इक्कीसवीं सदी मे
अपना अस्तित्व-निर्माण कर चुकी कथा लेखकों की पीढ़ी,
जिसे मैं भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी कहता हूँ, की आधी आबादी ने नि:संदेह
वर्षों पुरानी वर्जनाओं से खुद को मुक्त करते हुये स्त्री- कामेषणाओं पर खुल के कलम
चलाई है. लेकिन प्रश्न यह है कि इन वर्जनाहीन कामेषणाओं को जस का तस स्वीकार कर इसके
उत्सव में शामिल हो लिया जाये या फिर कुछ ठहर कर इन वर्जनाहीन स्त्री-अभिव्यक्तियों, उनके उद्देश्यों तथा गंतव्यों पर भी बात की जाये. नये समय की
दहलीज पर खड़ी इन लेखिकाओं की कुछेक कहानियों को पढ़ते हुये मेरे भीतर भी कई तरह के सवाल
खड़े होते हैं. क्या देह और प्रेम के बीच कोई अन्तर्संबन्ध है? क्या देह और पेट की भूख अपनी आदिम प्रवृत्तियों में बिल्कुल
एक-सी होती हैं? यदि हां, तो पेट की भूख की तरह देह की जरूरतों को भी अपने या किसी इष्ट-मित्र के घर या किसी
भी होटल, भोजनालय, ठेले, पटरी या कि रेहड़ी पर जब जैसा मिले और रुचे, पूरा किया जा सकता है? क्या पीढ़ियों से कफस में छटपटाती स्त्री-कामनाओं की अभिव्यक्ति और ग्लैमर की रोशनी
में चुंधियाई स्त्री द्वारा सेक्सुएलिटी और सेंसुएलिटी का उद्दाम और विवेकहीन उत्सवीकरण
दोनों एक ही बात हैं? समाज और व्यवस्था द्वारा लाद दी गई नैतिकता और वर्जना
की गठरी को उतार फेंकने की संघर्ष यात्रा की दिशा आखिर क्या है? स्त्री मन की इन वर्जनाहीन अभिव्यक्तियों को
पुरुषवादी नैतिकता से अनुकूलित मानदंडों से परखना कहाँ तक जायज है? मेरा आग्रह है कि इन या इन जैसे कई और सवालों की फेहरिस्त को स्त्री
कामनाओं की आधुनिक अभिव्यक्ति के ‘ऑडिट’ के रूप में देखा जाना चाहिये.
जयश्री रॉय की कहानी
‘एक रात’ (हंस, दिसंबर-२०१०) देह, सेक्स और प्रेम के अन्तर्सम्बन्धों पर गहराई से विचार करते हुये सेक्स को एक बेहद
खूबसूरत अनुभव मानती हैं, जो देह से की गई प्रार्थना है. ‘ऐसी प्रार्थना जो दो शरीर, दो हथेलियों की तरह एक साथ जुड़कर एक ही छंद, लय और ताल में एक ही उद्देश्य से करते हैं – उस बंधन में जो योग और अर्द्धनारीश्वर
है और उस मुक्ति के लिये जो बुद्ध का निर्वाण या आशुतोष का मोक्ष है. प्रेम में घटित
हुआ संभोग बंधन में अपनी मुक्ति तलाश लेता है और हर मुक्ति को अपना आलिंगन बना लेता
है.’ लेकिन यही संभोग जब आधिपत्य वृत्ति के साथ किसी अनिवार्य
अत्याचार की तरह आये तो उसे बलात्कार के सिवा कुछ और नहीं कहा जा सकता, चाहे वह सुहागरात ही क्यों न हो. सुहाग शैय्या पर कौमार्य भंग
का रिवाज पितृसत्ता की आधारभूत मान्यताओं का जरूरी हिस्सा रहा है. लेकिन विडंबना यह
कि अगली सुबह इस कठिन परीक्षा के निर्णय के उत्सव का ऐलान करने के पहले सुहाग सेज का
मुआयना करने वाली परिवार की वो ‘बड़ी-बूढ़ियां’ स्त्री ही होती हैं. ‘एक रात’ की मंदिरा स्त्री मानसिकता में अपनी जड़ जमा चुके
पितृसत्ता की उस असलियत को भली भांति पहचानती है. और वह इसे पहचाने भी क्यों नहीं, उस सुबह बिस्तर पर पाये गये खून के धब्बे योनि से ज्यादा उसकी
आंखों से जो निकले थे. जयश्री राय की यह कहानी बिना संकोच और भय के बलात्कार के उस
यंत्रणादायक यथार्थ से पर्दे तो हटाती ही है स्त्री मन की सहज और मानवोचित ईच्छाओं-कामनाओं
को भी अकुंठ अभिव्यक्ति देती है. पितृसत्तात्मक समाज में संभोग एक ऐसी जैविक क्रिया
रही है जिसमें पुरुष और स्त्री की भूमिकायें और उद्देश्य अलग-अलग होते हैं. इस उपक्रम
में पुरुष जहां कामेच्छा के चर्मोत्कर्ष पर जा कर वीर्य स्खलन में तृप्ति खोजता रहा
है वहीं स्त्री इस पूरी प्रक्रिया में एक दोयम दर्जे का साझीदार रही है जिसे हर हाल
में अपने पुरुष साथी को संतुष्ट करने के लिये एक सेविका या क्रीत दासी के रूप में प्रस्तुत
रहना है. यह पुरुष पति, प्रेमी या ग्राहक कोई भी हो सकता है. जाहिर है कि
इस व्यवस्था में दोयम दर्जे की इस साझीदार की इच्छा-अनिच्छा का तो कोई प्रश्न ही नहीं
उठता, उसके आदर और अवमानना की बात तो बहुत दूर है. इस कहानी
में संभोग को ‘दो हथेलियों की तरह एक साथ जुड़कर एक ही छंद, लय और ताल में एक ही उद्देश्य से की गई प्रार्थना’ कहते हुये, जयश्री राय सदियों
से चली आ रही साहचर्य की उसी जड़ और पितृसत्तात्मक अवधारणा को चुनौती देती हैं. लेकिन
प्रश्न यह भी है कि हर बंधन से मुक्त करनेवाली यह प्रार्थना क्या कोई स्त्री हर उस
पुरुष के साथ कर सकती है जो उसकी ज़िंदगी में मित्रभाव से प्रवेश करता है. स्त्री एक
मनुष्य है, लिहाजा उसके भीतर भी कामनाओं-इच्छाओं की लहरें सहज
और स्वाभाविक गति से हिलोर लेती हैं. प्रणय जो मंदिरा की जिंदगी में अजनबी की तरह आता
है, कुछ ही देर के बाद उसके लिये मित्रवत हो लेता है. प्रणय के भीतर
मंदिरा के लिये मचलता दैहिक आकर्षण और सवालों की शक्ल में उसकी तरफ उछाला गया अमंत्रण
पल भर को मंदिरा को बेहोश कर देते हैं, उसकी आदिम कामनायें खुद ब खुद जाग जाती हैं लेकिन एक सीमा के बाद मंदिरा का विवेक
जागता है और उसे इस बात का अहसास होता है कि प्रणय के साथ समागम का घटित होना उसे कहीं
अपनी ही नजर में न गिरा दे और वह उसे वहीं रोक देती है – ‘जरूरी नहीं कि स्त्री पुरुष के जिस्म हमेशा एक प्रार्थना में
दो हाथ की तरह जुड़ें, वे एक ही दुआ में दो हाथ की तरह अलग-अलग रहकर भी
एक सनातन साथ में हो सकते हैं! आओ, हम हमेशा एक दुआ की तरह साथ रहें, प्रार्थना में जुड़कर अपना अस्तित्व समाप्त न कर लें…’ प्रश्न यह भी है कि सबकुछ पा लेना प्रेम के आगे कहीं पूर्ण विराम
तो नहीं लगा देता? सारी स्वाभाविक कामनाओं के बावजूद मनुष्य और पशु
में एक अंतर है. मनुष्य और पशु के बीच का यही अंतर शायद मंदिरा को रोकता है कारण कि
मिलन के बेहद खूबसूरत अनुभव को अपनी देह में जी कर खुद को मुक्ति के बाहुंपाश में बांधना
चाहती है वह, देह में लिथड़ कर उस खूबसूरत एहसास को हमेशा के लिये
खोना नहीं चाहती. यद्यपि कहानी प्रकटत: ऐसा कोई इशारा नहीं करती, लेकिन ऐसा करते हुये यदि मंदिरा के अवचेतन में लंदन स्थित अपने
उस चित्रकार प्रेमी, जिसके साथ वह विगत तीन वर्षों से रह रही है, का खयाल भी बसा हो तो आश्चर्य नहीं. इस तरह यह कहानी बिना नैतिकता
का शोर-शराबा किये तमाम पाठकीय कयासों को झुठलाते हुये देह के पार जाते-जाते देह के
परे चली जाती है.
