यह मेरा घर है जिसमें मैं रहती हूं तीसरे माले पर है पिछले साल ही बड़ी मुश्किल से इस फ्लैट को खरीदा है पापा अपनी सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे सो उन्होंने मदद कर दी।नहीं तो मेरे बस का कहाँ था ये फ्लैट -स्लैट खरीदना।
फ्लैट काफी दिनों से बंद था । किन्ही वृद्ध साइंटिस्ट साहब का था ।जिनका इकलौता बेटा अमेरिका जाकर बस गया है। उनके पास रहने के लिए अपनी कोठी है । इसलिये उन्हें इस घर की जरूरत नहीं रही।
घर को जब पहली बार देखा तो घर की हालत बड़ी नाजुक सी थी ।
फ्लैट में करीब दस सालों से ताला लटक रहा था । दरअसल साइंटिस्ट साहब ने इस घर को किराये पर नहीं उठाया था डर था अगर किसी किराएदार ने झंझट कर दिया या फिर मकान हड़पने की कोशिश की तो बुढ़ापे में उससे कैसे निपटेंगे। वैसे भी अकादमिक पृष्ठभूमि के लोगो को ये घर -वर के काम कम ही रुचिकर लगते हैं।
हल्के पीले औऱ सफेद रंग की दीवालें ,बड़े भारी से सफेद रंग के फैन लम्बे – नीचे को लटकते हुये ,दीवाल के बाहरी तरफ की गई मोटे तारों वाली वायरिंग ,बड़े ही पुराने स्टाइल के बल्ब औऱ लाइटें । घर का मुख्य गेट बहुत सारी धूल-गंदगी से भरा हुआ।
चिंचियाते किवाड़ ,टूटी हुई खिड़कियां बालकनी भी टूटीफूटी सी ।कुल मिलाकर घर को देखने से बड़ा अजीब लगा । किसी सरकारी पुरानी जर्जर भूतिया बिल्डिंग सा, कैसे रहूंगी यहां। यहां तो इंसान नहीं चमगादड़ों का ही गुजारा हो सकता हो। मन मसोस कर रह गई मैं।
दरअसल घर ऐसे हालात में होने की वजह से मार्केट के रेट से सस्ता मिल रहा था।और वैसे भी आज करीब पंद्रह साल हो गए थे दिल्ली में रहते हुए। यूपी में अपने गांव से यहाँ पढ़ने के लिए आई थी । स्टूडेंट थी तो हॉस्टल में थी तब घर वर के लिए कभी सोचा ही नहीं था । गांव और कस्बे की रहने वाली अंदेशा भी न था कि बड़े शहरों में घर को लेकर इतनी किल्लते होती होंगी । कोई खास रिश्तेदार भी यहां न थे जिनसे घर की मुश्किलों का पता चल पाता।
और न ही ये कभी सोचा था कि करियर की तरह घर भी मुझे ही बनाना करना पड़ेगा।
पर आगे के जीवन में जिस तरह की घटनाएं हुई ।उससे यही लगा कि अगर घर होता तो कितना बड़ा सुकून होता । बहुत सारी आफतों से बच जाती।
जब से हॉस्टल से निकली थी जिंदगी तो वैसे ही उबड़-खाबड़ रास्तों पर चल रही थी। तब ये अहसास भी न था किअकेली सिर पर इतना भार पड़ जायेगा। बेटी का जन्म हो गया था और जिसने जिंदगी भर साथ निभाने का वादा किया था वो तो हर वक्त अपने वादे को तोड़ने के पेंचोखम में लगा रहा ।जब तक वादा टूट न गया वह किसी तरह चैन से न बैठा ।
तब से दफ्तर में अपनी नौकरी को संभालने के साथ आये दिन घर भी खोजना -बीनना पड़ता।अक्सर होता कि पागल पंथी में घर दफ्तर से दूर ले लेती जिससे दिन का एक चौथाई हिस्सा तो दिल्ली जैसे शहर में आने- जाने में ही खर्च हो जाता।
हॉस्टल के बाद इस तरह छः सात सालों के दौरान मुझे चार -पांच घर बदलने पड़ गए थे । कहीं मैंने पसंद न आने की वजह से खुद ही छोड़ दिया तो कहीं मकान मालिक का व्यवहार पीड़ा जनक बन जाता। जब भी घर बदलती तो मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ती ।दफ्तर का काम सम्हालते हुए बेटी का खयाल रखते हुए इस बेगाने शहर में तिनका-तिनका टाइम निकाल कर पैकिंग करनी पड़ती।
ढेरों नाज़ुक सामानों को बचाते हुए कि कांच का है टूट जाएगा, फलां ने दिया था ये थोड़ा सम्हाल के रखना है । ऐसे दिनों में टाइम से खाना-पीना सब छूट जाता,पढ़ना-लिखना तो पूरी तरह छूट जाता ।
किचन का सामान जाते ही खोलना पड़ेगा । बेटी को दूध वगैरह की जरूरत पड़ती । बाकी मुझे ही ज्यादा देर चाय के बिना कहां चैन आता है।किताबें अलग से बांधनी पड़ती क्योंकि वे बहुत भारी होती हैं।इलेक्ट्रॉनिक सामानों को उखाड़ने -पछाड़ने का झंझट।
