मैं बड़ी उहापोह
की स्थिति में हूँ । तुम्हारा पत्र सामने खुला पड़ा है और मेरी सोच को लकवा मार गया
है। ओह ! अमृता ! यह तुमने कितनी जटिल और दारुण स्थिति में डाल दिया है मुझे।
तुम्हारे लिए जिन्दगी हमेशा दॉव पर लगाने की चीज रही है। जीत हार को चित्त पट की
तरह मुट्ठियों में भुनाती रही हो तुम लेकिन हम तुम्हारी तरह कैसे सोचे ? कैसे जियें बोलो।
तुमने यह कैसा
मार्मिक रहस्य खोला है मेरे सामने। मैं कैसे बता पाऊँगी इस हृदय विदारक सत्य को
बड़े काकू और काकी माँ को। क्या विष बुझे तीर की तरह यह खबर उनके सीने को भेदकर
आर-पार न हो जायेगी ? अपने इकलौते बेटे के मृत्युदंश से जो अब तक उबर नहीं पाये
हैं उनके कलेजे में फिर से नस्तर चुभो दूँ- एक नया घाव कर दूँ ? नहीं अमृता नहीं
-मैं इतनी अमानवीय नहीं हो सकती, तुम्हारी तरह मेरे भीतर केवल सत्य की प्रतिबद्धता को लेकर
जीने का साहस नहीं है ———-।
मैं तुम्हारी
आन्तरिक पीड़ा और अन्तर्द्वन्द को बखूबी महसूस कर रही हूँ पर उसे स्वीकारना बहुत
कठिन है मेरे लिए। अरविन्द दा के पौरुष को आहत करने के लिए तुमने कैसा विकृत आचरण
किया ? एकबार भी नहीं
सोचा कि इसी अरविन्द दा को कभी तुमने अटूट प्यार किया था। अपने जीवन की सबसे बड़ी
उपलब्धि मानी थी। उनके साथ देष-विदेष का दौरा, बड़ी-बड़ी हस्तियों
से मिलना-मिलाना, कॉन्फ्रेन्स, सेमिनार, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मान-सम्मान — क्या नहीं पाया
तुमने ? इस देय का यही
मूल्य चुकाना था तुम्हें ? —इतना बड़ा प्रतिशोध ? इतनी कुंठित
प्रतिक्रिया ?
मैं जानती हूँ
कोई भी काम तुम एक झटके में करती हो। कोई भी निर्णय लेते समय तुम्हारे सामने केवल
वर्त्तमान होता है – न छूटा हुआ अतीत – न अदृश्य में आकार लेता कोई भविष्य।
अरविन्द दा से अपने ब्याह की खबर भी तुमने इसी तरह एक झटके में मुझे सुनाई थी।
मुझे याद है
शिलाखण्ड की तरह कलेजे पर लद गया था वह क्षण – वह जानलेवा दिन। डिपार्टमेंट जाने
के लिए मैं तैयार हो रही थी जब धमाके की तरह पदार्पण हुआ था तुम्हारा। सिन्दूर से
भरी मांग, धानी रंग की जरी
बार्डर वाली बेशकीमती साड़ी, कंठ में सुशोभित जड़ाऊ हार, उन्नत उरोजों तक
झूलता मंगल सूत्र, शंख , पोला, और चूड़ियों से भरी कलाईयाँ, पैरों में बँधी
नग जड़ी पाजेब और बिछिया । सर से पॉव तक तुम रूप , रंग, गंध से परिपूर्ण
बसंत बन खड़ी थी मेरे सामने। मैं अवाक ! मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला था – बस
आँखें फैलकर स्थिर हो गई थीं तुम्हारे चेहरे पर। मैंने हमेशा तुम्हें जनवादी
मुद्रा में देखा था -उस बसंती छटा को देखकर मैं सचमुच हतप्रभ रह गई थी। तुमनें
बाहों में भरकर झकझोर दिया था मुझे-‘‘ऐसी बुत क्यों हो गई हो अलका – मैं हूँ अमृता –
नहीं तेरी भाभी -तुमार बोदी। मैंने आखिर तेरे अरविन्द दा की भीष्म प्रतिज्ञा को
खण्डित कर ही दिया। तुझे तो खुश होना
चाहिए पगली – तेरी काकी माँ की आँखों की अमावस को मैंने शीतल चाँदनी की ठण्डक दे
दी है। उनके घर के इकलौते चिराग को सूरज की तेज से दीप्त कर दिया है। इतना बड़ा काम
किया है मैंने और तू मुँह लटकाये खड़ी है। अरे आरती तो उतार अपनी इकलौती भाभी की।
दीप ना सही अगरबत्ती ही फिरा दे मेरे चारो ओर ———।’’
तुम आनन्द के
उन्माद में बही जा रही थी और मैं शून्य में कहीं दूर दुःख में पथरा गये अपने बड़े
काकू और काकी माँ को देख रही थी जिनके देदीप्यमान सूर्य को अचानक राहु निगल गया था
।
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तुम्हारे जाने के
बाद पी०-जी० ग्लर्स हॉस्टल के उस एकाकी कमरे में सारा दिन उदासी के आलम में डूबी
रही। मुझे लगा था मैंने ही सर्वनाश किया था अरविन्द दा का। उनके रिसर्च
इंस्टिच्यूट में मैंने ही तुम्हारे रजिस्ट्रेशन के लिए पैरवी की थी। रिसर्च
इंस्टिच्यूट ऑफ इकॉलॉजी एण्ड इन्भॉरन्मेंट में एडमिशन के लिए तुम कितनी बावली थी
उन दिनों।
‘‘प्लीज अलका, तुम एकबार जोर
देकर कहोगी तो हो जायेगा मेरा रजिस्ट्रेशन। तुम्हारे अरविन्द दा डाइरेक्टर हैं उस
इंस्टिच्यूट के। ही इज ऑल इन ऑल। एकबार सिर्फ मेरे लिए कहकर देखो प्लीज !’’
मैं बहुत पेशोपेश
में पड़ गई थी। अरविन्द दा मुझसे ग्यारह वर्ष बड़े थे। उम्र का एक बड़ा फासला था
हमारे बीच। मैं उनसे बहुत खुली हुई भी नहीं थी। पारिवारिक मर्यादा की एक संस्कारगत
दूरी थी हमारे बीच। मैंने कहा था तुमसे यह सब। पर तुमने एक ना मानी। हारकर मुझे
कलकत्ता से 60 किलोमीटर दूर
उनके रिसर्च इंस्टिच्यूट तुम्हारे साथ जाना पड़ा था।
बहुत व्यस्तता के
बावजूद अरविन्द दा बहुत प्यार से मिले थे मुझसे। मेरी पढ़ाई-लिखाई, गॉव, परिवार, माँ और दद्दू का
विस्तृत हाल-चाल पूछा था उन्हांने और अंत में मेरे आने का उद्धेश्य पूछने के बाद
थोड़े गंभीर हो गये थे। मैं जानती थी कितना रश रहता है उनके इंस्टिच्यूट में।
पर्यावरण संतुलन पर देश का यह सबसे उम्दा रिसर्च सेंटर है। देश के सभी राज्यों से
लेकर विदेशी छात्रों का भी एक बड़ा समुदाय अनुबंधित है यहां। सौ एकड़ के एक बड़े
भूभाग में प्रकृति का पालना सा दीखता है यह रिसर्च इंस्टिच्यूट। पेड़-पौधे, ताल-तलैया, पशु-पक्षी
मानव-मानवेत्तर का सम्मिलित समारोह स्थल सा लगता है वह स्थान। लैब में
बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को समाधिस्थ मुद्रा
में काम करते देखकर लगा था मुझे-ये इस दुनिया के जीव नहीं हैं। कौन आया – कौन गया
– किसी को फुर्सत नहीं थी देखने की।
लौटते वक्त भैया ने एक आश्वासन भर दिया था
–‘‘देखता हूँ कोई
एडजस्टमेंट हो सकता है या नहीं।’’
मैंने अपनी ओर से
कोई प्रेशर नहीं डाला था उनपर। क्योंकि अंदर से मैं थोड़ी भी इन्टरेस्टेड नहीं थी
तुम्हारे रजिस्ट्रेशन के लिए। तुम्हारे व्यक्तित्व के अक्खड़पन और उन्मुक्तता से
मैं बहुत भय खाती थ। एक ऐसा बेलौस खुलापन था तुममें जिससे कभी-कभी लज्जा से
कुण्ठित हो जाती थी मैं । खासकर उस समय जब बड़े गले का ढीला -ढाला कुरता पहन कर तुम
कुछ इस अंदाज में क्लास में बैठती थी कि सामने वाला पहाड़ की ऊचाईयों को देखता सीधे
ढ़लान में लुढ़क जाता था । प्रो0 चड्डा, डा0 कुमार जैसे विषय के ज्ञाता भी कई बार क्लास में
विषयान्तरित हुए थे तुम्हारी उस भंगिमा पर। तुम्हारा आचार-विचार, व्यवहार-संस्कार
कुछ भी मेल नहीं खाता था हमारे मध्यवर्गीय कुलीन वंश की पुरातन मानसिकता से। शहर
में रहकर पढ़ते हुए भी हमारे भीतर उस समय तक आधुनिक भाव बोध का कोई सौंदर्यशास्त्र
विकसित नहीं हो पाया था। उस मामले में हम बहुत बैकवार्ड थे ।
युनिवर्सिटी में
तुम्हें लड़कों से बेहिचक बातें करते देख, उनके साथ बेधड़क कहीं आते-जाते देख मैं सकते में
रहती थी। एकबार मैंने दबे स्वर में तुम्हें टोका भी था —-‘‘अमृता, तुम्हें डर नहीं
लगता इनके साथ इस तरह रात-बिरात अकेली कभी शॉपिंग, कभी नोट्स के लिए
चली जाती हो। अगर अकेले में कभी ये बाज की तरह झपट बैठें तो ?’’ तुम ठठा कर हँस
पड़ी थी —–‘‘ओह अलका ! हाउ
इनोसेंट यू आर ?