प्रसिद्ध नारीवादी
विमर्शकार मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘विन्डिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमैन’ जिसे स्त्री अस्मिता विमर्श की पहली महत्वपूर्ण कृति की मान्यता
प्राप्त है, में कहा है- “मेरी बहनो! तुम्हे मन का वह संयम
अर्जित करना होगा जिसे कर्तव्यों का निष्पादन और ज्ञान-प्राप्ति का लक्ष्य ही उत्प्रेरित
कर सकता है, अन्यथा तुम अभी भी संदिग्ध परतंत्र स्थिति में बनी
रहोगी और तभी तक प्रेम की पात्र होगी जब तक तुम्हारा रूप अक्षुण्ण बना रहेगा.”
वोल्स्टनक्राफ्ट मन के जिस संयम की बात कह रही हैं, देह की कामना में उन्मत्त प्रणय को रोककर मंदिरा अंतत: उसे अर्जित कर लेती है.
लेकिन मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानी ‘एडोनिस का रक्त और लिली के फूल’ (हंस, अगस्त-२०१०) में अंबिका के बहाने जैसे मंदिरा का
प्रतिलोम रचती दिखाई देती हैं. हां, प्रतिलोम ही तो है यह. मंदिरा एक अजनबी मित्र के साथ अपनी कामनाओं में बहते हुये
साहचार्य की दहलीज से लौट आती है लेकिन अंबिका अपनी इच्छा से बे हील-हुज्जत एक ही रात
एक ही बिस्तर पर एक ही साथ दो पुरुषों के साथ साहचर्य करती है…”नैतिक या अनैतिक
अपने पूरे अर्थ में यह जो भी था, तीनों की आत्मा का
हिस्सा बन गया था. कुछ था जो बीत गया था, कुछ बीतने को था.” सवाल सिर्फ नैतिक-अनैतिक का नहीं है, पुरुष दृष्टि से संचालित होती उस स्त्री के गुम हो चुके उस आत्मबोध
का भी है जो यौन जीवन में सुख, तृप्ति एवं आनंद
का अधिकार प्राप्त करने की बजाय एक पुरुष की फैंटेसी को सच करन में लग जाती है…
“कल रात जो था, प्रेम नहीं था. सैकंड वर्ल्ड वार में फ्रांसिसी सैनिक
इसे ‘मैनेज ए त्रायोस’ कहते थे. यह पुरुष-मनोलोक की अजीब सी फंतासी है. अपनी प्रेमिका को किसी और के साथ
देखना. बट इट्स डिजायर्ड बाय एवरी मेन, लिव्ड बाय वेरी फ्यू. क्योंकि हर कोई इस फंतासी से निकलकर सच का सामना नहीं कर
सकता न!” अपने प्रेमी के इस साहस(?) पर बलिहारी जाती इस अंबिका को तो इस बात का अहसास तक नहीं कि उसके प्रेमी मेजर
सक्सेना और एक दिन पहले तक के अजनबी पेशेंट लेफ्टिनेंट अनुज के भीतर एक ही आदिम मर्द
बैठा है जो हर हाल में स्त्री को भोगना जानता है कभी सच को फैंटेसी में बदल कर तो कभी
फैंटेसी को सच में बदल कर. यही कारण है कि मेजर और लेफ्टिनेंट के बीच इस तरह बंटने
का निर्णय जो ऊपर से अम्बिका का दिखता है, दरअसल उसका है ही नहीं, पितृसत्ता ने उसका भीतर तक अनुकूलन कर दिया है. इस
कहानी का यह मेरा यह पाठ मेरे कई कथाकार-मित्रों,
खासकर कविता और जयश्री रॉय को स्वीकार नहीं है। उल्लेखनीय है कि यह सब जहां घटित होता
है उससे महज चार घंटे की दूरी पर युद्ध चल रहा है और अगले ही दिन मेजर और लेफ्टिनेंट
दोनों को युद्ध पर चले जाना है… “नैतिकता, संयम, अहिंसा ऐसे बर्बर
माहौल में अपने मायने खो देते हैं. कलायें संगीत और साहित्य भी अमन के दिनों के शगल
हैं. इन विध्वंसक पलों में बस मूल प्रवृत्तियां काम करती हैं…” अंबिका के इस व्यवहार को कविता जहां जमाने से
दबाई गई औरत का अपने मन का कुछ कर पाने और चुन पाने की सांघातिक विकलता और अपने
प्रेमी के जीवन में कुछ पल को ही सही बसंत का उत्सव भर देने की चाह मानती हैं, तो जयश्री इसे प्रेम के उस उदात्त स्वरूप से जोड़कर देखती हैं जहां
पाने से ज्यादा अपने प्रियपात्र के लिए
अपना सर्वस्व निछावर कर जाने का भाव ही प्रमुख होता है। ऐसा कहते हुये इन दोनों की
नजर सीमा पर चल रहे युद्ध और उसमें होनेवाली इन दोनों की संभावित भूमिका पर है। यह
मानते हुये कि कहानी की घटनाओं को कहानी के संदर्भों के साथ ही जोड़कर पढ़ा जाना
चाहिए मेरे भीतर यह प्रश्न तो खड़ा होता ही है कि क्या सचमुच यह नैतिकता, संयम और मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों का मामला भर है? प्रश्न यह भी है कि
‘पुरुष-मनोलोक के इस अजीब सी फंतासी’ का जिक्र और प्रेम के इस उदात्त मनोविज्ञान का तर्क कहानी में
घटित इस संभोग-त्रिकोण के औचित्य को तर्कसंगत साबित कर पाते है? मुझे लगता है इस तरह के रूमानी तर्क कई बार कार्य-कारण संबंध की
भी अनदेखी कर जाते हैं।
सीमोन ने कहा है
कि “औरत को केवल सेक्सुअल अवयव नहीं समझा जा सकता. जैविक विशेषताओं का भी वहीं
तक महत्व है, जहां तक वे सक्रिय रूप से ठोस मूल्यों के निर्माण
में सहायक होती हैं. औरत का आत्म-बोध केवल उसकी सेक्सुअलिटी से परिभाषित नहीं किया
जा सकता.” सीमोन के इस कथन के आलोक में यदि हम समकालीन स्त्री कथाकारों की कुछ
ऐसी कहानियों को देखें जो स्त्री यौनिकता को लेकर असमान्य मनोविज्ञान की कहानियां हैं
तो यौनिकता और समाज के अन्तर्सम्बन्धों और उसके सामाजिक परिणामों को समझने में मदद