इन सब के साथ ही मकान मालिक साहब आ टपकते कि भई आप अपना आधार कार्ड दे दो फलां जगह सिग्नेचर करने हैं या फिर प्रापर्टी डीलर के पैसे देने हैं । फोटो भी यहां-वहां चिपकाते फिरो।
इन सब बातों से मुझे अजीब सी कोफ्त होती और थकान भी । पर दूसरा रास्ता न था, क्या करती।
यह पांचवीं बार रहा होगा जब एक बार फिर से मैंने घर बदलने का निश्चय किया । अबकी बार ठान लिया था कि घर दफ्तर के पास ही लूंगी । इस बात का पक्का निश्चय करके मैदान में उतरी थी ।
अपने शुरुआती दिनों से दक्षिणी दिल्ली में ही रह रही थी ।आप जिधर रहते हो एक पूर्व धारणा के अनुसार वही क्षेत्र आपको ठीक लगना शुरू हो जाता है। अपरिचित जगह से मन ही मन सहमी हुई थी पता नहीं कब क्या किस तरह रहूंगी -सहूंगी ,क्या करूंगी।
इधर तो काम के लिए भी कोई ना कोई मिल जाता था उधर पता नहीं मिलेगा भी या नहीं। वैसे तो घर पर ज्यादा काम नहीं होता लेकिन बेटी को देखने और उसके साथ खेलने के लिए किसी न किसी लड़की को तलाश ही लेती थी।
दो साल से एक लड़की दिन में काम करने के लिए आ जाती थी थोड़े बहुत घरेलू कामों के अलावा बाकी टाइम अड़ोस -पड़ोस के बच्चों के साथ बेटी को लेकर खेलती रहती , उसके रहने से मुझे दफ्तर में यह चिंता कम होती कि जल्दी- जल्दी घर भागना है ।
पन्द्रह साल की तमन्ना को अपने घर जाने की कोई जल्दी न रहती उसे अपने घर से ज्यादा मेरे घर में ही अच्छा लगता था।बस मेरे घर आने के बाद उसकी एक ख्वाहिश रहती कि मैं उसको अपनी स्कूटी में बिठाकर उसके घर तक छोड़ आऊं। छोड़ने में मुझे आलस तो बहुत आता था क्योंकि एक बार दफ्तर से आने के बाद इतनी थक जाती थी कि कहीं निकलने का मन न करता । लगता बस घर में ही दुबकी रहूं।
फिर भी उसका मन रखने के लिए घर छोड़ आती।
उसके अंदर बहुत बचपना था । बच्ची तो थी ही एक बार तो यही लगा कि इसकी मां से पूछकर इसको अपने साथ लेती जाऊं । तम्मना का भी यही मन था मेरे साथ चलने की बात वह बार-बार दुहराती- दीदी! मैं भी आपके साथ चलूंगी।
पर पहले ही एक बेटी को किसी शोहदे के कारण खो देने वाली तमन्ना की मां कहने लगी कि आप पर मुझे पूरा विश्वास है पर अब इसकी बहन के साथ जो हुआ आपसे छुपा नहीं है ऐसे में इसे कहीं भेजने की हिम्मत नहीं है।
मैंने कहा -कोई बात नहीं चाची जान! कोई न कोई रास्ता जरूर निकल जायेगा,आप चिंता मत करो,तमन्ना आपकी बेटी है इसे प्यार से रखो। मैं कभी – कभार मिलने जरूर आया करूंगी।
तम्मना को छोड़कर चली तो मन ढेर सारी दुश्चिंताओं से बैठा जा रहा था । सबसे बड़ी चिंता यह थी कि अगर बेटी को साथ देने के लिए नहीं जगह पर कोई लड़की न मिली तो बेटी और दफ्तर को अकेले कैसे संभालूंगी ।
चूंकि घर में मेरे पीछे से चाभी भी उसी के पास रहती थी अतः कोई विश्वसनीय व्यक्ति को ही काम के लिए रखा जा सकता था।
अभी इस नई जगह पर आए दो तीन दिन ही हुआ होगा कि मकान मालकिन ने कहा कि तुम्हें कोई काम वाली तो चाहिये होगी ।
मैंने धीरे से सिर हिलाया दरअसल मैं चाहती थी कि मैं अपने हिसाब की काम वाली देखूंगी ।
पर उनके कहने पर मना न कर पायी।
मकान मालकिन कहने लगी -ये सुनीता है जो हमारे घर काम करती है तुम्हारे घर का काम भी कर देगी । इसे एक काम और मिल जाएगा।
सीमा करीब चालीस एक वर्ष की अच्छे नैन नक्श वाली स्त्री थी । पर मन को कुछ ठीक नहीं लगा,उसको देखते ही तमन्ना का ख्याल आ गया कि मुझे तो कोई लड़की चाहिए थी जो बेटी के साथ खेल सके।
बेटी को जब कोई खेलने के लिए न मिलता तो वह मेरे साथ खेलने की जिद करती जो मुझसे बिलकुल न होता था ।
और कोई हो तो मुझे भी ऑफिस वगैरा से आने के बाद चाय- पानी करा दे। थोड़ी राहत हो जाती थी।