तुम्हें पता होना
चाहिये इन्हें अपनी जूती की नोक पर फुटबॉल की तरह उछालती चलती हूँ मैं। मुझे मजा
आता है इन्हें यूटिलाइज करने में — उल्लू बनाने में —- इनका शोषण करने में। ये
बाज की तरह मुझपर झपटेगें तो मैं शेरनी की तरह इन्हें फाड़ कर न रख दूँगी। हाउ कैन
यू इमेजिन इट ?’’
मैं कौतूहल से
देखती रह गई थी तुम्हें–तुम क्या हो —समझना कठिन था मेरे लिए। तुम्हारे चरित्र
की पारदर्शिता पर मैं उस दिन सचमुच अभिभूत हुई थी जिस दिन बिना किसी दुराव छिपाव , कुण्ठा -संकोच के
तुमने अपने जीवन के उस घिनौने और कुरुप सत्य से मुझे परिचित कराया था जिसने
तुम्हारे निर्दोष ,निष्पाप बचपन को दागदार किया था । उस दिन मुझे लगा था तुम
आरपार दिखाई देने वाला एक स्वच्छ काँच हो जिसपर अबतक मेरी नजरों की गर्द जमी थी।
मेरे आँसुओं से उस दिन वह गर्द तो धुल गई थी अमृता लेकिन आज वह काँच अन्दर तक गड़
गया है —इसे मैं कैसे निकालू ? तुम्हीं बोलो।
मैं जानती हूँ
तुम्हारे अचेतन में पुरुषों के प्रति घृणा की जो गांठ किशोरावस्था में पड़ गई थी, समय के साथ
पुरानी पड़ती हुई वह और कसती गई। तुमने कभी कहा था मुझसे —‘‘खिलौने से खेलने
वाले मेरे सुकुमार बचपन को जिस पुरुष जाति ने नोंच खसोटकर लहूलुहान किया बड़ी होकर
उस पूरे वर्ग को अपने जूते की नोंक पर फुटबॉल की तरह किक आउट करती रहूँगी मैं
—पतंग की तरह अपनी डोर में बांध कर निस्सीम आकाश में भटकने के लिए छोड़ती रहूँगी
उन्हें। मैं संकल्पबद्ध हूँ अल्का —-मुझे इससे कोई नहीं डिगा सकता।’’
मैं विचलित हो
जाती थी तुम्हारे भीतर प्रतिशोध की इस संहारक अग्नि को देखकर लेकिन उस गांठ को
खोलने का कोई साधन मेरे पास नहीं था।
तुम्हारे जीवन का
वह कैसा तिक्त अनुभव था जिसकी भुक्तभोगी तुम थी और साधारणीकरण मेरे भीतर हुआ था।
कार एक्सीडेंट में मम्मी पापा के गुजर जाने के बाद सागर एण्ड सन्स की इकलौती वारिस
अमृता भंडारकर को ननिहाल की छत्रछाया मिली जहाँ उसका सुकुमार बचपन पहली बार कल्चर
पॉलूशन का शिकार हुआ और वह मानसिक रुप से विकलांग हो गई। तुमने ही मुझे बताया था
यह सब। मैं तुम्हारे जीवन की उस त्रासदी की अकेली हिस्सेदार हूँ। एक नानी को छोड़
कर उस परिवार के सबके प्रति तुम्हारे मन में असीम घृणा थी। ‘‘मामा को तो मैं
मामी के आगे दुम हिलाने वाले देशी पालतू कु़त्ते से अधिक कुछ नहीं मानती और मेरी
मामी दुर्गन्ध और सॅडास से भरी एक ऐसी बंद पेटी है जो खुल जाय तो साँस लेना दुभर
हो जाये।’’
‘‘ऐसा क्यों कहती
हो अमृता’’—मैंने आश्चर्य से
तुम्हारी ओर देखकर पूछा था और तुमने जो लज्जाजनक, लोमहर्षक बात
मुझे बताई थी,
वह आज भी मुझे ज्यों
की त्यों याद है। अपनी छोटी सी बाल उमर में तुमने पतिव्रता की खाल ओढ़े अपनी मामी
को अपने ही रिश्ते के एक भाई के साथ सहवास के ऐसे उन्मादी क्षणों में देखा था जिसे
सुनकर प्यास से मेरा कंठ सूख गया था और बीच में ही तुम्हारे मुँह पर हाथ रखकर मैं
तुम्हें चुप करा गई थी । बाद में तुमने बताया था कि मामी का वही राक्षसी वृति वाला
भाई –एक दिन सोये में तुम्हारी चड्डी को रक्तरंजित करके आराम से चहलकदमी करता हुआ
चला गया था और तुम दर्द से विकल होकर भागती, हांफती नानी माँ
के कमरे में जाकर बेहोश हो गई थी। सुबह घर में कोहराम मच गया था। नानी माँ जोर-जोर
से रोती हुई अपने बेटे को कोस रही थीं और निर्लज मामा तुम्हें एकान्त में तसल्ली
देता हुआ कह रहा था —‘‘जो हो गया उसे भूल जा अमी। यह जगत निरापद नहीं। यहाँ मैं
तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता। मैं तुम्हें हॉस्टल भेज दूँगा। तू हौसला रख।’’
तुमने घृणा से
मुँह फेर लिया था। मुझे लगा था किशोरावस्था में मन के भीतर बैठ गई वह घृणा ही
तुम्हें पुरुषों से इस तरह खेलने के लिए प्रेरित करती है ।
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रिसर्च सेंटर से
लौटकर जब तुम्हें दीवानगी की हद तक उन्मादिनी बने देखा तो मैं किसी भावी आशंका से
घिर गई थी। तुमने मेरा जीना हराम कर दिया था। उठते-बैठते, सोते जागते एक ही
बात —‘‘ओह अलका। कितने
हैण्डसम और इन्टलेक्चुअल पर्सनालिटी हैं तुम्हारे भैया की। वट भेरी प्राउडी। एक
बार नजर उठाकर भी नहीं देखा हमारी ओर। मेरी उपस्थिति को दर्ज न करने वाला वह पहला
पुरुष है। आइ एक्सेप्ट हिज चैलेंज।’’
तुम्हारी बातें
मुझे भीतर तक उद्वेलित कर गई थीं। कहीं इस बार अपने जूते की नोंक पर किक आउट करने
के लिए तुमने मेरे अरविन्द दा को तो निशाने पर नहीं ले लिया ? मैंने मन ही मन
उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना की थी पर विधि का विधान – वह तो अटल होता है ! तुम
वर्त्तमान को रच रही थी और भविष्य के गर्भ में कुछ और अंकित हो रहा था ।
एक दिन तुमने बड़े
लाड़ से मुझसे कहा —-‘‘हाय अलका , तुमने इतना झूठ क्यों कहा —तुम्हारे भैया हरगिज तुमसे ग्यारह साल बड़े नहीं हो सकते
—वे तो बहुत डेलिकेट लगते हैं। अच्छा बताओ, शादी क्यों नहीं
की अब तक ? उनपर तो भौरों की
तरह मंडराती होंगीं तितलियाँ़।’’
मैने बहुत रुखाई
से कहा था तुमसे —‘‘तितलियों की ओर देखने की फुर्सत नहीं है उन्हें। अपने
लक्ष्य के प्रति ऐसे डिभोटेड हैं कि घर-बार, रिश्ते-नाते सब
विस्मृत कर दिये उन्होंने। बड़े काकू और काकी माँ से मिले भी उन्हें साल-दर-साल हो
जाते हैं। थक हारकर वे लोग ही आते हैं मिलने। देश -विदेश के दौरे ,कान्फ्रेंस से
फुर्सत मिले तब तो देखें तितलियों को। शादी के लिए मनुहार करते – करते गुजर गई
दादी माँ हमारी और रो-रो कर आँखों में अमावस घिर आया काकी माँ के, पर दादा ने तो
जैसे भीष्म -प्रतिज्ञा कर ली है—‘‘नहीं डालूंँगा बेड़ियॉ पावों में। मैं धरती आकाश के बीच एक
सेतु बनूंगा संतुलन का। बंध्या होती प्रकृति को सुहागन बनाऊँगा — वही प्रणय बंधन
होगा मेरा। ’’
‘‘अरे, तब तो बहुत बड़े दार्शनिक
हैं तेरे अरविन्द दा। लगता है थोड़ी फिलासफी का अध्ययन मुझे भी करना पड़ेगा।’’
मैं चिढ़ गई थी
तुम्हारे कटाक्ष पर। इसके एक सप्ताह बाद ही एक रजिस्ट्री पत्र मिला था मुझे, जिसमें इकालॉजी
एण्ड इन्भारन्मेंट रिर्सच इन्स्टिट्यूट में रिर्सच फेलो के रुप में तुम्हारा चयन
हो गया था। तुम खुशी से झूम उठी थी और मैं किसी भावी आशंका से भयभीत ।
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लेकिन आज यह सब
मुझे याद क्यों आ रहा है अमी ? क्या फायदा है यह सब गूथने-मथने से। तुम्हारे पत्र ने मुझे
पूरी तरह झकझोर दिया है — एक निःशब्द धमाका हुआ है मेरे भीतर और मैं टुकड़ों में
बँट गई हूँ। मैं कैसे सहेजूॅ अपने को — क्या करुँ तुम्हारे इस पत्र का ?