मिलेगी. असमान्य इसलिये कि ये कहानियां स्त्री यौनिकता पर बात करते हुये परिवार, समाज आदि संस्थाओं के भविष्य और उसके विकल्पों पर बिना अपनी
राय रखे स्त्री आत्मबोध को विशुद्ध रूप से देह के स्तर पर देखती-परखती हैं. इस क्रम
में मैं यहां जिन दो कहानियों का जिक्र करना चाहता हूं वे हैं प्रत्यक्षा की ‘केंचुल’ (हंस, मार्च – २०१०) और नीलाक्षी सिंह की ‘उस बरस के मौसम’. अतृप्त दैहिक लालसा कई बार मन के भीतर गांठ को जन्म देती है. लेकिन किसी स्त्री
मन में पड़े इस गांठ की जड़ में यदि पिता के प्रति आसक्ति और मां के लिये नफरत (केंचुल)
हो तो? ताउम्र न खत्म होने वाली एक बेनाम तकलीफ, जो आसक्ति और अतृप्त लालसा के साथ बार-बार पिता की स्मृतियों
में जाती है. पिता के जितने पास, मां से उतनी ही दूर. यह किसी बुजुर्गवार के प्रति ममता नहीं
पिता के प्रति अस्वाभाविक यौन आसक्ति का प्रसंग है जो समय की शिला पर घिस-घिस कर एक
कुंठाजनित मनोरोग का रूप ले चुका है. केंचुल के ‘मैं’ की यह गांठ तब खुलती है जब उसे यह अहसास हो जाता
है कि उसके जीवन में आया एक पुरुष (साइकेट्रिस्ट) उसके पिता जैसा है. पिता, जिसकी परछाइं के पीछे अपनी अतृप्त देह लिये वह ता उम्र भागती
रही, उन्हीं की एक आभासी अनुकृति किसी तीखे उन्माद और
हवस के क्षण में सारी वर्जना और नैतिकता को परे धकेलते हुये उसके तमाम अवगुंठनों को
खोल कर रख देती है. यह कहानी सेक्स को एक थेरैपी की तरह रेखांकित करती है. लेकिन एक
स्त्री के लिये सेक्स का यूं थेरैपी हो जाना सचमुच इतना आसान है क्या? और वह भी तब जब उस स्त्री के भीतर एक दूसरी स्त्री के लिये, जो उसकी मां है, बेहिसाब नफरत भरी हो…” मां सिर्फ आधे दिन के लिये आई थी. लौटने के पहले
वो पापा के कमरे में एक घंटे के लिये बंद थीं. मैं बाहर बिफरे शेर की तरह टहल रही थी.”
.
‘उस बरस के मौसम’ की डाक्टर अंतरा मलिक भी देह की कामना में लिथड़ी
एक ऐसी स्त्री है जो देह में प्रेम की अनिवार्यता को बार-बार परखना चाहती है, तब भी जब वह साहचर्य के बगैर वैकल्पिक क्रियाओं से अपनी कामेच्छा
शांत करती है और तब भी जब वह समागम का सुख पोर-पोर में जीती होती है… ” अगर
देह माध्यम न बने तो क्या प्रेम की मंजिल तक कोई पहुंच नहीं सकता! जब उसकी देह प्रेम
में सराबोर थी, तभी उसने सोचा कि शरीर प्रेम को व्यक्त करने का एक
माध्यम है जरूर, पर अनिवार्य माध्यम कतई नहीं. ठीक उसी समय उसके कंठ
से एक आदिम चीख निकली. हर तरह से चीख ही थी वह. बस एक आवाज़ भर की कमी थी. कुछ रिस रहा
था, उसके भीतर से. उसी अनुपात में आंसू भी बहते थे. वह पूर्ण हो
चुकी थी…” स्पष्ट है कि लेखिका प्रेम में देह की अनिवार्यता को लेकर कुहासे
से भरी दुविधा में है. देह को प्रेम की अभिव्यक्ति का एक अनिवार्य माध्यम नहीं मानते
हुये भी देह की प्राप्ति के बाद खुद को पूर्ण मान लेने का भाव लेखिका के इसी द्वव्द्व
को दर्शाता है. उल्लेखनीय है कि अंतरा मलिक जिस डाक्टर अक्षत कुलकर्णी से प्रेम कर
रही है वह पहले से शादीशुदा है. जाहिर है, पहली औरत बनाम दूसरी औरत का एक द्वन्द्व भी कहानी में लगातार चलता रहता है. लेकिन
इन तमाम द्वन्द्व और दुविधाओं के बीच अंतरा मलिक आकर्षण से बहुत आगे इस तरह देह की
कामना में आकंठ डूबी है कि देह से दूर रहने के अपने आरंभिक वायदे का अतिक्रमण करते
हुये अंतत: देह का सफर भी तय कर लेती है.
यौन व्यवहार में
स्त्री और पुरुष दोनों के लिये सुख के अलग-अलग मायने होते हैं. पुरुष जहां यौन संबंधों
को समान्यतया शरीर के स्तर पर जीता और आनंद प्राप्त करता है वहीं स्त्री के लिये रति-सुख
का मतलब शरीर से आत्मा तक की यात्रा होती है. यदि स्त्रियों मे चरम सुख की स्थिति सामान्यतया
नहीं आती या देर से आती है तो इसके कारण सिर्फ जैविक ही नहीं मानसिक भी हैं. उनके लिये
शरीर का मिलना सिर्फ दैहिक नहीं होता तभी तो एक बार का समागम भी उसे ताउम्र याद रहता
है उससे जुड़ी हजार पीड़ाओं के बावजूद जबकि पुरुष बड़ी आसानी से यह भर कह कर मुक्त हो
जाता है कि ‘इट वाज़ प्योरली फिजीकल’… “क्या मेरे इस अजनबी प्रेमी का यह खूबसूरत चेहरा कभी मेरी आंखों
के सामने से ओझल हो पायेगा? मुझ पर झुकी हुई वे नीली आंखें क्या कभी धूमिल हो
जायेंगी? उसकी वह अपार अपरिचित खूबसूरती क्या मैं एक दिन भूल
जाऊंगी/” (समानांतर रेखाओं का आकर्षण, हंस) हालांकि इस कहानी में अभिव्यक्त स्त्री-पुरुष के यौनिक संवेदनशीलता के अंतर
को पंखुरी सिन्हा पूरब और पश्चिम के जीवन शैली से जोड़ कर देखती हैं लेकिन मेरी राय
में यह पूरब पश्चिम से ज्यादा स्त्री-पुरुष के अलग-अलग यौन आचार-व्यवहारों से जुड़ा
मामला है. हाम, यह कहानी जिस सहजता से एक स्त्री की कामनाओं को शब्द
देती है वह निश्चित तौर पर पहले संभव नहीं था.