दरअसल मन किसी लड़की को रखने का था ।लड़कियों के साथ मन कुछ अलग ही तरीके से लग जाता है।उनके सामने मन में संकोच नहीं रहता । थोड़ी बहुत इधर-उधर की बातें भी कर लेती थी।
पर मकान मालकिन के कहने और कुछ इस दुश्चिन्ता से पता नहीं कब कौन मिले मैंने हां कर ली।
अगले दिन सुनीता नियत समय से करीब एक घण्टे लेट आयी।
आकर कहने लगी कि जहां काम करने गई थी वहां ज्यादा टाइम लग गया कल से ऐसा नहीं होगा दीदी ।
एक मिनट के लिए तो लगा कि मना कर दूं कि मैं ऐसे टाइम बेटाइम काम न करवा सकूंगी इस अकेली जिंदगी में हजार झंझट हैं। मानसिक सतर्कता हर समय नहीं होती , काम करवाने के लिए भी आखिर थोड़ी- बहुत एनर्जी चाहिये।
पर चुप रही ।
सीमा ने खैर घर की साफ-सफाई अच्छे से कर दी। तो कुछ राहत हुई । सोचा कि चलो देखती हूँ कि आगे कैसे चलता है।
अगले दिन सुनीता जब आयी तो साथ में अपनी छोटी बेटी को ले आयी। कहने लगी – दोनों के मिलकर काम करने से जल्दी निपट जायेगा। उस दिन दोनों मां-बेटी काम करके चली गयी ।
काम साफ-सुथरा था इसलिए मैं कहीं न कहीं आश्वस्त हो रही थी। मेरी गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह आगे बढ़ रही थी बस यही सोच रही थी कि आजकल तो ऑफिस से छुट्टी ले रखी है । तो उतनी किसी की जरूरत नहीं है कई सारे काम खुद ही कर लेती हूं पर एक बार ऑफिस खुलने के बाद इस तरह नहीं चलेगा। तब किसी का होना जरूरी हो जाएगा।
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अगले दिन काम के लिए दूसरी लड़की आयी ।करीब सोलह -सत्रह साल की ये लड़की मंझोले कद और गोरे रंग की थी। शरीर भी अच्छा स्वस्थ। बाल लंबे और घने थे जिनको खींच करके सिर के बीचोबीच जूड़ा बनाया था।
लड़की काफी भली और साफ सुथरी थी । मुझे लगा शायद मेरे घर का काम मकान मालकिन ने किसी और को सौंप दिया है।
पूछने पर पता चला कि वो सुनीता की बड़ी बेटी पाखी है। तब तक सुनीता आयी और कहने लगी कि दीदी अब से आपके घर का काम पाखी ही कर देगी।
वैसे भी आपके घर में ज्यादा काम तो होता नहीं है। ये आराम से सम्हाल लेगी ।
पाखी को देखकर मुझे हल्की राहत हुई आखिर कोई लड़की तो मिली ।
अब तो पाखी रोज काम पर आने लगी ।
वो एक नियत समय पर आती। घर की किचन वगैरह साफ कर देती । झाड़ू पोछा कर देती। काम पूरा होने के बाद कुछ देर वह बेटी के साथ जरूर खेलती।
वह बहुत कम बोलती चुप सी रहती । मैंने मन ही मन सोचा कि शायद अपनी मां से नाराज होगी जबरदस्ती काम पर भेज दिया होगा ।इसलिए बात नहीं करना चाहती।किशोर उम्र में बच्चों को वैसे भी मां-बाप से बहुत सारी शिकायतें हो जाती हैं।
पाखी एक सरकारी स्कूल में पढ़ती भी है जानकर अच्छा लगा । अब वह मुझसे कुछ बातचीत करने लगी थी।
मैंने पूछा कि अभी तक तुम मुझसे बात क्यों नहीं करती थी तो उसने कहा कि मम्मी ने बताया था कि आप बहुत पढ़े -लिखी हो ।इसलिए मुझे लगा कि आपसे क्या बात करूं।
मैंने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है तुम बात किया करो ।मैंने उसे इस बात के लिए भी आश्वस्त किया कि स्कूल से संबंधित कोई जरूरी खर्च इत्यादि हो या अन्य कोई काम हो तो वो मुझे बेझिझक बता सकती है।
अब पाखी का हमारे परिवार के साथ घुलना -मिलना शुरू हो गया था वह बेटी के साथ खेलती अपने स्कूल की बातें बताती कि कैसे मैम के कहने से उसने फेयरवेल के दिन बहुत देर तक डांस किया। क्लास में दूसरी लड़कियों से उम्र में थोड़ी बड़ी होने की वजह से वे उसे दीदी कहती हैं जो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता है।
मैं उसे समझाती कि कोई बात नहीं।इन सब बातों में वह न पड़ें और अपनी पढ़ाई पर ध्यान रखे।