तुम जानती हो बड़े
काकू और काकी माँ की जिजीविषा तुम्हारे गर्भ में पल रहे विरवे को लेकर स्पन्दित है
अन्यथा वे उसी दिन मर गये थे जिस दिन अरविन्द दा के प्लेनक्रेश का वह दारुण समाचार
रेडियो, दूरर्दशन पर आया
था। कौमा की स्थिति में शहर के अस्पताल में दस दिनों तक इन्टेंसिव केयर में जीवन
मृत्यु के बीच झुलते हुए यही खबर उन्हें बचा पाई थी कि तुम माँ बनने वाली हो। उनकी
वंशवेलि सामूल नहीं उजड़ी है —वह फिर से हरी भरी होकर लतरेगी ,फलेगी-फूलेगी। तब
से उनकी सांसें,
उनकी आँखें, उनकी समस्त चेतना
सिर्फ तुम्हारी ओर लगी है। उनके भीतर का अंधेरा भोर के उजास की बाट देख रहा है। ऐसे
में उनसे जाकर मैं कैसे कह दूँ अमृता कि तुम्हारे गर्भ में उनका कुलदीपक नहीं
—एक विकृत मानसिकता का विषबीज अंकुरित हो रहा है। नहीं अमृता नहीं। मुझमें इतनी
सामर्थ्य नहीं कि दो जोड़ी कातर आँखों में जुगनू की तरह भुकभुकाती आशा की एक लौ को
अपनी फूँक से बुझा दूँ । पॉलूशन मॉनिटरिंग का यह गुरुतर कार्यभार तुम मुझे मत
सौंपो—मैं नहीं कर पाऊँगी इसे। अनगिनत बार पढ़ चुकी हूँ तुम्हारे इस पत्र को।
एकबार फिर उसके शब्दों से मुठभेड़ करने जा रही हूँ लेकिन यह मेरा अंतिम प्रयास होगा
—इस पार या उस पार ।
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तुमने लिखा है
—-‘‘अरविन्द मेरी
जिन्दगी में एक नशे की तरह आया और छाया रहा। अपनी बाहों में आकाश को बाँध लेने का
नशा था वह —मुठ्ठियों में चाँद को निचोड़ देने का पागलपन जैसा। लेकिन वह मेरी
सबसे बड़ी भूल थी अलका। निस्सीम आकाश को मेरी स्थूल बाहें तो नहीं बाँध सकी —हाँ, शून्य के उस
पारावार में एक टेर बन कर मैं जरुर खो गई ।
तुम्हारे अरविन्द
दा बंजर होती धरती और रुग्ण होती प्रकृति की पीड़ा को देख सकते थे ,समझ सकते थे
—उसके परिशमन के लिए दिन-रात एक कर सकते थे लेकिन हाड़-मांस की एक जीवित काया को
—सृष्टि की एक सम्पूर्ण इकाई को उन्होंने शुष्क मरुभूमि में बदल दिया था। उनके
साथ मेरे जीवन का सफर उस रेत पर मृगतृष्णा के पीछे दौड़ते रहने का दारुण सफर था।
मैं थक गई थी — पस्त हो गई थी — रेत का सफर तय करते-करते —मृगतृष्णा के पीछे
भागते-हाँफते ।
जर्मनी में हो
रहे अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण पखवारा समारोह का वह समापन दिवस था। ग्लोबॉल
इन्भॉरन्मेंटल इशूज पर अरविन्द का एक पेपर काफी सराहा गया था। विश्व की बड़ी-बड़ी
हस्तियों और वैज्ञानिकों के बीच उसके पार्श्व में बैठी मैं सचमुच अपने भाग्य पर
इठला रही थी। बार-बार अपनी हथेलियों की लकीरों को निहार रही थी। मेरे भीतर कुछ
पिघल रहा था बाहर आने को। उस क्षण मैं अरविन्द को अपनी बाहों में भरकर अटूट प्यार
करना चाह रही थी और बताना चाह रही थी उसे कि वह मेरा एकनिष्ठ प्यार है — पहला और
अंतिम जिसके लिए मैं अपना सब कुछ होम कर सकती हूँ। लेकिन वह मेरी भावनाओं और
संवेदनाओं से नितान्त असंपृक्त अपने किले के भीतर कैद था।
होटल के एकान्त
कमरे में उस दिन मैं सचमुच बहुत भावुक हो उठी थी। मैंने उसी विह्नलता में कहा था
उससे —–‘‘अरु तुम मेरे
जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो। मैंने तुम्हें अथाह प्यार किया है। कण-कण छीज गई मैं
तुम्हारे लिए लेकिन इस सूक्ष्म अनुभूति से परे, मैं स्थूल रुप
में भी तुम्हें महसूसना चाहती हॅूँ —– सहेजना चाहती हूँ। तुम्हें पाकर भी मैं
रीती क्यों हूँ अबतक अरु —- मुझे बताओ ।
तुम घरती और
प्रकृति की हरियाली के लिए बेचैन हो — ओजोन में हो रहे सुराग को लेकर चिन्तित हो
लेकिन एक सम्पूर्ण धरती तुम्हारे सामने दरक रही है —- बंजर हुई जा रही है — उस
ओर दृष्टि क्यों नहीं जाती तुम्हारी ? ऐसी जड़ता, ऐसी तटस्थता, ऐसा विराग केवल
मेरे लिए ही क्यों है तुम्हारे मन में। बोलो अरु—जवाब दो।
मेरे भीतर का
सारा अहंकार पानी बनकर बह गया उस क्षण लेकिन वह आत्मजीवी विराग कहीं से भी खण्डित
नहीं हुआ।
मेंटल डिप्रेशन
के ऐसे ही किसी नाजुक क्षण में रस्तोगी मेरे करीब आया। वह जीनियस रिसर्च फेलो
तुम्हारे अरविन्द दा का सबसे चहेता छात्र था जिसके कंधे पर दोनाली रखकर मैंने
अरविन्द के पौरुष को आहत करने के लिए गोली चलाई थी लेकिन मेरा वह निशाना भी उल्टा
पड़ा अलका—अपने ही निशाने से घायल ,क्षत-विक्षत लहूलुहान होकर मैं मरती रही हर
बार।
हम विदेश यात्रा
से लौट आये थे जब मुझे पता चला कि मेरी परती कोख में एक अंकुर फूटा है। मैं खुशी
से पागल हो गई थी। मुझे लगा था आकाश मेरे कदमों में औंधा पड़ा है लेकिन वह एक दिवा
स्वप्न था। अरविन्द ने सुनकर बढ़े ही तटस्थ भाव से कहा —‘‘आई नो द रियालिटी, रस्तोगी ने
पश्चाताप की आग में जलते हुए मुझसे सबकुछ बता दिया था, लेकिन मैं कहीं
से भी तुम्हें दोषी नहीं मानता अमृता। जो रिश्ता गले में फाँस बनकर एक उन्मुक्त
सांस भी न लेने दे उसे उतार फेंकना चाहिए। मैं वही फाँस हूँ तुम्हारे लिए —उसे
उतार फेंको। आज मैं रिश्ते के इस फाँस से तुम्हें मुक्त करता हूँ। तुम्हारे सामने
मनुहार करती एक पूरी जिन्दगी बाहें फैलाये खड़ी है —उसकी ओर देखो —उसे स्वीकार
करो।’’ मैं अपने ही खोदे
गढ़े में मुँह के बल गिरी असहाय सी उसकी ओर देखती रह गई थी।
अरविन्द ने कहकर
रिश्ते की फाँस से तो मुझे जरुर मुक्त कर दिया था लेकिन क्या मैं सचमुच मुक्त हो
पाई ?