पितृसता ने जमाने
से स्त्री तन-मन पर इतनी वर्जनायें थोप रखी हैं कि वह अपनी कामनाओं को आसानी से आवाज़
भी नहीं दे सकती. उसकी तो हर सांस और आवाज़ पर किसी ने पहरे बिठा रखे हैं. ” अगर
इस जरूरत को झपट लेने की बलवती आकांक्षा पैर फैलाने लगे तो सबसे पहले उसी की नजर में
गिर जायेंगी जिसके प्रति देह का आकर्षण और प्यार की हिलोरें उठ रही हैं. सारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार सब व्यर्थ चले जायेंगे. मिलेगा दुत्कार और जगत बिना
सोचे-समझे काट कर गाड़ देंगे.” (कथा के
गैर जरूरी प्रदेश में, अल्पना मिश्र – पहल) देह-सुख की प्राकृतिक कामना
और उसके प्रति क्रूर पुरुष-व्यवहार के बीच कामांक्षाओं को न व्यक्त कर पाने की विकलता
के समानान्तर अल्पना मिश्र इस कहानी में मनोनुकूल साथी के अभाव में सोलो सेक्स की मजबूरियों
को भी रेखांकित करती है, जो विकृति नहीं प्राकृतिक जरूरतों की शक्ल में सामने
आता है. पुरुषवादी समाज ने हमेशा से स्त्री के मन और शरीर दोनों पर पहरे बिठाये हैं.
न तो स्त्री का मन अपना है और न उसकी देह.
स्त्री मन-और तन पर लाद दिये गये इस
बोझ को हटा फेंकने की एक अद्भुत हिम्मत और
बेचैनी इस कहानी में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. लेकिन विडंबना यह है कि
इस नैसर्गिक इच्छा को व्यक्त करने का हक स्त्रियों को नहीं रहा है. यह विडंबना तब और
त्रासद हो जाती है जब अपनी हवस मिटाने को बेताब पति (मर्द) के स्पर्श या कि बचपन के
किसी यौन कुंठित मास्टर साहब की स्मृति भर से ही स्त्री मन के किसी कोने में दबी इस
रेशमी इच्छा की डोर टूट सी जाती है. और यहीं आ कर यह कहानी किसी ऐसे साथी या मित्र की अदृश्य जरूरत को रेखांकित कर जाती है जो देवता
नहीं साझीदर हो, मालिक नहीं हमसफर हो. यह कहानी व्यक्तित्व की पहचान
और व्यक्ति की स्वतंत्रता को जिस धरातल पर उठाती है वहां मन और देह दोनों की बराबर
की भूमिका है.
मनोनुकूल साथी का
अभाव जहां स्त्री तन-मन में पीड़ा और कुंठा की गांठें बांध देता है वहीं किसी मनोनुकूल
साथी का साथ उन तमाम गिरहों को झटके में खोल देता है जिस पर कुंठाओं-वर्जनाओं की न
जाने कितनी परतदार धूल कितने वर्षों से पड़ी होती है. आधुनिक स्त्री अस्मिता विमर्श
का उद्देश्य न तो स्त्रियों का पुरुषीकरण है और न हीं पुरुषों के प्रति कभी न खत्म
होनेवाले घृणा-भाव की स्थापना. वह तो ऐसे मनोनुकूल साथी की खोज यात्रा है जो न सिर्फ
उसे परंपरा से फल-फूल रहे बंधनों से मुक्त करे बल्कि उसकी इस मुक्ति यात्रा का हमसफर
भी हो. ‘कथा के गैर जरूरी प्रदेश में’ दिखने वाले ऐसे ही पुरुष साथी के अभाव को अंशत: पूरा करती है
कविता की कहानी- ‘तुमने खजुराहो की मूर्तियाँ देखी
है!‘ अंशत: इसलिए कि
इस कहानी की नायिका अदिता औरर आकाश का साथ किसी विवाह-संस्कार की परिणति नहीं, न हीं उनके बीच जन्म-जन्मांतर का कोई वादा है। अदिता तो उस आकाश को पाना
चाहती है जिसे वह प्रेम करती है। उसे इस बात का भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह साथ महज
चंद दिनों का है। आकाश का शादीशुदा होना हो सकता है हमारे पारंपरिक मूल्यबोध को
खटके, लेकिन अदिता के मन में इस छोटी समयावधि के संबंध को ले कर न कोई
अपराधबोध है न कोई ग्लानि। वह आगत और विगत के द्वंद्व से दूर सिर्फ और सिर्फ
वर्तमान को जीकर अपने तन-मन पर लगी गांठों से मुक्त हो जाना चाहती है-
“…वह नहीं
चाहेगी आकाश पर अपना आधिपत्य वह नहीं मांगेगी उससे कल के लिए कोई वादा, कोई अधिकार भी नहीं, विगत के लिए कोई
सवाल भी नाही…
वह नहीं छीन रही
है किसी से किसी के हिस्से का कुछ,
वह तो बस अपने हिस्से के चंद क्षण चाह रही है, जो कि उसके थे
सिर्फ उसके। उन पलों से ज्यादा उसे कुछ नहीं चाहिए। न कुछ उससे आगे न कुछ उससे
पीछे। वह बढ़ सकेगी ज़िंदगी में फिर आगे। घड़ी की अटकी हुई सुई को बढ़ने देगी।”
तमाम तरह की पारंपरिक
शुचिताओं, नैतिकताओं और मूल्यबोधों से इतर
अपने सपनों के अधिष्ठाता के साथ अपनी ज़िंदगी के विलंबित सुरों को स्वर देने के इस
अनुष्ठान को महज देह-क्रीडा नहीं कहा जा सकता, न नैतिकता के
बने-बनाए मानदंडों से मापा ही जा सकता है। चंद दिनों तक साथ रहने के बाद आकाश को
विदा करते हुये अदिता कहती है- ‘जाओ आशु, अब तुम्हें जाना चाहिए, तुम्हारे परिवार को
तुम्हारी जरूरत है।‘ अपने सुख की तलाश और अपने प्रेमी की
ब्याहता के लिए एक तरह के अव्यक्त बहनापे के द्वंद्व की यह जटिलता अदिता के मन की
सुबकन को उसके जुबान तक नहीं लाने देना चाहती है। प्रेम और देह के अंतर्संबंधों को
लेकर भी वह किसी कुहासे की स्थिति में नहीं है। खजुराहो के मंदिरों में चित्रित प्रणय
दृश्यों में स्त्रियॉं की वर्जनामुक्त छवियां अदिति के परंपरा पोषित मन में शुरुआती
झिझक तो पैदा करती हैं, पर तुरंत ही वह इस दुविधा से बाहर आ
जाती है। यदि प्रिय वह है जो हमेशा से काम्य है, स्त्री-मन
के सपनों का अधिष्ठाता है तो फिर एक स्त्री भी नि:संकोच और वर्जनाओ से मुक्त हो कर
प्रेम के अनतरंग क्षणों को अपने साथी के साथ समान धरातल पर जी सकती है।
कविता की यह
कहानी आद्योपांत अदिता की मन:स्थितियों पर ही केन्द्रित है। प्रेम और देह की जिस
नई नैतिकता के पक्ष में यह कहानी खड़ी होती है,
वह अदिता की तरफ से सोचते हुये सहज, सुंदर और बहुत हद तक काम्य
भी प्रतीत होता है। लेकिन नैतिकता कोई एकांगी विमर्श नहीं है। प्रतिपक्षी
