाती कि समधी बहू को शीघ्र ही घर छोड़ जाएँगे किन्तु उनका दुःख अशेष नहीं होता। अपनी बहू के वियोग में न वे कुछ खाती थी न उन्हें निद्रा ही आती। केवल गृहदेवताओं के सम्मुख दीपक जलाती या पूजा के पात्र माँजा करती।
“ऐसा लगता है स्वयं उमा अपने महेश्वर की पूजा करने के लिए कामारपुकुर के सब धतूरे तोड़ ले गई। दूर तक हो आया किन्तु धतूरे के श्वेत पुष्पों को छोड़ एक फल नहीं मिला। काली को जवाकुसुमों की माला पहनाऊँ और भगवान शंकर का माथा सूना रखूँ ऐसा कैसे सम्भव है!” धूल से सने गदाधर ने कहा। वह ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं शंकर भस्म लगाकर भिक्षाटन करने निकले है।
चन्द्रामणिदेवी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह पूजा का लोटा राख से माँजती रही। अश्रु से लोटा धुलता जा रहा था।
“माँ, विवाह तो हो चुका। अब बहू को वे अपने घर अधिक दिनों तक न रख सकेंगे लोक उनके कुल को दोष न लगाएगा। तू रो मत, धीर धर” गदाधर ने कहा और देह से धूल धोने लगा।
मुख को रगड़कर जब जल से धोकर उसने मुख उठाया तब देखता है एक मेदस्वी पण्डित पुष्पहार बेचता इसके घर से आगे से जाता था। उसकी तोंद देखकर गदाधर हँसने लगा।
“तो क्या निर्धन लोगों को जीवनयापन करते देख उनकी हँसी उड़ाना ही तुम्हारी माँ ने तुम्हें सिखाया है?” पण्डित ने ठहरकर कहा।
भीतर से चन्द्रामणिदेवी चिल्लाई, “गदाई, संस्कृत न जाननेवाला पंडा दुर्गामूर्ति मिश्र है वह। जाने दे उसे। वह पुष्पमाला बेचकर और झगड़े करके जीता है”।
“तूने मेरा अपमान किया है। तेरी गृहस्थी कभी न बस सकेगी। तुझे पत्नीसुख प्राप्त न होगा” पण्डित क्रोध में थूक छींटते तेज स्वर में कहने लगा।
चन्द्रामणिदेवी दौड़ती बाहर आई और पण्डित की पदरज लेते हुए बोली, “क्षमा, पण्डितजी क्षमा। यह भी ब्राह्मण का ही पुत्र है।”
“मेरा ह्रदय है ही करुणा का मेघ। अपना शाप लौटा लूँगा यदि तू यह माला खरीद ले पूरे दस पैसे की है” पण्डित निकट ही शिरीषतरु की छाँह में बैठते हुए बोला।
चन्द्रामणिदेवी भीतर पैसे लेने चली गई।
“विजया और मिष्ठान्न से बहुत सुंदर देह बना ली है आपने, पण्डितजी। मैं तो जितना खाता हूँ उतना देह निर्बल होता है” गदाधर ने अपने मस्तक पर लोटाभर जल उड़ेलते कहा।
“बेटा, उदरभर खाकर आजतक एक रात्रि नहीं सोया” पण्डित ने कहा, तब तक चन्द्रामणिदेवी पैसे लेकर आ गई। पण्डित ने एक सौ आठ धतूरों का अपूर्व हार चन्द्रामणिदेवी को दिया और बड़े कष्ट से उठकर चलता बना।
“अघोरमणि, तूने ही ईर्ष्या के कारण बमबम भोलेबाबा की धतूरे की माला चुराई है। वह तो तेरी पारो का ही वर बनकर आ रहे थे तेरे घर” कहकर ठाकुरमणि रोने लगी। आँगन में शिव-पार्वती के लग्न के समय कोई धतूरे की माला चुराकर ले गया था। सभी सखियों में भगदड़ मची थी। वर और वधू पक्ष में रार ठन जाने के कारण लग्न टूटने को था।
( क्रमशः)
संपर्क – अम्बर पांडे
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