यह सब मैं तुमसे
इसलिए कह रही हूँ अलका कि तुम मेरे बाहर और भीतर की सारी उथल पुथल को देख सको, जान सको और उनके
बीच पल-पल मरती एक जीवित संवेदना की अनकही छटपटाहट को महसूस सको —–।
हम दोनों के बीच
निरन्तर एक अटूट सन्नाटा पसरता जा रहा था जिसे तोड़ने में शब्द सामर्थ्यहीन हो गये
थे —अनुभूतियाँ गूंगी हो गई थी। भीतर हर क्षण कुछ घटित होता रहता था लेकिन
प्रतिक्रिया कहीं व्यक्त नहीं होती थी। लेकिन न्यूयार्क जाने से एक दिन पहले
अरविन्द ने अप्रत्याशित रुप से वह सन्नाटा तोड़ा था। जानती हो अलका, वह मेरे जीवन का
सबसे अहम दिन था। मौन की समाधिस्थ चेतना टूटी थी और अपने हवनकुण्ड में समिधा की
तरह होम हुए मेरे सम्पूर्ण वजूद को साबुत लौटाते हुए उसने कहा था —-
‘‘तुमने मुझे हमेशा
आत्मजीवी विराग कहा लेकिन तुम्हें नहीं मालूम उस विराग के भीतर का राग तुम्हीं हो
अमी। मैं तुम्हें हरगिज नहीं नकार सकता। तुम्हारे भीतर जल की तरलता और अग्नि की
दाहकता दोनों समान रूप में है और आज के परिप्रेक्ष्य में तुम ध्वंस के उस अशेष
बिन्दु पर खड़ी हो जहाँ से निर्माण की एक सापेक्ष स्थिति पुनः जन्म लेगी। मैं रहूँ
या ना रहूँ – लेकिन उस स्थिति के प्रति
मेरी आस्था अडिग है। तुम सृष्टि की एक निर्बध सांस हो अमृता जिसे मैंने जीवन की
तरह महसूसा है।’’
मैं कटे पेड़ सी
उसकी बाहां में गिर गई थी। मैं उसके सीने से लगी फूट-फूटकर रो पड़ी थी – ‘‘अब तक तुम कहाँ
थे अरु ? इतनी देर क्यों
कर दी ?’’ उसने अंजुली में
मेरे चेहरे को भर कर कहा था —‘‘ तुम्हारे भीतर ही था अमी — तुम्हारे अचेतन में पड़ी एक
जटिल गाँठ को खोल रहा था।’’ मैं उस विराट व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक हो गई थी ।
दूसरे दिन जीवन
से रुख्सत होने से कुछ घंटे पहले ऐरोड्राम पर उसने मेरी डबडबाई आखों को चूम कर कहा
था —‘‘अपनी उत्पत्ति की
कथा जानती हो अमृता —समुद्र मंथन के बाद देवताओं को एक घड़े में बंद मिली थी तुम
और इस युग में प्रदूषित संस्कृति के बीच तुम मुझे मिली हो। मैं तुम्हें हृदय से
आर्शीवाद देता हूँ—तुम भागीरथ की एक शालिन धार बनो जिसमें बाढ़ का प्रलयंकारी
ज्वार कभी न आये। अपनी शीतल धार से तुम शुष्क मरुभूमि को भी उर्वर कर सको —
इक्कीसवीं सदी में प्रदूषण मुक्त एक नई सभ्यता और संस्कृति को उद्घाटित कर सको
–यही कामना करता हूँ तुम्हारे लिए।’’
अंतिम समय का वह
आशीर्वाद आज मेरे सम्पूर्ण जीवन की संचित पूॅजी बन गई है अलका। मेरा गन्तव्य है वह
—मुझे वहाँ तक पहुँचना ही होगा। तुम जानती हो मैं किसी छद्म में नहीं जी सकती और
किसी के विश्वास को छलना भी मेरे लिए बहुत कठिन है। मेरे गर्भ में तुम्हारे खानदान
की वंशबेली नहीं प्रतिशोध का एक जहरबेल पनप रहा है। इस विष बीज को मैं प्रदूषित
संस्कृति का प्राण बीज बनाना चाहती हूँ अलका । क्या तुम बड़े काकू और काकी माँ को
इस सत्य से परिचित करा सकोगी ? उनके आशीर्वाद की गंगा में डूबकी लगाकर मैं एक निर्मल धार
होना चाहती हूँ अलका। एक अभिशप्त कोख के पॉलूशन मॉनिटरिंग का यह कार्य तुम्हीं कर
सकती हो। करोगी ना ? मैं ध्वंस के उस शेष बिन्दु पर खड़ी हूँ जहाँ से निर्माण की
कोई सापेक्ष स्थिति पुनः जन्म लेगी
—किसी की अडिग आस्था के प्रति मेरी इस प्रतिबद्धता को तुम समझो अलका। मुझे
तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी ।
‘‘अमृता । तुम्हारे
इस आस्था कलश को एक निवेदित पुष्प की तरह बड़े काकू और काकी माँ के चरणों में
विसर्जित करने के लिए मैं प्रस्तुत हूँ। तब तक के लिए मुझे थामे रहना—-।’’
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सुधीर शर्मा कैदी न० 307 28/4/2000
केन्द्रीय कारागार आग्वाद
कांदोलिम , बार्देश
गोवा – 403519
आदरणीय पूनम सिंह जी,
हार्दिक अभिवादन,
एक अनजान, अपरिचित कैदी के पत्र को पाकर आपको
कितनी हैरानी होगी, कह नहीं
सकता पर इस बात का विश्वास है, इससे
आपको खुशी ही मिलेगी।
‘हंस’ मार्च में आपकी रचना ‘पॉलूशन मॉनिटरिंग’ से मिलना हुआ, रचना ने दिल को छू लिया, सोचा ऐसी अनुपम और अनूठी रचना की
रचनाकार को अपना पाठकीय आभार व्यक्त करना चाहिए, इस पत्र से मैं अपने उसी फर्ज को पूरा
कर रहा हूँ।
आपकी रचना के बारे में बाद में। कृपया
पहले यह जान लें कि आपकी इस रचना से कैसे मिल सका। करीब चार वर्ष पहले इंडिया टुडे
में ‘पहल’ की समीक्षा पढ़कर अपने एक साथी बंदी से
अनुरोध किया कि वह ‘पहल’ की सदस्यता ले, उसके सदस्य बनने के बाद मैं भी पहल के
संपादक ज्ञानरंजन से संवाद बना सका। (मैं यहाँ इस हालत में हूँ किसी भी पत्रिका को
खरीद कर नहीं पढ़ सकता) ज्ञान दा ने मुझ कैदी पाठक को कबूल लिया, ज्ञान दा के जरिये मेरा संवाद बहुत से
लेखकों, संपादकों से बना। मैंने हंस की ख्याति
सुन रखी थी। सोचा इसके संपादक से हंस का एक अंक दान में माँगा जाये और संपादक
राजेन्द्र यादव को एक पत्र लिखकर ज्ञान दा के द्वारा भिजवा दिया। राजेन्द्र जी ने
मुझे ‘हंस’ के वरदान से तो नवाजा ही, साथ में अपनी संपादकीय करुणा के चलते
मेरा वह पत्र हंस में भी छाप दिया। तब से हंस मुझे नियमित रूप से मिल रही है। इस
तरह आपकी रचना से मिलना संभव हुआ।
यह सब पढ़कर आप सोचेंगी कि यह कैसा अजीब
पाठक है जो आपकी रचना के बारे में न लिखकर यह क्या बेकार की बातें लिख रहा है।
पूनम जी, शायद यह मेरी अशिष्टता भी मानी जाय, लेकिन आप जैसी रचनाकार को यह बताना
मुझे जरूरी लगा कि उसकी रचना से मैं कैसे मिल सका।
मैं आपकी इस अनूठी रचना पर क्या व्यक्त
होऊँ ? समझ नहीं आ रहा, मैं कोई गहरा पाठक नहीं हूँ और न ही
मेरा कोई साहित्यिक परिवेश रहा है, बल्कि
मेरा पाठकीय जन्म ही रचनाकारों के साहित्यदान से जेल में हुआ है। चुकी मेरी पाठकीय