मन:स्थिति को समझे बिना इसकी मुकम्मल पड़ताल नहीं हो सकती। यहीं आकर यह प्रश्न सहज
ही खड़ा हो जाता है कि अदिता की नैतिकता को यदि आकाश की पत्नी की दृष्टि से देखने
की कोशिश की जाये तो? साथ ही अदिता और अपनी पत्नी के मध्य
खड़े आकाश की नैतिकता किन तर्कों या विश्वास के सहारे अपना पक्ष रखेगी? इन प्रश्नों के उत्तर बहुत सहज नहीं हैं, इसलिए यह
देखना बहुत दिलचस्प होगा कि कविता अपनी आगामी कहानियों में इन असुविधाजनक सवालों से किस तरह टकराती हैं।
विगत के दबाव और
आगत की चिंताओं से मुक्त होकर वर्तमान को जीने और स्वीकारने की जिस नैतिकता को
कविता ने ‘तुमने खजुराहो की मूर्तियाँ देखी
हैं!‘ में प्रस्तावित किया है, मनीषा पांडे अपनी कहानी ‘स्टारी-स्टारी
नाइट्स‘ में उसे दो कदम और आगे ले जाती हैं। प्रेम और देह के
अनसुलझे सवालों को नए सिरे से सुलझाने की कोशिश करती यह कहानी वर्तमान की सत्ता और
महत्ता को तो रेखांकित करती ही है, प्रेम में घटित सभी
अच्छे-बुरे को स्त्री और पुरुष का एक संयुक्त उपक्रम भी मानती है। एक दूसरे पर धोखा, छल और प्रपंच का दोषारोपण करने की बजाए हर करणीय-अकरणीय में स्त्री और
पुरुष की बराबर की साझेदारी को स्वीकारने का यह नैतिक साहस कई अर्थों में एक नई
समझदारी की प्रस्तावना है। इस कहानी में परस्पर प्रेम और भरोसे का संबंध स्थापित
होने के बाद मिताली और अरिंदम जीवन के किसी खूबसूरत मोड़ पर एक दूसरे के साथ देह से
भी जुडते हैं – अपनी मर्जी से, एक दूसरे की भावनाओं का
सम्मान करते हुये, बिना किसी दबाव और वर्जना के।
गौरतलब है कि जबतक
उन दोनों के बीच परस्पर अनुराग से सिक्त यह समागम नहीं घटित हुआ था, अरिंदम लगातार मिताली के संपर्क में था,
अपने नेह को अभिव्यक्त करता हुआ। पर उसके
बाद यह सिलसिला धीरे-धीरे टूट-सा जाता है। ऐसे में मिताली की दोस्त अरघा उन
प्रश्नों का प्रतिनिधि चेहरा बन कर सामने आती है जो ऐसे वक्त सामान्यतया किसी भी व्यक्ति
के भीतर उभर सकते हैं – क्या पुरुष ऐसे ही होते हैं? एक बार देह पा लेने के बाद क्या सबकुछ खत्म हो जाता है? क्या वह एक रात ही उस सफर की मंजिल थी? एक मंजिल
मिल जाने के बाद दूसरे सफर के लिए निकल पड़ना ही मूल पुरुष-वृत्ति है? आदि-आदि… लेकिन मिताली इन प्रश्नों को सिरे से खारिज कर देती है – ” मैं जानती हूं कि वो बुरा और कपटी आदमी नहीं था। उस रात जब वो
बांद्रा स्टेशन पर भागा-भागा आ पहुंचा था, वो सच था और जब
देहरादून के रास्ते जाने के बाद फिर कभी नहीं लौटा, वो भी सच
था। संभव है उसकी कामना देह ही रही हो, लेकिन उस सफर में भी
उसने अपनी और मेरी गरिमा नहीं खोई। प्यार करते हुये वो पवित्रता का स्वांग नहीं कर
रहा था, वो सचमुच पवित्र था। एक स्त्री की अंतरात्मा जानती है
कि वो पवित्र है। उसके पहले एस एम एस में भजे गए आलिंगनों, चुंबनों
और आय लव यू का सारा खेल अगर तुझे छल और कपट लगता है तो क्या मैं भी उस छल में
बराबर की साझेदार नहीं थी? हम एक ऐसे वक्त के शिकार थे, जहां हमने होश संभालते ही देह के उदात्त संसार को भी शब्दों और
सांसारिकता के चश्मे से ही देखना सीखा था। वो प्रेम का जाल बुन रहा था क्योंकि मैं
चाहती थी की प्रेम का जाल बुना जाये। उस जाल के भीतर मेरा रूढ स्त्री मन खुद को
सुरक्षित महसूस करता था। जो भी किया, हम दोनों ने किया। कपट
था भी तो दोनों का कपट था। हमारे समय का कपट था।” रिश्ते को उसकी गरिमा और
उदात्तता के साथ जीने की अवधि चाहे जितनी छोटी क्यों न हो, मिताली
उसे ताउम्र एक खूबसूरत स्मृति की तरह सहेज कर रखना चाहती है,
उसे किसी स्त्री की आह और कराह के बाने में लपेट कर सुख के उस बृहत्तर और उदात्त
क्षण को आहत नहीं करना चाहती। प्रेम की उदात्तता को उसके वर्तमान में समझते और स्वीकारते
हुये उसे जीवन भर की थाती के रूप में सहेज कर रख लेने की यह चाह मिताली और अदिता (तुमने
खजुराहो की मूर्तियाँ देखी हैं!) को एक धरातल पर ला खड़ा करती है। प्रेम और देह की
अभिसंधि पर खड़ी इस नई नैतिकता से सहमत-असहमत हुआ जा सकता है लेकिन इसे सिर्फ देह तक
सीमित कर के कदापि नहीं देखा जा सकता। चूंकि मिताली और अरिंदम दोनों की वैवाहिक
स्थितियों का जिक्र कहानी में स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है और कहीं न कहीं कहानी से
संदर्भ दोनों के सिंगल होने का ही संकेत करते हैं, इसलिए
यहाँ प्रेमिका और पत्नी के द्वंद्व का सवाल तो नहीं खड़ा होता है, पर हाँ, यह प्रश्न तो उठता ही है कि क्या यौन
नैतिकता का यह नया मानदंड सभी वर्ग और पृष्ठभूमि के स्त्री-पुरुषों के लिए समान
रूप से लागू किया जा सकता है? ‘प्रेम के
जाल के भीतर रूढ स्त्री मन के सुरक्षित रहने का मनोविज्ञान‘ क्या
सिर्फ एक व्यामोह भर है या इसकी कोई वर्गीय, सामाजिक और सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि भी होती है? कहानी के स्त्री और पुरुष दोनों पात्र
आत्मनिर्भर तथा खुले, आधुनिक, और परिष्कृत
सोच के स्वतन्त्र और आत्मसजग व्यक्ति हैं। यौन नैतिकता के पुराने मूल्यों के टूटने
और नए मूल्यों की स्थापना पर विचार करते हुये इन तथ्यों पर भी ध्यान दिया जाना
चाहिए।
प्रेम और जीवन
में देह की भूमिका को लेकर ये कहानियाँ कई स्तरों पर और कई कोणों से विचार करती
हैं। अपने प्रिय पात्र की किसी भावनात्मक त्रासदी या अक्षमता के कारण देह- सुख से
वंचित स्त्री के मनोविज्ञान को इस संग्रह की तीन कहानियाँ- ‘गोरिल्ला प्यार’ (गीताश्री), ‘महुआ मदन रस टपके’ (विभा
रानी) और ‘छाया युद्ध’ (वंदना राग) अपने-अपने