अब वह अपनी पढ़ाई का काम भी घर पर लाने लगी थी ।इससे उसे घर भागने की जल्दी न रहती थी। घर पर मेरे और बेटी के अलावा कोई न था अतः वह इत्मीनान के साथ अपनी पढ़ाई -लिखाई करती रहती। और जब मुझे बाहर जाना होता तो कहती – पढ़ भी लूंगी और बेटी का ख्याल भी रख लूंगी।
धीरे -धीरे पाखी मेरे परिवार का एक हिस्सा बनती जा रही थी।मैं जो बनाती उसे बड़े मजे से खाती और कुछ एडवाइस भी देती कि बारिश के मौसम में काली मिर्च और लौंग डाल के तीखी चाय बनाओ तो बहुत अच्छी लगती है ।
काफी दिनों से अपनी भाग-दौड़ की जिंदगी से उकताई हुई मुझे उसके ये छोटे -छोटे सुझाव बड़े संतोष जनक से लगते । कई बार वह चाय पकोड़े वगैरा ही खुद बना देती।
कभी अपनी पढ़ाई से संबंधित बात चीत करती। निबंध वगैरह लिखना होता तो मुझे इंटरनेट में सर्च करने के लिए कहती।
उसने एक और काम ढूंढ लिया था कि बेटी को जब मैं होम वर्क करवाती तो मुझसे कहती -दीदी मुझे करवाने दो ।
इसी बहाने मुझे अंग्रेजी स्कूलों की पढ़ाई कैसे होती है पता चलेगा ,जो नहीं आएगा आप से पूंछ लूंगी।
दिन आगे बढ़ रहे थे । तमन्ना की यादें धुंधली पड़ने लगी थी। पाखी की तस्वीर अधिक गहराई से मेरे जेहन में उतर रही थी।
जुलाई आ गयी थी। स्कूल खुल चुके थे। अब
पाखी नियमित तौर पर स्कूल जाती और छुट्टी के बाद सीधे घर आ जाती ।अपना स्कूल का काम मेरे घर पर ही करती । साथ ही घर के कामों में सहयोग भी करती। पाखी का काम भी अपनी मां की तरह साफ-सुथरा था जैसा कि अमूमन दूसरी काम वालियां नहीं करती ।कई बार उसके काम को देखकर लगता कि मैं भी उसके जैसा साफ-सुथरा काम नहीं कर सकती।
पाखी स्कूल के अलावा ज्यादा से ज्यादा समय मेरे घर में ही बिताने की कोशिश करती। अब तो वह यहां तक कहने लगी कि मुझे आप अपने घर में रख लो ।मुझे अपने घर में अच्छा नहीं लगता।
उसके कुलमिलाकर चार भाई-बहन थे। कई बार पाखी की बातों को तवज्जो न देकर पाखी की मां सुनीता
अपनी दूसरी बेटी को देती क्योंकि वो उसको अधिक काम में सहयोग करती थी जो पाखी को बुरा लगता या फिर सुबह ठंडक रहती और उसका सोने का मन करता तो पापा उसे जगा देते उठने के लिए कहते । छुट्टी के दिन इतना सुबह-सबेरे उठना किशोर पाखी को अच्छा न लगता।
इन सबका एक हल उसे नजर आने लगा कि वह मेरे घर में रह जाय।
मैं पढ़ाई के लिये उसे लगातार प्रोत्साहित करती कि वो पढ़ाई में मन लगाकर रखे जरुर एक न दिन उसे अच्छी नौकरी मिलेगी।
मैंने जब अपने कुछ नए से कपड़े उसे पहनने के लिए दिये । वह पहनकर आयी वे उस पर बहुत खिल रहे थे।उसकी उम्र ऐसी थी। जो पहन लें वही उसपर खिलने लगता ।
ऐसे ही एक दिन मैं दफ्तर बड़े -बड़े रंग-बिरंगे फूलों की प्रिंट वाली सलवार -कमीज पहनकर गयी थी ।उसने देखा तो कहने लगी कि ये सलवार कमीज उसे बहुत अच्छी लग रही थी ।जब मैंने कहा – कोई नहीं ये सलवार कमीज मैं उसे दे दूंगी तो उसने झट मना कर लिया ।
बोली -दीदी आप पर अच्छा लगता है आप ही पहनो। उसमें वह लालच भी न था जो आस-पास काम करने वालों में देखने को मिलता है।
पाखी के साथ रहते -रहते मुझे ऐसा लगने लगा कि कोई बड़ा करीबी मेरे साथ जुड़ता चला जा रहा है। शेयरिंग के लिए कोई मिल गया था जब वो होती तो बेटी उसी के आस-पास ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताती।
और इस समय में मुझे कुछ जरूरी कामों के बारे में सोचने का मौका मिल जाता।
जिंदगी चल रही थी ।मैं मन ही मन सोंचती कि
पाखी के साथ बेटी थोड़ी और बड़ी हो जाये।तो मेरी पटरी से उतरी गृहस्थी कुछ संभल जायेगी।
मैंने तय कर लिया था उसे पढ़ने -लिखने में जो मेरी मदद चाहिये होगी उसे मैं ख़ुशी -ख़ुशी करती रहूंगी ।