आयु बड़ी अल्प और कच्ची है इसलिए मैं गहरी रचनाओं के मूल को नहीं पकड़ पाता
हूँ। आप इसी से संतोष कर सकती हैं कि एक
आम कैदी ने आपकी रचना को जानने समझने की कोशिश की।
पूनम जी, मैं आपकी रचना ‘पॉलूशन मॉनिटरिंग’ के बारे में क्या व्यक्त करूँ, समझ नहीं पा रहा हूँ। ऐसी गहरी और
विस्फोटक रचना से मेरा बहुत कम साक्षात्कार हुआ है और मेरी पाठकीय क्षमता ऐसी नहीं
है कि मैं ऐसी विस्फोट रचना के मूल को समझ पाऊँ। रचना को एक बार पढ़ने के बाद, मैंने सम्मोहन की सी हालत में उसे फिर
से पढ़ा। विचारों के कई विस्फोट दिमाग में हुए, जिससे कुछ देर तक मैं सामान्य न हो
पाया। जब सामान्य हुआ तो आपके परिचय को फिर से पढ़ा और साथ में छपे फोटो को भी बड़ी
देर तक देखा। ऐसी अद्भुत अनूठी रचना को रचने वाली लेखिका को इतनी सादगी में देखकर
आश्चर्य भी हुआ। आपके शुद्ध भारतीय चेहरे
को देखकर मन में संतोष हुआ। आपके चेहरे को पढ़ते वक्त उन मानव विज्ञानी महान
इंसानों की बातें कोंध गई जो उन्होंने मुखाकृति के हर भाग को लेकर कही है। आपके
सौम्य, सुसंस्कृत सुंदर चेहरे ने अपना अलग
प्रभाव छोड़ा, लेकिन आपकी सादगी देखकर जरुर हैरानी
हुई, वरना मैंने सुंदर चेहरों पर फूहड़ता ही
अधिक देखी है। जीवन में इतनी उपलब्धियाँ हासिल करने के बाद भी आप इतनी सादगी से
हैं, इससे अंदाज लग जाता है व्यावहारिक जीवन
में भी आप बड़ी सादगी भरा जीवन जीती होंगी। आपके चेहरे की गहरी व गंभीर आँखें ही
थोड़ा आभास देती हैं कि इस साधारण सी दिखने वाली महिला के भीतर असाधारणता छिपी है।
मेरे इस तरह लिखने से आप कहेंगी बड़ा
अशिष्ट और बेवकूफ पाठक है, जो
आपकी रचना के बारे में लिखते लिखते आपके चित्र के बारे में लिखने लगा। अपनी इस
मूर्खता का एहसास मुझे है, लेकिन
आपकी इस अद्भुत रचना को पढ़ने के बाद मुझे आपका चित्र फिर से देखने के लिए मजबूर
होना पड़ा। चित्र देखने के बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ। मैंने लिख दिया। कृपया इसे
अन्यथा न लीजियेगा।
पूनम जी मैंने पत्र-पत्रिकाओं में आपके
नाम की चर्चा को पढ़ा है। पत्र-पत्रिकाएँ आपका जिक्र एक संवेदनशील रचनाकार के रूप
में करती हैं। तब जिज्ञासा उठती थी इस रचनाकार की किसी रचना से मिलने का। सौभाग्य
कब मिलेगा। हंस ने मुझे यह मौका दे दिया। मैं नहीं जानता साहित्य की दुनिया में
आपका क्या कद या रूतवा है, जानने
की जरूरत भी नहीं, अपनी
इस रचना से ही आप मेरे लिए हिन्दी की महत्वपूर्ण व मूल्यवान लेखिका हो गई हैं। यह
बड़ी गर्व व संतोष वाली बात है कि हिन्दी साहित्य के पास आप जैसी सामर्थ्यवान
लेखिका हे। मेरे कुछ साथी बंदियों ने आपकी इस रचना को पढ़ा और उसपर आपस में खूब
चर्चा की। उनकी चर्चा को सुनकर कह सकता हूँ, जब आपकी यह रचना आम कैदियों को सोचने
विचारने पर मजबूर कर सकती है तो फिर सभ्य और पढ़े लिखे इंसानों की बात ही कुछ और
होगी।
मैने अपने पाठकीय जीवन में इस स्तर की
रचनाएँ बहुत ही कम पढ़ी है। कहानी के शीर्षक को ही पढ़ते हुए जिज्ञासा हो गई थी। यह
वैज्ञानिक नाम की शीर्षक वाली कहानी कैसी होगी, मैंने बड़ी सतर्कता के साथ कहानी को
पढ़ना शुरू किया। शुरूआत की पंक्तियों ने ही आभास दे दिया, मैं किसी नये अनुभव से गुजरने वाला
हूँ। फिर अल्का के साथ-साथ मैं जैसे-जैसे रचना में उतरता गया उससे मुझे महसूस हुआ
जैसे मैं अल्का,
अमृता और अरविंद दा के साथ हर घटना को
जी रहा होऊँ। जिस सरल, सहज
जीवंत भाषा में आपने इस रचना को जीवित किया है वह चमत्कृत करने वाला है। सघन
मानवीय संवेदनाओं को आपने बड़ी बारीकी से पकड़ा है। आपकी दृष्टि और सोच का मैं कायल
हुआ हूँ। रचना के पात्रों ने अपनी सहज विश्वसनीयता बनाई है। यह आपकी लेखनी का कमाल
है जो आपने कथा के चरित्रों में उसकी आत्मा को जिंदा कर दिया है। कथा के पात्रों
के आंतरिक व मानसिक द्वंद्व पाठक को अपने साथ बहा ले जाते हैं। वह भौंचक सा घटनाओं
को घटते देखता है। अपने सशक्त कथ्य से यह पाठकों के दिलों को छू लेती है।
आपकी यह रचना इतनी बहुआयामी है कि
जिसमें पाठक जीवन के कई रंग खोज सकता है। वैसे भी पाठक अपनी-अपनी बुद्धि की क्षमता
के हिसाब से ही रचना को समझ पाता है, उससे कुछ ग्रहण कर पाता है। आपकी इस रचना ने मेरे दिलो दिमाग में
विचारों और जज्बातों का तूफान खड़ा कर दिया। अमृता ने अपने चरित्र और ईमानदारी से
बड़ी गहरी छाप छोड़ी। आपकी कहानी के सभी पात्र अपनी-अपनी जगह सही और ईमानदार हैं।
जिस तरह आपने अमृता, अल्का
और अरविंद दा के किरदारों को बुना है वह विस्मित करता है। मुझे आपकी कहानी के सभी
प्रमुख पात्र आदर्श चरित्र लगे। अल्का अपनी सहेली अमृता के प्रति गहरा जुड़ाव रखती
है, क्योंकि दोनों ही सहेली संतुलित और
विवेकशील व्यवहार वाली हैं। अमृता को अपने बालपन में पुरुष की हवस का शिकार होना
पड़ता है, व अपनी पवित्रता का ढ़ोग करती मामी को
वह अपने रिश्ते के भाई के साथ सहवास करते देख लेती है। जाहिर है इससे उसके बाल मन
पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। यह स्वाभाविक है। परन्तु कथा नायिका अमृता तब भी बचपन की
उस दुर्घटना के प्रति ज्यादा कठोर दृष्टि नहीं रखती। अमृता जब अरविंद दा की तरफ
आकृष्ट होती है और बाद में उससे ब्याह भी कर लेती है, तब लगता है अमृता से ज्यादा
सौभाग्यशाली दूसरी स्त्री न होगी, क्योंकि
अरविंदा दा भी बड़े जहीन-शहीन शख्स हैं जो इतना नाम पाने के बाद भी अपने पैर जमीन
पर रखते हैं। लेकिन अरविंद दा एक पूर्ण पति साबित नहीं हुए। तब लगता है कि सिर्फ
नाम-दाम का पति होना किसी पत्नी को पूर्णता नहीं दे सकता। अमृता, बुद्धिमान, विवेकशील लड़की थी, उसने अरविंद दा को सोच समझ कर ही पति
चुना होगा, परन्तु उसके सपने धाराशायी हो गये।
अमृता के यह शब्द एक नारी की, एक