तरीके से व्याख्यायित करती हैं। यूं तो ये तीनों कहानियाँ अतृप्त स्त्री की मानसिक
यंत्रणा को ही केंद्र में रख कर लिखी गई है, फिर भी तीनों
में एक खास तरह की भिन्नता है। ‘गोरिल्ला प्यार‘ की अर्पिता का प्रेमी जहां आपस की किसी गलतफहमी के कारण उसे प्रणय के
दौरान ही बिस्तर पर छोड़ कर चला जाता है, वहीं ‘महुआ मदन रस टपके‘ की महुआ ने अपने प्रेमी मदन को देह-सुख देने में पर्याप्त सक्षम
नहीं होने के बावजूद उसकी मर्दाना हेठी के कारण घर से निकाल दिया है। इन दोनों से इतर
‘छाया युद्ध‘ की शायना की समस्या थोड़ी
अलग है। उसका पति सिद्धार्थ जिसकी मां मर चुकी हैं, इस कदर
मातृ ग्रंथि से पीड़ित है कि शायना में भी हर क्षण अपनी माँ को ही ढूँढता है और
उसके साथ देह-संबंध नहीं बना पाता। इस तरह तीन अलग-अलग पृष्ठभूमि की ये कहानियाँ
लगभग एक तरह के स्त्री मनोविज्ञान की तीन अलग-अलग त्रासद अंतों की कहानियाँ हैं।
यद्यपि ये तीनों स्त्रियाँ किसी न किसी रूप में अतृप्त यौनेच्छाओं की शिकार हैं
लेकिन इनकी पारिवारिक, मानसिक परिस्थितियाँ एक दूसरे से जुदा
हैं। गौरतलब है कि शायना जहां एक शादीशुदा गृहस्थिन है, तो वहीं
महुआ मदन के साथ ‘लिव इन’ में है, जबकि अर्पिता और इन्द्र ‘लिव इन’ से भी दूर सिर्फ प्रेम और साहचर्य के रिश्ते में हैं और दो अलग-अलग घरों
में रहते हैं। हालांकि ये तीनों कहानियाँ स्त्री मन की अनकही पीड़ा और उससे उत्पन्न
त्रासदी को ही दिखाना चाहती हैं लेकिन लेखकीय कौशल और प्रयुक्त कथात्मक युक्ति और
प्रविधि की भिन्नता इन तीनों कहानियों तीन अलग-लग नियतियों तक पहुंचा देती हैं।
बात पहले ‘गोरिल्ला प्यार‘ की। अर्पिता एक
आज़ादख्याल और स्वतंत्रचेता स्त्री है। वह विवाह संस्था ही नहीं ‘लिव इन’ की व्यवस्था में भी विश्वास नहीं करती। क्षण
और पल की सत्ता में विश्वास करनेवाली वह एक ऐसी मनमौजी स्त्री है जिसे आपसी रिश्ते
में किसी तरह का हस्तक्षेप पसंद नहीं। एक दिन प्रगाढ़ प्रेम के क्षण में इन्द्र उसे
इसलिए छोड कर चला जाता है क्योकि उसने उसकी एक गलतफहमी का कोई जवाब नहीं दिया था।
उल्लेखनीय है कि इस गलतफहमी की जड़ में खुद अर्पिता का एक झूठ है। एक शाम अपने बॉस
के साथ किसी कपल क्लब में होने के बावजूद उसने इन्द्र से यह कहा था कि वह बॉस के
साथ दफ्तर के केबिन में है। इस झूठ के पकड़े जाने और फिर इन्द्र द्वारा सवाल किए
जाने को वह अपनी स्वतन्त्रता में उसका हस्तक्षेप मानती है और माकूल जवाब नहीं
मिलने के कारण इन्द्र उसे उसी अवस्था में छोड कर चला जाता है। दस दिनों तक मन ही
मन इन्द्र का इंतज़ार करने और अतृप्ति के दंश से उत्पन्न पीड़ा को झेलते रहने के बाद
एक रात वह एक अंजाने फेसबुक फ्रेंड के साथ देह-संबंध बनाती है। कहानी के अंत में
जब वह उस फेसबुक फ्रेंड के साथ रात बिताकर लौट रही होती है,
इन्द्र का फोन आता है कि वह उसके बिना नहीं रह सकता, उसे माफ
कर दे। अर्पिता का मानना है कि स्त्री पुरुष का स्थाई साथ चाहे वह शादी के नाम पर
हो या ‘लिव इन’ के नाम पर उनके बीच के
परस्पर प्यार को समाप्त कर देता है और अंतत: उनका रिश्ता सामंत और गुलाम का हो कर रह
जाता है। वह प्रेम और देह के संदर्भ में किसी कालातीत प्रतिबद्धता या एकनिष्ठा
जैसी बातों को भी नहीं मानती। उसके लिए जीवन का एक ही अर्थ है – एक दूसरे के जीवन में बिना कोई हस्तक्षेप किए
प्रेम और आनंद के तलाश की यात्रा! लेकिन
एक दूसरे के जीवन से एकदम तटस्थ या विमुख रहते हुये भी आपसी प्रेम का कोई रिश्ता
कायम हो सकता है? एक दूसरे के लिए सम्मान, सदभाव चिंता, आदि के बिना संबंध का जो स्वरूप सामने
आता है, क्या उसे प्रेम कहा जा सकता है? लेकिन गौर करें तो प्रेम के पारंपरिक खांचे से बाहर जाकर कुछ नया रचने का
जतन करती अर्पिता का भाव बोध भी प्रेम के
उसी पारंपरिक धरातल पर खड़ा है। ऊपर से प्रतिबद्धता की बात को खारिज करनेवाली
अर्पिता इन्द्र के रहते किसी दूसरे के साथ कोई रिश्ता नहीं जोड़ती। यहाँ तक कि बॉस
का प्रेम प्रस्ताव खारिज कर दफ्तर में एक शक्तिशाली दुश्मन पैदा कर लेती है। ऊपर
से प्रेम और रिश्ते को नकारने का जिद ठाने बैठी अर्पिता भीतर से कहीं न कहीं प्रेम
और रिश्ते की खोज में ही तो है – एक ऐसा रिश्ता जो धोखा, छल और
अविश्वास से परे हो। तो फिर उसके और इन्द्र के रिश्ते के बीच पड़ चुकी दरार को क्या
कहा जाये? एक नासमझ प्रतिक्रियावादी अतिरेक का दुष्परिणाम या
और कुछ? एक दूसरे की ज़िंदगी में दखल न देना एक बात है और आपस
में गलतफहमी पैदा होना दूसरी बात। पारदर्शिता और झूठ भी साथ-साथ नहीं चलते। प्रश्न
कुछ और भी हैं। पूरा कथानक जिस झूठ के बाद आकार ग्रहण करता है यदि वह ठीक उलट होता
यानी यदि वह झूठ इन्द्र ने कहा होता तो क्या अर्पिता उससे कुछ नहीं पूछती? दरअसल यह एक दूसरे को स्पेस देने या एक दूसरे के निज में अनावश्यक दखल देने
का सामंती मामला है ही नहीं, यह तो दो व्यक्ति के बीच किसी
झूठ के कारण उत्पन्न एक गलतफहमी भर का मामला है जिसे आपसी समझदारी से सुलझाने की
कोशिश जरूर की जानी चाहिए। लेकिन लेखिका उस दिशा में कोई प्रयास किए बगैर वहीं
कथानक की नाल गाड़ देती हैं। यदि उस गलतफहमी को सुलझाने की कोशिश की गई होती तो
शायद यह पूरी कहानी इस तरह घटित होती ही नहीं। तो फिर इसे क्या कहा जाये – कहानी को संभालने के
लिए जरूरी कलात्मक दक्षता का अभाव या फिर प्रतिक्रियावाद का दिशाहीन दबाव? या फिर दोनों का सम्मिलित प्रभाव?