उस दिन होली का त्योहार था मुझे कुछ अगल- बगल की रहने वाली औरतों ने बोला कि पाखी आप के यहां अधिक समय रहती है अगर आज रात आप अपने पास रोंक लो तो अच्छा रहेगा ,होली के दिन काम बहुत होता है वह रहेगी तो सहारा लग जायेगा । जो कहेगी वो पैसे भी दे देंगें। जरा बहुत हमारे बच्चों को भी देख लेगी ।
जब मैंने पाखी से रुकने के लिए पूछा तो वह फ़ौरन राजी हो गयी। बोली -दीदी वैसे भी होली के दिन मुझे अपनी तरफ अच्छा नहीं लगता लोग शराब पीकर बहुत हंगामा करते हैं। मैं मम्मी से पूंछकर आ जाऊंगी।
होली के दिन साथ -साथ वो पूरे दिन रही कुछ नगद पैसे भी उसको मिल गए थे ।बहुत सारी बातें करती रही ।अगले दिन जब अपने घर जाने लगी तो ऐसा लगा कि जैसे कि अपना कोई बहुत करीबी छोड़ कर जा रहा हो। पाखी अब एक पारिवारिक सदस्य की तरह मुझसे जुड़ चुकी थी । वो मेरे जीवन के सूनेपन को धीरे-धीरे भरती जा रही थी ।
इस बीच मेरे दफ्तर का टूर सप्ताह भर के लिए मनाली जा रहा था मैं बेटी को लेकर वहां चली गयी । वापस आयी तो पाखी तुरन्त घर आ गई मेरे हालचाल पूछने पर जोर-जोर से रोने लगी । किसी तरह चुप ही न होती थी।
बहुत पूछने पर उसने बताया कि नीचे आंटी ने मुझे और मेरी मम्मी को बहुत बुरा भला कहा है।
मैंने पूछा कि अब क्या हो गया ।
मुझे पता था कि वो ट्रिपिकल लेडीज़ हैं किसी भी बात पर भड़क सकती हैं भई अब वो किस बात के लिये नाराज हो गयी।
बहुत पूछने पर उसने बताया कि दीदी हम लोग मुस्लिम हैं। ये बात पाखी की मां सुनीता ने मकान मालकिन से छुपा ली थी ।मकान मालकिन को किसी दूसरे से उनके मुस्लिम होने की बात पता चली तो उन्होंने बखेड़ा खड़ा कर दिया।
उन्होंने सुनीता की खबर ली कि उसने अपने मुसलमान होने की बात क्यों छुपाये रखी । तब सुनीता ने रुआंसी होकर कहा कि उसने अपने को मुसलमान होने की बात इसलिए छिपाई ताकि उसे काम मिलने में दिक्कत न हो ।
पाखी रोते हुए बोली कि दीदी अब आप भी काम पर
मुझे नहीं रखोगे ।
मैंने कहा-अरे नहीं ,मेरे पास तो काम वाली लड़कियां ज्यादातर मुस्लिम ही रहीं हैं और तमन्ना के बारे में तो मैं तुम्हें अक्सर बताती ही रहती हूं।
मैंने उसे समझाया कि मुझे मुसलमान और हिन्दू होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है और भी लोगों को नहीं पड़ना चाहिए।
उसने सिसकते हुए बताया कि कि इस कॉलोनी के लोग मुसलमानों से नफरत करते हैं।।इसीलिए उसकी मां सुनीता को किसी जानने वाली महिला ने यह नसीहत दी थी कि वह सलमा की जगह अपना नाम सुनीता बताए तो उसे काम मिलने में दिक्कत नहीं होगी।
बगल में रहने वाली महिला से जब झगड़ा हो गया तो उसने सबको ये बात बता दी कि हमारा परिवार मुसलमान है।
मकान मालकिन को कोई बात पता चल जाय मतलब उस बात का पूरे मोहल्ले में ढिंढोरा पिट जाना था ।
पाखी को इस बात की चिंता थी कि अगर उसकी मां और बहन को काम नहीं मिला तो घर का खर्च कैसे चलेगा । उसके पिता ने कुछ कर्जा भी ले रखा था।
खैर एक और कहानी मौके को देखकर बनाई गई कि पाखी के पिता मुस्लिम हैं पर पाखी की मां सुनीता हिंदू है।
थोड़ी सी सहूलियत के लिए जगह बनाई गई।
मैंने भी हिम्मत से पाखी को काम पर रखे रखा। मैं थी तो किराएदार पर अच्छी नौकरी और गंभीर स्वभाव की वजह से मुहल्ले वाले मुझसे ज्यादा तीन -पांच न कर पाते थे । देखा-देखी धीरे -धीरे बाकी लोगों को पाखी के मुसलमान होने वाली बात भूलनी पड़ी । मकान मालकिन भी कहने लगी कि जब एक बार पूरा घर छू ही लिया है तो अब क्या काम छुड़वाऊं। इसके पीछे उनकी जो भी मंशा रही हो।
पर मकान मालकिन को अभी भी पाखी का मेरे घर काम करने और ज्यादा समय रुकने की बात गले न उतरती थी।