पत्नी के अंर्तमन की पीड़ा को महसूस कराते हैं – ‘‘अरविंद मेरी जिंदगी में एक नशे की तरह
आया और छाया रहा, अपनी
बाँहों से आकाश को बाँध लेने का नशा था वह। मुट्ठियों में चाँद को निचोड़ देने का
पागलपन जैसा, लेकिन वह मेरी सबसे बड़ी भूल थी अल्का।
निस्सीम आकाश को मेरी स्थूल बाँहें तो नहीं बाँध सकीं – हाँ, शून्य के उस पारावार में एक टेर बनकर
मैं जरूर खो गई। तुम्हारे अरविंदा दा बंजर होती धरती और रुग्ण होती प्रकृति की
पीड़ा को देख सकते थे, समझ
सकते थे, उसके परिशमन के लिए दिन रात एक कर सकते
थे, लेकिन हाड़ मांस की एक जीवित काया को, सृष्टि की एक संपूर्ण इकाई को उन्होंने
एक शुष्क मरुभूमि में बदल दिया था। उनके साथ मेरे जीवन का सफर उस रेत पर मृगतृष्णा
के पीछे दौड़ते रहने का एक दारुण सफर था। मैं थक गई थी, पस्त हो गई थी – रेत का सफर करते-करते, मृगतृष्णा के पीछे भागते-भागते।’’
अमृता की यह पीड़ा पाठक के दिल को दहला
देती है। अरविंद दा जैसा प्रतिभाशाली, नामी इंसान एक पति के रूप में असफल रहता है। अमृता की यह पीड़ा उन सभी
पत्नियों की पीड़ा है जो पति के रूप में सफल, नामी, आर्थिक सम्पन्न इंसान को पाती हैं और
तमाम सुख सुविधाओं के बाद भी उसके भीतर की पत्नी खाली-खाली सी रहती है। वह अपने
भीतर ही भीतर घुटती, कुण्ठित
होती रहती है। आपकी अमृता से साक्षात्कार करते हुए मेरे जेहन में कई अमृताएं जिंदा
हो गईं जिन्हें मैंने अपने अतीत में घुट-घुट कर जीते देखा है। अरविंद दा बहुत
नामी-दामी इंसान हैं। अपनी पत्नी अमृता को वे देश-विदेश के सेमिनारों गोष्ठियों
में लेकर जाते हैं पर वे उसे वह प्यार नहीं दे पाते जिसकी एक पत्नी को जरूरत होती
है। भौतिक सुख सुविधा तो सबकुछ नहीं होती न, पति-पत्नी आपस में प्यार से एक दूसरे
को पूर्णता देते हैं। पत्नी की अपनी इच्छाएँ होती हैं, जिन्हें पति ही पूरा कर सकता है। अमृता
के सवाल पाठक के दिलो दिमाग को झकझोर देते हैं।
अरविंदा दा के अपने काम में हद से
ज्यादा मशरुफ होने से अमृता मेंटल डिप्रेशन का शिकार हो जाती है। ऐसे ही किसी
नाजुक क्षणों में वह रस्तोगी के करीब हो जाती है, और उसकी कोख में रस्तोगी का अंश रह
जाता है। अमृता ने यह कदम अरविंद के पौरुष को आहत करने के लिए उठाया। मैं अमृता के
इस कदम की भर्त्सना नहीं कर सकता, क्योंकि
अरविंदा दा अमृता को पति का सही हक नहीं दे पाते। अमृता का अपना दिल है, अपनी इच्छाएँ हैं। अमृता के ये वाक्य
स्थिति को तथ्यपरक ढ़ंग से समझाते हैं – ‘‘तुम धरती और प्रकृति की हरियाली के लिए बेचैन हो — आजोन में हो रहे
सुराख को लेकर चिंतित हो, लेकिन
एक सम्पूर्ण धरती तुम्हारे सामने दरक रही है, बंजर हुई जा रही है, उस ओर दृष्टि क्यों नहीं जाती तुम्हारी
? ऐसी जड़ता, ऐसी तटस्थता, ऐसा विराग केवल मेरे लिए ही क्यों है
तुम्हारे मन में ? बोलो
अरु — जबाब दो — ।’’ सबसे
बड़ा आश्चर्य मुझे तब हुआ जब अरविंदा दा सच को जानने के बाद अमृता से कहते हैं – ‘‘आई नो द रियलिटी, मैं कहीं से भी तुम्हें दोषी नहीं
मानता अमृता, जो रिश्ता गले में फांस बनकर एक
उन्मुक्त सांस भी न लेने दे उसे उतार फेंकना चाहिए, मैं वहीं फांस हूँ तुम्हारे लिए —
उसे उतार फेंको,
आज मैं तुम्हें इस रिश्ते के फांस से
मुक्त करता हूँ। तुम्हारे सामने मनुहार करती एक जिंदगी बाँहें फैलाये खड़ी है, उसकी ओर देखो, उसे स्वीकार करो।’’ यहाँ पर अरविंद का व्यक्तित्व बड़ा ही
मानवीय व विराट हो जाता है। लगता है जैसे उसे इस बात का अहसास हो जाता है कि वह
अपनी पत्नी के भीतर की नारी के साथ न्याय नहीं कर सका। अरविंद जैसे सच्चे इंसान
(पुरुष) कम ही होंगे, क्योंकि
पुरुष के भीतर के अहं से मैं परिचित हूँ। वह किसी भी कीमत पर यह स्वीकार नहीं
करेगा कि उसकी पत्नी किसी की अंकशायिनी बनी हो। उससे बड़ा कि उसकी कोख में दूसरे का
अंश पल रहा हो। अरविंद दा के इस बड़प्पन ने मुझे नई मानवीय संवेदनाएँ दीं। पूनम जी
यह अलग से बहस का विषय है कि किसी स्त्री को अपनी देह सौंपने का अधिकार है कि नहीं, या भ्रूण पालने का अधिकार उसका ही होना
चाहिए। मर्द इस मामले में बड़ा ही मक्कार व धूर्त है। आपकी कथा नायिका अमृता तमाम
गलती के बाद भी मेरी आदर्श नायिका है। यह अमृता के ही जिगर की बात है कि वह हवाई
दुर्घटना में अरविंद के मरने के बाद अल्का, काकू, काकी को वह राज बताने का निर्णय लेती
है, जो उसकी जिंदगी में भूचाल ला सकता है।
उसे काकू, काकी का घर त्यागना पड़ सकता है। बल्कि
पूरे जीवन भर कलंकित जीवन जीना पड़ सकता है। अमृता चाहती तो इस राज को बड़े आराम से
छुपा सकती थी,
लेकिन उसकी अर्न्तात्मा ने ऐसा करने से
मना कर दिया। अमृता अपनी इस शुद्धता से यकायक ही महामानव बन जाती है। पूनम जी
अमृता के इस चरित्र पर बड़े विस्तार से लिखा जा सकता है। वह स्पष्ट, दृढ़ और बड़ी ईमानदार, हिम्मती स्त्री है। ढ़ोंग, फरेब, झूठ उसे जरा भी पसंद नहीं। उसका जीवन
जीने का अपना नजरिया है। मैं उसे सच्ची नायिका का सम्मान देता हूँ। आपकी इस रचना
ने मेरी चेतना में हलचल मचाई। मुझे मानवीय दृष्टिकोणों पर सोचने विचारने के लिए
मजबूर किया। उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।
अपने बारे में क्या लिखूँ ? मैं एक 37 वर्षीय कैदी हूँ जो अपनी नशे की लत (28 ग्राम ब्राउन शुगर रखने) की सजा काट
रहा है। 8 वर्ष सजा काटते हो गये हैं और 3 वर्ष बाकी है। हमारी जेल में कैदी के
लिए कोई काम नहीं है और न ही यहाँ पुस्तकालय है। इससे 22 घंटे बंद बैरक में रहकर लम्बी सजा के
कैदी को सजा काटना बड़ा यातना दायक हो जाता है। अगर रचनाकारों का मजबूत भावात्मक
मानसिक सहारा मुझे न मिलता तो जरूर मेरी दिमागी सेहत गड़बड़ा जाती। इस बात का विशेष