‘गोरिल्ला
प्यार’ की उलझी हुई स्थापनाओं को और आगे बढ़ते हुये विभा रानी
की कहानी ‘महुआ मदन रस टपके’ देह की
जरूरत को एक सामान्य जैविक प्रक्रिया की तरह विश्लेषित करते हुये यौन संबंध बनाम
शादी की अनिवार्यता का प्रश्न खड़ा करती है। महुआ कहती है- ‘मेरे
समझ में नहीं आता कि इस नार्मल और नेचुरल नीड को पूरा करने के लिए शादी क्यों की
जाये? नो मॉरल-वॉरल… बुलशिट… आई डोंट बिलीव।‘ उल्लेखनीय है कि महुआ मदन के साथ ‘लिव इन’ में रहती है और उसका विश्वास उस व्यवस्था में नहीं है जिसमें हसबैन्ड और
वाइफ की तयशुदा भूमिकाएँ होती हैं। वह भविष्य में जरूरत महसूस होने पर विवाह कर भी
सकती है लेकिन जरूरी नहीं कि उसी मर्द के साथ जिसके साथ वह ‘लिव
इन’ में थी। देह की पवित्रता में ही सारे आदर्श ढूँढने की
सामंती प्रवृत्ति का पुरजोर विरोध करते हुये यह कहानी देह की एक नई आचार संहिता लिखना
चाहती है, जिसमें स्त्री-मन की कामनाओं को भी बराबरी के
धरातलपर देखा जाये। लेकिन कलात्मकता का घोर अभाव और प्रतिक्रियावाद का अतिरेक कहानी
को लगभग अराजक बनाते हुये भटका–सा देता है। प्रतिक्रियावादी
स्त्रीवाद का चश्मा हो सकता है मेरे इस पाठ में पुरुषवाद के बीज भी खोज ले, लेकिन मर्दवाद का प्रतिरोध करते हुये उस पर एक व्यंग्य करने और मर्दवादी
मानसिकता के जवाब में एक स्त्री को उसी सामंती मर्द के बाने में पेश कर देने में
भी एक बड़ा अंतर है। इसमें संदेह नहीं कि प्रतिक्रियावादी
चेतना किसी भी बदलाव का आरंभिक प्रस्थान बिन्दु होती है। लेकिन इसे साहित्य और
इतिहास में दर्ज करते हुये एक खास तरह के भाषाई सौन्दर्य और कलात्मकता का ध्यान तो
रखा ही जाना चाहिए। अराजकता भाषा की हो या व्यवहार की कभी किसी तर्कसम्मत और स्वीकार्य
अंत तक नहीं ले जा सकती। महुआ मदन को घर से निकालने के बाद खुद एक पुरुष वेश्या के
पास जाती है और वहाँ से लौटते हुये सोचती है – ‘इतना तो कमाती है कि एक रात खुद पर पाँच-सात हज़ार खर्च कर सके। उसने गाड़ी
मोड दी। खुशी और संतुष्टि के नशे से वह बोझल और उन्मत्त थी- ‘देखा मदन डीयर तुमने! प लिया मैंने, जो अबतक मैं खोज रही थी।‘ ऐसा लगता है जैसे महुआ
सिर्फ और सिर्फ दौहिक संतुष्टि के अनुसंधान में थी। लेकिन नहीं, उसे तो खुद भी नहीं पता था वह क्या सोचती है। तभी तो इसके ठीक बाद घर
लौटते हुये जब मदन पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ उस तक आता है तो वह उस पर मुक्कियाँ
बरसाती हुई कहती है- ‘आ नहीं सकते थे?
मैसेज नहीं कर सकते थे?’ महुआ के इस व्यवहार में भी निश्चित
तौर पर प्रेम के वही बीज छुपे हैं जिसका वह ऊपर से प्रतिरोध करती दिखती है। इन
कहानियों के संदर्भ में हल्की भाषा, कलात्मक सधाव की कमी या प्रतिक्रियावादी
अतिरेक की आलोचना की जा सकती है, की भी जानी चाहिए, लेकिन ये कहानियाँ जिस संत्रास और उससे उत्पन्न विडम्बना की बात करती हैं, उससे भी मुह नहीं फेरा जा सकता है।
‘गोरिल्ला
प्यार’ और ‘महुआ मदन रस टपके’ पर चर्चा करते हुये जिन कमियों की बात अभी हमने की है, वंदना राग की ‘छाया युद्ध’
उसके उलट अपनी कलात्मक सूझबूझ और पात्रों की मानसिक परिस्थितियों की सूक्ष्म पड़ताल
के कारण कहानी में वर्णित संत्रास को एक अलग धरातल पर ले जाकर एक यादगार रचना के
रूप में हमारे सामने उपस्थित होती है। शायना का पति अपनी मां के देहांत के बाद
मातृ मोह से उत्पन्न उच्चतम मातृग्रंथि का शिकार है। मां के प्रति गहरे लगाव और
उनकी अनुपस्थिति दोनों मिल कर उसके भीतर भावनाओं का एक ऐसा ज्वार रचते हैं कि वह
पत्नी शायना में भी अपनी माँ की प्रतिकृति ही खोजना चाहता है। लाख कोशिशों के
बावजूद शायना उसे अपने दांपत्य में वापस नहीं खींच पाती। इन्हीं परिस्थितियों के
बीच शायना और सिद्धार्थ के मनोविज्ञान की जटिलताएं और उनका हर पल बदलता व्यवहार ही
‘छाया युद्ध’ में एक खूबसूरत कहानी की
शक्ल में सामने आता है। कहानी के अंत में शायना जिस तरह रोते हुये सिद्धार्थ को
अपनी गोद से विलग कर बाथरूम में जा कर खुद को एक परफेक्ट बार गर्ल के रूप में सुसज्जित
कर स्वयं को आत्मसंतुष्टि से देखती है, वह कहानी को एक खुले
अंत पर ला छोडता है – “उसने अपनी हथेली को होठों के पास
ले जाकर एक फ्लाइंग किस आईने में सफल-सी दिखती उस बार बाला पर उछाल दिया और
खिलखिलाकर हंस पड़ी ज़ोर-ज़ोर से। खिलंदड़ी, सिरफिरी, बार-बाला! उसकी हंसी खनकदार थी। उसके अणु हवा में तीव्रता से फैलने लगे।
उसने पाया, बेडरूम से आते हिचकियों के स्वर उसकी खिलखिलाहट
में जाने कहाँ गुम होने लगे थे- पूरे के पूरे! पूरे के पूरे!”