कुछ लोग होते हैं जिनको अगर आप का जीवन ठीक से निकलने लगे तो उन्हें तसल्ली नहीं होती ।यही हाल मेरी मकान मालकिन का था यद्यपि उन्होंने ही पाखी को मेरे घर रखवाया था पर मेरा उसके के साथ घुलना-मिलना ,उसका ज्यादा समय तक मेरे घर पर रुकना उन्हें बिलकुल अच्छा न लगता था। कई बार वो पाखी को भला -बुरा भी कह देती कि वो घर की सफाई अच्छे से नहीं कर रही है।मैं तुम्हारी माँ से शिकायत करूंगी। या मुझे कहती इतना टाइम हो गया पाखी अभी गयी नहीं ।
घर में मैं रहती जरूर थी पर था उनका । वो चाहती थी कि मैं उसे अधिक से अधिक रगड़ू मांजू और चमका कर रखूं।
हम दोनों को उनकी बातें बुरी लगती पर फिर हम वापस जिंदगी को पटरी पर लाने में कामयाब हो जाते ।
पर इसी समय एक दूसरी घटना घटी।
मुझे पता चला कि पाखी किसी लड़के से बेटी को स्कूल छोड़ते वक्त तथा लाते वक्त बातें करती है। मुझे ये बात बेटी ने बताई थी।
पाखी से जब मैंने पूछा-तो पहले तो उसने मना कर दिया कि नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। वो लड़का तो मेरा एक जानने वाला दोस्त भर है।
पर फिर दो -चार दिनों बाद पाखी खुल पड़ी।
बोलीं-दीदी जिस लड़के की आप बात कर रहे थे वो अमृतांशु त्यागी है वो मुझे बहुत पसंद है।
मेरे यह पूछने पर कि वह उससे कहां मिली। कैसे जानती है
उसने बताया कि उनके घर उसकी मां काम के लिए जाती थी। वो बहुत छोटी थी तभी से उसको पसंद करती है।
पाखी पढ़ने-लिखने में ठीक लड़की थी मैं नहीं चाहती थी कि वह अभी से इस तरह की चींजों में पड़े जो कल के लिए उसकी परेशानी का सबब बन जाये।
पर मैं उसको रोक नहीं पायी। किशोर उम्र का तकाजा मन उड़ान ले रहा था जो इस बात से अनजान होता है कि आकाश की उड़ान अगर ऊंची है तो पृथ्वी पर गड्ढे भी उतने ही गहरे हैं।
अब वह मेरा फोन जब -तब मांग लेती और उस त्यागी लड़के से बातें करती । कई बार मेरा फोन बिज़ी होता उस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए उसने मेरा एक पुराना फोन ले लिया था अब वह फ्री होकर उस अमृतांशु से बातें करती। पाखी उस लड़के से छोटी -मोटी मुलाकातें भी करने लगी थी। वह चाहती थी कि मैं भी इन सब बातों में उसकी सहयोगी बनूं।
मेरे मन में यह सब देखकर आशंका सी लगी रहती कहीं मकान मालकिन कोई और बखेड़ा न खड़ा कर दे, पाखी की मां कहीं ये न कह दे कि दीदी आपके यहां ही ये ज्यादा समय बिताती थी। यहीं से सब कुछ उसने सीख लिया है।
और एक दिन वही हुआ जिसका डर था ।
उन दिनों मेरी मां मेरे पास आयी हुई थी। उनकी तबियत खराब थी । गांव कस्बों में अच्छे डॉक्टर न थे । सो जोर डाल कर मां को अपने पास बुला लिया था कि अबकी बार मां को किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा दूंगी।
मां आयी तो मकान मालकिन कहने लगी कि तुम तो दफ्तर चली जाती हो ।मां अकेली रहती है मेरे पास आकर बैठ जाया करे।
मां ज्यादा बोलने वाली महिला नहीं थी पर बार-बार आग्रह करने पर पर वो एक -दो बार उनके घर चली गयीं।
इस बीच पाखी ने मेरे घर के साथ मकान मालकिन के घर का काम पकड़ लिया था।वो उनके घर शाम को पानी इत्यादि भरने के लिए जाया करती । मैंने पाखी को समझाया कि वो उनसे उस त्यागी के बारे में और मेरे घर के बारे में बात न करे।
पर मकान मालकिन का अबकी बार यही मुख्य मन्तव्य था कि वह अधिक से अधिक हम लोगों के बारे में जानकारी जुटा सके।
उन्होंने पाखी को खुश करने के लिए वही सब करना शुरु किया जिस तरह पाखी मेरे घर रहा करती थी।
उन्होंने पाखी के ब्यूटी पार्लर में जाकर उसके मनपसंद बाल कटवा दिये। अब वो पाखी से चुहल भारी बातें करती। हंसी – मजाक करती ।
मैंने इन सब बातों की तरफ अधिक ध्यान न दिया
एक दिन मां और मैं मकान मालकिन के बुलाने पर उनके घर गये।उस दिन बातों -बातों में मकान मालकिन ने पाखी की बात छेड़ दी ।मां कहने लगी कि हां ये यानी मैं दूसरे पर बहुत ज्यादा भरोसा करती हूं जो नहीं करना चाहिये।