रूप से उल्लेख करना चाहूँगा कि महिला लेखकों से मुझे विशेष स्नेह व सहारा मिला है।
उनकी मदद के चलते ही मैं जेल के कैंटीन से कागज, पेन, डाक सामग्री खरीद पाता हूँ। महिला
लेखकों के आचरण ने मुझे नारी की करुणा, साहस, शक्ति
की व्यावहारिक परिभाषा समझाई। अब मुझे नारी का आदर व सम्मान करना बेहतर ढ़ंग से आ
रहा है। हालातों, वक्त
से मैं जीवन के सबकों को सीखने में जुटा हूँ। इस तरह जीवन की जेल यात्रा जारी है।
आपने मेरे पत्र को समय दिया इसका भी आभारी हूँ आपकी खुशी और सेहत की कामना के साथ
—-
आपका
दूसरा पत्र
सुधीर
शर्मा कैदी न० 307
केन्द्रीय
कारागार आग्वाद
कांदोलिम
, बार्देश
गोवा
– 403519
आदरणीय पूनम सिंह जी,
हार्दिक अभिवादन
आज जब मुझे एक पत्र दिया गया तो हमेषा
की तरह किसका होगा की उत्सुकता से भरकर मैंने पते की लिखाई पर नजर डाली। वह मुझे
अपरिचित सी लगी। दूसरे ही क्षण प्रेषक के नाम की ओर नजर खुद-ब-खुद घूम गई। पूनम
सिंह पढ़ते ही जेहन में विस्फोट सा हुआ और ‘पॉलूशन मॉनिटरिंग’ की पूनम सिंह जेहन में जिंदा हो गई।
खुशी, अविश्वास, रोमांच, उत्तेजना से भरकर मैंने पत्र को खोला
और बड़े उत्साह और उत्कंठा के साथ पढ़ने लगा। पहले पैराग्राफ को पढ़कर ही महसूस हो
गया जीवन में कुछ असाधारण सा घट गया है। बड़े जज्बाती झंझावतों के साथ मैंने पत्र
को पूरा किया। एक बार पढ़ने के बाद मैंने पत्र को फिर से रूक-रूक बड़ी देर में पूरा
किया। वजह, पत्र हर पंक्ति के साथ मुझे दिमागी और
जज्बाती अंधड़ में इस तरह उठाता पटकता रहा कि मुझे अपने को समेटने, खोजने में वक्त लग जाता। मेरी भीतरी
हलचल इतनी तेज थी कि उसका असर चेहरे पर उतर आया, जिसे साथी बंदियों ने भी महसूस किया, जो मुझे चोर नजरों से देख रहे थे। जब
मैंने दूसरी बार बड़ी देर में पत्र को पूरा किया तो हमेशा की तरह उनकी सवालिया
नजरें मुझे देखने लगीं। मैंने बड़ी कोशिश से अपने को संयत किया और उनकी नजरों को
देखा। दो बंदी जो रचनाकारों के पत्रों के प्रति बड़ी जिज्ञासा से भरे रहते हैं, ने हमेशा की तरह पूछा – शर्मा भाई यह
किस रचनाकार का पत्र है ? मैंने
लरजते शब्दों में कहा – ‘पॉलूशन
मॉनिटरिंग’ की पूनम जी का पत्र है। सुनते ही उन
दोनों के साथ वह बंदी भी चौंक गये जिन्होंने ‘पॉलूशन मॉनिटरिंग’ पढ़ी थी। (अमूमन यह साथी किसी भी
रचनाकार के प्रथम पत्र को जरूर पढ़ते हैं) उन्होंने खुशी से चहकते हुए कहा – अरे ‘पूनम सिंह’ का पत्र आया है और वह बड़ी जिज्ञासा और
उत्सुकता के साथ मेरे हाथ में थमे पत्र को देखने लगे। मैंने उनकी इच्छा को भाँप
लिया और भींगे शब्दों में कहा – तुम यह पत्र पढ़ कर जान लो कि पूनम जी ने हम
कैदियों का शुक्रिया किस तरह अदा किया है और आपका पत्र उन्हें थमा दिया। वह आपके
पत्र को पढ़ने में जुट गये और मैं उनके चेहरों को पढ़ने में। पत्र पढ़ते हुए साथियों
के चेहरे पर अविश्वास, आश्चर्य, हैरत, खुशी और उत्साह न जाने क्या-क्या था।
पत्र पूरा करने के बाद उन्होंने पत्र मुझे दिया। मैंने मौन रहकर उनकी भावनाएँ
जाननी चाही, पर उन्हें शब्द ही नहीं सूझ रहे थे।
मेरे फिर से आँखों द्वारा पूछने पर उन्होंने सकपकाते हुए अदब के साथ कहा – ‘शर्मा भाई, सच में हमने इतने रचनाकारों के खत पढ़े
लेकिन ऐसा पत्र पहले कभी नहीं पढ़ा। सच में पूनम जी बड़ी अच्छी इ्रसान हैं, जो एक कैदी पाठक को इतनी इज्जत दे सकती
हैं वरना इतना तो हम भी जानते हैं, आज
के वक्त में भला किसे पड़ी है जो एक कैदी को खत लिखे। पाँच छः कैदियों ने आपकी रचना
को पढ़ लिया था इसलिए वह आपके नाम से परिचित थे। फिर उन्होंने आपकी इंसानियत की
चर्चा कीं मैंने उनसे इजाज़त ली और आपके पत्र को फिर से पढ़ा। इस बार वह मुझे पहले
से अधिक व्यापकता के साथ समझ आया। मैंने पत्र को सहेज कर रखा और पत्र से उपजे
भावात्मक तूफान में खो गया।
आपका पत्र मेरे जीवन की महत्वपूर्व
घटना है। आपको पत्र लिखने के बाद मैं सोचता था – पता नहीं आप एक कैदी पाठक को किस
तरह लेंगी। आप बड़ी व जीवंत लेखिका हैं। यह ‘पॉलूशन मॉनिटरिंग’ से पता चल गया था। अब आपके पत्र को
पाकर जाना, आप इंसान के रूप में अच्छी व बड़ी इंसान
हैं। आपका अच्छा इंसान होना मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। पूनम जी, यह तो जरूरी नहीं कि कोई नामी दामी
लेखिका इंसान के रूप में भी अच्छी हो। यह मेरा सौभाग्य है कि आप जैसी विदुषी से
मेरा संवाद बना।
मुझे महिला लेखकों से बड़े मूल्यवान और
जीवनदायी पत्र मिले हैं, पर
आपका पत्र सबसे अलग और अनूठा है। मैं आपके इस मूल्यवान व जीवनदायी पत्र का किन
शब्दों में आभार व्यक्त करूँ ? कोई
भी शब्द इसके लिए अर्थहीन साबित होंगे। आपके पत्र को मैं जीवन दर्शन का एक
दस्तावेज मानता हूँ। कोई लेखिका मात्र अपने पत्र से एक कैदी के जीवन संघर्ष को
जिजीविषा दे सकती है यह आपके पत्र से जाना। एक लेखिका इंसान की शक्ल में इतनी
विराट और विशाल हो सकती है कल्पना न की थी। क्या आप यकीन करेंगी आपके इस पत्र ने
मुझे वह मानवीय बोध दिये, जो
मैं धर्मग्रंथों से न पा सका। आपके इस स्पर्श ने मेरे दिलो दिमाग को मथ कर रख
दिया। आपकी इंसानियत के इस स्पर्श ने मेरा पाठकीय विकास के साथ-साथ इंसानी विकास
भी किया। आप जैसी इंसान ही मेरा यह विकास कर सकती थी। पूनम जी आपके पत्र ने मुझे
इस तरह उद्वेलित कर दिया है कि मैं पत्र भी उसी मनःस्थिति में लिख रहा हूँ।
अनुभूतियों, विचारों का प्रवाह इतना तीव्र है कि
मुझे उसके लिए शब्द ही नहीं मिल रहे हैं। विचार कहाँ चले जाते हैं और शब्द वहीं रह
जाते हैं। इसलिए मेरे इस उबड़-खाबड़ पत्र से खीजियेगा नहीं। मैं अब भी यकीं नहीं कर
पा रहा हूँ कि एक सम्मानित बड़ी लेखिका मुझ जैसे मामूली कैदी पाठक को इतना महत्व दे
सकती है। आपकी इस सरलता, सहजता