लेखिका की
कलात्मक समझदारी कहानी को जिस मोड पर छोड़ती है वहाँ से किसी निश्चित अंत का पता
नहीं मिलता। बल्कि इस अंत का मायने ढूँढते हुये पाठक के मन में यह कहानी नए सिरे से
शुरू हो जाती है। शायना के बार गर्ल के वेष में आने के बाद उसकी खिलखिलाहट में
सिद्धार्थ की हिचकियों के गुम होने के प्रतीक का क्या अर्थ है? क्या शायना का यह नया रूप सिद्धार्थ को रिझाकर उसे अपने
दांपत्य में वापस लाने के लिए किया गया एक और जतन है? या फिर
वह अब सिद्धार्थ को उसके हाल पर छोडकर उससे इतर भी कोई विकल्प तलाशने के लिए मानसिक
रूप से तैयार हो गई है? इस अंत का पहला अर्थ जहां हर कीमत पर अपने रिश्ते की पुनर्बहाली की
बात करता है तो वहीं दूसरा अर्थ परिवार संस्था के अतिक्रमण की तरफ इशारा करता है।
ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि यदि वैवाहिक परिस्थिति और
सामाजिक तथा वर्गीय पृष्ठभूमि का अंतर नहीं होता तो क्या शायना के कदम भी उधर ही बढ़ने
को आतुर हैं जिधर अर्पिता और महुआ के निकले थे? मतलब यह कि
अब हमारा समाज एक ऐसे मुहाने पर खड़ा है जहां स्त्री मन की कामनाओं और अभिलाषाओं को
दबा कर नहीं रखा जा सकता। बंद समाज की सामंती यौन-नैतिकता के खिलाफ समाज, वर्ग और संस्कृति की सीमाओं से इतर एक खास तरह का आक्रोश पनप और सुलग रहा
है। जाहिर है नैतिकता का डंडा चला कर या किसी तरह का फतवा जारी कर इन बदली हुई
परिस्थितियों से नहीं निबटा जा सकता। जरूरत है, थम कर इन
अनकही दास्तानों पर गौर करते हुये नैतिकता के नए मानदंडों पर विचार-विमर्श करने की।
इसके लिए यह जरूरी है कि इन कथा-कहानियों को मुख्य धारा के साहित्य का हिस्सा
मानने से इंकार नहीं किया जाये। हाँ, रचनाकारों से भी यह अपेक्षा
जरूर की जानी चाहिए कि भाषा और कला के सौंदर्य को बरकरार रखते हुये इन प्रश्नों से
दो-चार हों ताकि ‘अच्छे’ और ‘सस्ते’ साहित्य को भी अलग से रेखांकित किया जा सके।
स्त्री को हमेशा
से ‘वस्तु’ या ‘चीज़’
मानने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने कभी यह सोचने
की जरूरत ही नहीं समझी की स्त्री-देह में भी इच्छा और कामना की रेशमी शिरायें होती
हैं जो किसी के प्रेम में तनना-सिकुड़ना चाहती हैं. स्त्री तन-मन को धर्म और नैतिकता
की कमरपेटियों में बांध कर रखने वाला पुरुष समाज उसे आनंद और भोग के साधन से ज्यादा
कुछ और नहीं मानता और विडंबना यह कि सदियों से अपने पति का सेज सजाते रहने वाली स्त्री
खुद को भी उसी दृष्टि से देखने लगती है. वह सोचती है उसका शरीर ही उसके पति को उससे
बांधे रखेगा, लेकिन पुरुष तो जैसे एक जगह ठहर कर रहना ही नहीं
जानता. समर्पण और निष्ठा के तमाम वायदे जैसे अपने घर की चाहरदीवारी से बाहर निकलते
ही दम तोड़ देते हैं. स्त्री अपने पति को पुन: अपने तक खींच लाने के लिये अपने शरीर
को फिर-फिर तैयार करती है और बिस्तर पर अपनी पत्नी को नये आवेग से भोगता पति फिर-फिर
नये वायदे करता है. वायदे करने और तोड़ने के इस अनवरत खेल में हमेशा से पिसती आ रही
स्त्री अब इससे मुक्ति चाहती है. नया ज्ञानोदय में प्रकाशित महुआ माजी की कहानी ‘चंद्रबिंदु’ एक ऐसी ही स्त्री की कहानी है, जो अपने पति की बेवफाई और उपेक्षा से त्रस्त हो कर अपने तथाकथित सब्र संस्कार और
शर्मो-हया के आवरण को फेंक एक आर्ट कॉलेज में न्यूड मॉडल बन जाती है. ऐसा करते हुये
उसके भीतर कामनाओं का एक अदृश्य संसार भी है और अपने पति की उपेक्षा का दंश भी…”
कई-कई युवा नजरें… ऐसी-वैसी नजरें नहीं कलाकारों की संवेदनशील पारखी नजरें मुग्धता
से देखेंगी उसे.. उसकी देह को… उसकी सुंदरता को…फिर पिकासो के ब्लू पीरियड कि किसी
पेंटिंग की तरह या मोनालिसा की तरह कैद हो जायेगी वह, उसकी भेद भरी मुस्कान और उसकी सुंदर देह वक्त के कैनवास में…सदियों
तक सैकड़ों मुग्धता भरी आंखें निहारेंगी उसे… एक उसका पति न निहारे तो क्या हुआ.”
अपने पति की उपेक्षा से बाहर निकलने का रास्ता खोजती कृति किसी दिन एक काले होठ वाले
कलाकार के लिये कामनाओं से भर जाती है. उसे लगता है उसकी देह और सुंदरता का वह पारखी
आखिर उसे मिल ही गया है जो उसकी कामनाओं को तृप्त कर देगा. लेकिन एक बार फिर वह खुद
को यहां छला हुआ महसूस करती है कारण कि वह व्यक्ति जिसेव वह अपने आकर्षण की जद में
समझ रही थी एक प्रोफेशनल कलाकार निकलता है, जो उसके अतृप्त सौन्दर्य को अपनी कलाकृति में पकड़ने की कोशिश भर कर रहा था, उससे ज्यादा कुछ नहीं. अतृप्ति के सौंदर्य को कैद करने चला कलाकार
अपनी प्रेरणा को भला तृप्त कैसे कर सकता है. पति द्वारा बार-बार छली गई कृति इस अप्रत्याशित
के घटने पर जैसे एक हीनता भरी बेचैनी से भर उठती है. ऑब्जेक्ट बनने की कीमत पर उसे
अमर नहीं होना. हमेशा से ‘सेक्स आब्जेक्ट’ की तरह इस्तेमाल होती एक स्त्री का ‘आर्ट आब्जेक्ट’ बनने से इन्कार दर असल मुक्ति और आत्मबोध की तरफ
उठा हुआ पहला कदम है.
सच है कि भूमंडलीकरण
के बाद सामने आई लेखिकाओं की कहानियां यौन-व्यवहारों में पुरुषों के आधिपत्य को उल्लेखनीय
रूप से तोड़ती हैं. लेकिन इस क्रम में इस बात का जरूर ध्यान रखा जाना चाहिये कि स्त्रियों
के लिए देह की मुक्ति का मतलब पुरुषो की तरह यौन व्यवहार करना नहीं बल्कि अपनी इच्छा
से संचालित होते हुये यौन जीवन में सुख एवं आनंद के समान अधिकार को प्राप्त करना है, और इसके लिये बहुत जरूरी है कि स्त्रियां अपने भीतर कहीं गहरे
पैठी पुरुष-दृष्टि को धो-पोंछ कर साफ कर दें. यही स्त्री यौनिकता का नया प्रस्थान विंदु
और स्त्री-मन के सपनों के वसंत की तरफ एक सार्थक कदम होगा।
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