मकान मालकिन ने कहा कि पाखी की मां कहती है कि पाखी आपके बहुत से काम कर देती है।
मैं भी उसके लिए बहुत कुछ करती हूँ । मैंने तकलीफ के साथ कहा
बातों का रुख पाखी की तरफ खिंचता जा रहा था।।मुझे एहसास हुआ और मै पाखी पर बात करने से जब तक रुकती तब तक कुछ बातें पाखी पर हो चुकी थी।
खैर मैं मां को लेकर वहां से घर आ गई । मन में कुछ खटका सा लगा था ।कि पता नहीं मकान मालकिन क्या घुमा फिरा कर पाखी से कह दे।
अभी ये सब हुए कि चार -पांच दिन नहीं हुए होंगें कि पाखी एक दिन मकान मालकिन के पास से आयी और कहने लगी कि आंटी ने बोला है कि आप घर खाली कर दो।
मुझे झटका लगा जिस बात से सबसे ज्यादा डरती थी वही हुआ।दिल्ली में अकेले घर खोजना फिर सामान की शिफ्टिंग। कहने को सामान जैसा सामान न था पर दफ्तर और बेटी के साथ पैकिंग करने में पूरा महीना बर्बाद हो जाता।
मुझे हमेशा लगता जब तक मेरे पास अपना घर नहीं है मैं जहां पड़ी हूं वहीं पड़ी रहूं । नये घर के नाम से ही मेरा मन धक-धक कर जाता।
पर अब क्या करती , जिसका घर था उन्होंने तो छोड़ने के लिए कह ही दिया था फिर उनके घर जबर्दस्ती तो नहीं रह सकती थी।
मैंने मां को कहा कि पता नहीं क्या हो गया कि मकान मालकिन एकदम से नाराज हो गई।
बेचारी मेरी वृद्ध होती मां ने कहा कि कहीं मेरी वजह से तो वे ऐसा नहीं कर रही हैं।
मुझे तरस सा लगा मकान मालकिन की बुद्धि पर। मैंने कहा- मां उनकी भी तो मां हैं। और फिर आप पहली बार यहां आयी हो कुछ दिनों में आपको जाना भी है। अब यहां कौन सा टिककर रहने वाली हो जो उनको दिक्कत है ।
घर को लेकर अबकी बार मैंने सोच रखा था कि बेशक लोन लेकर छोटा सा घर खरीदूं ।पर अब किराये के घर में और नहीं रह सकती। पर वो होने से पहले ही ये अध्याय आरम्भ हो चुका था।
पाखी नियम पूर्वक घर आती वैसे ही रहती और घर का काम करके चली जाती। पर ऐसा लग रहा था कि वो मेरे दुःख की उस तरह से भागीदार नहीं रही जैसे कुछ बदल गया हो।
एक दिन मां पाखी के घर से जाने के बाद कहने लगी कि हो न हो पाखी मकान मालकिन के साथ मिल गई है। उसी ने कुछ कहा है जिसकी वजह से वे तुम्हें मकान खाली करने के लिए कह रही हैं।
मैंने मां से कहा-आप बिना मतलब पाखी पर आशंका कर रही हो वो ऐसा कर ही नहीं सकती।
मां ने कहा -कि तुम मेरी बात नहीं मानोगी पर पाखी उनसे मिल गई है।
इन सब बातों से मैं अंदर से अस्त -व्यस्त हो चुकी थी।
मैं दफ्तर जाती, वापस आने के बाद नया घर ढूढ़ने की मुहिम में लग जाती । मन अंदर -अंदर टूटता सा रहता था कि किराया देने के बावजूद आप किराये के मकान में चैन से नहीं रह सकते।
मां इन सब बातों से उदास हो चली थी उन्हें लग रहा था कि उन्होंने मेरे पास आकर एक नयी मुसीबत को दावत दे दी है। मैंने उनसे कहा कि वह ऐसा न सोचे। समय और लोगों के मूड का कुछ नहीं कहा जा सकता।
पाखी का घर आना अभी भी जारी था बस ऐसा लगता कि जितनी रुचि वह मेरे घर के कामों में ले रही है उससे कहीं अधिक रुचि वह मकान मालकिन के काम में ले रही है।
उस दिन मैं दफ्तर गयी थी और सारी मुश्किलों के साथ मैंने यह ठान लिया था कि मकान मालकिन से यह तो नहीं कहूंगी कि वे मुझे कुछ दिन और अपने घर पर रहने दें। जो होगा देखा जायेगा।
अमूमन मेरी एक आदत है कि कोई परेशानी हो जाय तो कोई कितना भी मदद का आश्वासन दे पर मेरी जुबान पर मदद लेने का एक शब्द भी नहीं निकलता । मैं उस परेशानी को नितांत अकेले ही झेलती रहती हूं। चाहे उसका परिणाम कुछ भी हो।
पर उस दिन दफ्तर से लौटते वक्त अपनी आदत को बदलते हुए मैं पड़ोस रहने वाली नमन के घर चली गयी उनकी बेटी के साथ अक्सर मेरी बेटी खेला करती थी । इस नाते मेरी उनसे जान पहचान थी । मकान मालकिन के यहां भी वो आया जाया करती थी।