ने मेरे दिल को छू आत्मिक विस्फोट कर दिए। मुझे इंसान और इंसानियत का अर्थ समझ
आया। आपके लिए यह तस्सली वाली बात हो सकती है कि एक मामूली कैदी ने आपके आचरण
से इंसान और इंसानियत का अर्थ जाना।
आपने मुझे पाठक के रूप में कबूला इससे
मेरा कैदी और पाठक दोनों का होना सार्थक हुआ। पूनम जी आपने मेरी पाठकीय समझ की
इतनी तारीफ कर दी है कि उसे पढ़कर मैं खुद में सहम-सिकुड़ गया। मैं उस तारीफ का कहीं
से भी हकदार नहीं हूँ। यह आपका बड़प्पन और सहृदयता है जो आपने मुझ मामूली पाठक को
इतनी इज्ज़त बक्श दी। आपने जिस संजिदगी से मेरी पाठकीय समझ की सराहना की है, उसे पढ़कर मैं अब और ज्यादा गंभीरता के
साथ सचेत पाठक बनने की कोशिश में रत रहूँगा।
आपने मेरे पत्र का जिक्र अपने आत्मीय
मित्रों से किया। जानकर हतप्रत रह गया। मुझे लगता है आपके मित्रों ने आपके अति
उत्साही होने पर चुहल की होगी, वरना
ऐसा कुछ भी नहीं था मेरे पाठकीय पत्र में कि उससे एक जागरूक पाठक की प्रतिक्रिया
ध्वनित होती। खैर —-। आपकी इस भावना के आगे मैं श्रद्धा से नत मस्तक हूँ। आपने
दो संपादकों से मेरा जिक्र किया व उन्हें मेरा पता दिया, आभारी हूँ। ‘अभिधा’ मुझे एक लेखिका ने भेजी थी। पत्रिका को
थोड़ा सा पढ़कर ही मैंने संपादक को आभार पत्र लिखा था। उम्मीद करता हूँ मेरा वह पत्र
अशोक गुप्त जी को मिला होगा। आप एक
पत्रिका ‘आवर्त्त’ के संपादन में सहयोग करती हैं, जानना सुखद रहा। आप जैसी प्रखर लेखिका
अगर संपादन से जुड़ी हो तो पत्रिका से बड़ी उम्मीदें बनती हैं। आप मुझे आवर्त्त जरूर
भेजियेगा। आप मुझे अपना कहानी संग्रह ‘कोई तीसरा’ जरूर
भेजियेगा। आपकी इस मदद का आभारी रहूँगा।
आपने जिन शब्दों में मुझे पढ़ने-लिखने
के लिए प्रेरित किया है, वह
मुझे हक्का-बक्का करके चमत्कृत कर दिया। किसी पाठक को इस ‘अनुभूति’ के साथ भी प्रेरित किया जा सकता है
सोचा भी नहीं। एक सच्ची लेखकीय आत्मा ही इतनी गहराई से किसी मामूली पाठक को
पठन-पाठन के लिए प्रेरित कर सकती है। वरना आप चाहती तो धन्यवाद की औपचारिकता को
पूरा करके अपने फर्ज से छुट्टी पा सकती थीं। आपकी इस संवेदना ने मेरे दिल-दिमाग को
झकझोर दिया। पूनम जी, आप
मुझ जैसे आम कैदी से बड़ी उम्मीदें रख रही हैं। आपके इन शब्दों को पढ़कर मेरी रूह
में झुरझुरी हो गई कि – ‘‘कोई
आश्चर्य नहीं आग्वाद का वह लाक्षागृह बूंद भर बारूद से पिघल कर एक दृष्टांत बन
जाये —-।’’ आपकी इस भावना, इस उम्मीद ने मुझे कंपा कर रख दिया। आप
एक मामूली से पाठक और उससे मामूली कैदी से ऐसी उम्मीद करके अपने शब्दों को ही
बेकार कर रही हैं। इंसान के रूप में मैं भी आम कैदी की तरह कुंठा, क्षुब्धता, तनाव, आत्मग्लानि, विकारों से भरा हूँ, जो साहित्य और साहित्यकारों से बात
करके अपनी घुटन-टूटन को दूर कर लेता है, उससे भावात्मक सहारा पा लेता है (अपनी आत्मग्लानि के चलते मैंने आज
तक घर में नहीं बताया कि मैं यहाँ अपनी सजा काट रहा हूँ, आखिर किस मुँह से उन्हें बताता)
क्योंकि उनसे मुझे भावात्मक सहारा पाना है, बस। इतनी सी बात है। रचनाकारों को आभार
पत्र लिखने से तो लेखन नहीं आ सकता। उसके लिए विशेष संवेदना, गहरी और पारदर्शी दृष्टि, सुलझी सोच-विचार चाहिए, जिससे मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं
है। मुझे तो सही तरह का शब्द ज्ञान भी नहीं है। तब आपका मुझसे उम्मीद करना बेकार
की बात है। हाँ,
यह मैं जरूर मानता हूँ कि जेल-जीवन की
दुनिया, उसके अंधेरे-उजाले बड़े विस्मयकारी और
थर्रा देने वाले हैं। बस! उन्हें पढ़ने छूने और भेदक दृष्टि से देखने की जरूरत है।
आपने मुझ पाठक से यह उम्मीद रखी, यह
आपके सुंदर हृदय की बात है। आपकी इस भावना ने मेरे हृदय को भिंगोकर रख दिया। आपने
मुझे जीवन तत्व का बोध कराते हुए संघर्ष में डटे रहने के लिए इन शब्दों में उर्जा
से भरा है – ‘‘सूरज की अनुपस्थिति में भी सुबह होती
है – वह सुबह तुम्हारे यातनागृह के द्वार पर भी आयेगी – उस सुबह की प्रतीक्षा में
अधीर मत होना।’’
मैं नहीं बता सकता आपकी इस भावना से
गुजर कर मेरे भीतर के सुधीर को कितनी मजबूती मिली है। अब मैं आपकी उस अगाह पर
चिंतन-मनन करूँगा ’‘उस
सुबह की प्रतीक्षा में अधीर मत होना।’’ यह बहुआयामी अर्थों वाला वाक्य हमेशा जेहन में रहेगा।
आपने मुझसे मेरे बारे में जानने की
इच्छा जताई है। मेरे अहोभाग्य कि आपने मेरे बारे में जनना चाहा। पूनम जी, आपको अपने बारे में लिखकर मुझे खुशी
होगी। मेरा अतीत बड़ा अराजक और उबड़-खाबड़ रहा है। मैं आपको अलग से इस बारे में
लिखूँगा। मैं इस पत्र में लिखता, पर
यह तो पहले ही बहुत-बहुत लंबा हो गया है। वैसे भी मुझे इतने सारे पत्रों को लिखने
के बाद भी वह सलीका नहीं आया कि कम शब्दों में ज्यादा बात कैसे कहें। इस बात के
लिए माफी चाहता हूँ। अब देखिए न ! यह पत्र पाठकीय विमर्श से कम, बेकार की बातों से ज्यादा भरा है। मैं
अपनी रौ में बहकर न जाने क्या-क्या लिख जाता हूँ।
आपने मुझ अनजान, अपरिचित कैदी को भाई का संबोधन दिया
है। यह मेरा भाग्य है, पर
मुझे लगता है मैं भाई की पात्रता नहीं रखता हूँ। कागजी भाई बनने का कोई अर्थ भी
नहीं है। मैं रिश्तों को जीने में विश्वास रखता हूँ, ढ़ोने में नहीं। एक इंसान के रूप में
आपका आदर व सम्मान कर सकूँ यही मेरे लिए अहम होगा। कृपया मेरी वाचलता पर नाराज मत
होईयेगा। मैं आपको दुनिया के किसी भी भाई से ज्यादा सम्मान देता हूँ।
आपने मेरे पत्र को अपना कीमती वक्त
दिया। इसका आभारी हूँ। आपकी खुशी और सेहत की कामना के साथ।
आपका
सुधीर
आपने मुझे साथ में अर्न्तदेशीय पत्र
भेजा है। बहुत-बहुत आभार। लेकिन मैं छोटा पत्र लिखता ही नहीं। कहीं आपने मेरी
बक-बक से बचने के लिए तो पहले ही यह इनलैंड भेज दिया है।