नमन ने मुझे चाय पिलाते हुए बताया कि कहीं इन सब बातों का कारण पाखी न हो आप पता कर लो।
मैंने चौक कर कहा कि नहीं पाखी ऐसा नहीं कर सकती।उन्होंने कहा कि हो सकता है बातों में कुछ कह गयी हो जिसकी वजह से मकान मालकिन नाराज हो गई हों।
मुझे झटका सा लगा मैं चुप हो गई और कुछ सोचने के लिए विवश भी।
क्या वाकई पाखी ने उनसे कुछ कहा है।
इस बात में सच्चाई थी ।इसलिए अब मैं पाखी को निर्दोष नहीं पा रही थी।
मुझे इस बात का गहरा दुःख था कि जिसे मैं इतना अपना मानती थी वही इतनी जल्दी पराई कैसे हो गई।
मां कहने लगी कि मैं तो पहले ही कह रही थी पर तुम मेरी बात सुनने को तैयार न थी इतना कभी किसी दूसरे व्यक्ति पर भरोसा नहीं करना चाहिए।
अब मुझे काफी कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगा था आंखों के आगे के बादल छंट गए थे पाखी किस तरह आजकल बदली-बदली सी लग रही थी। मन को झटका लग रहा था कि जिसको इतना कुछ अपने बारे में बताया इतना अपना समझा वही ऐसा कर रही है।
खैर नमन ने मेरे बिगड़ते काम को एक बार फिर पटरी पर ला दिया । नमन ने कहा एक बार आप बात कर लो मकान मालकिन से शायद कोई रास्ता निकल जाये।
मैं उनके घर जाने को तो तैयार नहीं हुई लेकिन हां फ़ोन पर बात करने के लिए तैयार हो गई। मेरे फोन करने पर मकान मालकिन कहने लगी कि नहीं अभी आप रहो।मुझे पाखी ने कुछ बातें बताई थी इसलिए मुझे बुरा लगा था।
पाखी से अभी भी मेरा लगाव कम न था मैंने सोचा कि बचपने में अगर पाखी ने कुछ कह दिया तो उसे ये महिला तिल का ताड़ जरूर बनाएगी।
यह सब हुआ ही था कि अचानक इसके दूसरे दिन दोपहर को मकान मालकिन का फोन आया कि आप नीचे आ जाओ ।।मैंने सोचा -अब क्या आफत आ गयी । मैं नीचे गयी तो देखा कि पाखी और मकान मालकिन में झगड़ा हो रहा था ।
वे पाखी को कह रही थी कि तुम्हारी उस लड़के की बातें मैं तुम्हारी माँ और सारे मुहल्ले को बताऊंगी। तू है ऐसी खराब लड़की । पाखी उनके पैर पकड़े हुए थी और कह रही थी आंटी मम्मी को मत बताना- आपके पैर पकड़ती हूं।
मकान मालकिन क्रोध से जल रही थी वो पाखी की एक भी बात सुनने के लिए तैयार नहीं थी।
मैंने मन ही मन सोचा कि अब यही होने को बाकी रह गया था। इस पाखी को इतना समझाया था कि इस लेडी से थोड़ा दूर रहे पर पाखी उनकी बातों में आती चली गयी ।
बहुत सारे अनुग्रह विनती के बाद जब मकान मालकिन नहीं पिघली तो पाखी जोर-जोर से चिल्लाने लगी कि आपको जिसको जो बताना हो बताओ मैं किसी से नहीं डरती । आपका जितना मम्मी को बताना हो बताओ या किसी और को बताओ खोल -खोल कर बताओ ,आप तो हो ही ऐसी ।
मैंने पाखी को चुप कराने की कोशिश की पर वह खूब चिल्लाई और फिर चली गयी।
मकान मालकिन मुझसे कह रही थी कि अब आप पाखी को काम पर नहीं रख सकते। अगर आप उसे रखोगे तो आपको घर छोड़ना पड़ेगा।
मैं लौट कर घर आ गई थी। एकदम चुप। एक खूबसूरत पेज जिंदगी के सफर में जो पाखी के साथ लिखना शुरू हुआ था वह बिना अपनी रंगत पाये यूं ही मुचड़ गया था।क्या कर सकती थी मैं।
कुछ दिनों बाद पता चला कि पाखी का परिवार वहां से कहीं और चला गया है।
आज तीन वर्ष हो गए हैं पाखी को गये हुये।उसके बाद दूसरी एक लड़की ने मुझे घर के कामकाज में सहयोग भी किया ।मैंने अपना एक घर भी खरीदा ताकि मैं इन मकान मालिक वगैरा के पचड़ों और बिना मतलब के श्रम से अपने को बचा सकूं।
पर जब भी घर की बालकनी में खड़ी होती हूं और सामने रोड पर कोई लड़की जा रही होती है तो उसे ध्यान से देखने लगती हूं मन में एक लहर सी आती हैं कहीं वो पाखी तो नहीं ।
@ अमिता मिश्र
One Comment on “पाखी — अमिता मिश्र”
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Ek asli chitran saamne rakh diya maano