कोई रुखसत नहीं होता बिना लौटने का वादा किये- पंखुरी सिन्हा द्वारा विश्व कविता के कुछ अनुवाद

 

                                                        (तस्वीर- भरत तिवारी) 



एक चनके हुए शीशे सा 

उस पूरे दिन, जो एक लम्बा दिन था 
मैं रहा दौड़ता, इधर-उधर, हर कहीं 
एक चनके हुए शीशे सा 
आगे से पीछे और पीछे से आगे आता हुआ! 
अब मैं देता हूँ दस्तक उस रस्सी की ओर 
जाती अपनी राह पर 
भीतर इस गहरी खाई के! 
आओ रौशनी और बताओ 
वह नाम! 


–मूल कविता–वुल्फगैंग हर्मन—जर्मन भाषा के आस्ट्रियाई कवि, एक बेहद चर्चित उपन्यासकार भी हैं, जिनके ‘हेर फौस्तिनी’ सीरीज़ के अनेकों उपन्यास बेहद लोकप्रिय रहें हैं, और इनमें से जिन कुछ का अंग्रेज़ी अनुवाद हो पाया है, उनकी समीक्षा न्यू यॉर्क टाइम्स में भी आई है! 

उनकी कृति, ‘ऐक्चुअली आई सेड नथिंग’, भी लगातार चर्चा में है! और उनके साक्षात्कार यूरोप से लेकर अमेरिका तक के मीडिया में देखे, पढ़े जा सकते हैं! हाल ही में, उन्होनें कई कविता महोत्सवों में शिरकत की है!

यह कविता अन्तर्मन की उन दरारों का दर्द कहती है, जो आधुनिक जीवन की भाग दौड़ का हिस्सा बन गया है! 
यह टूटने बिखरने का सिलसिला भीतर ही नहीं, बाहर भी है, समाज भी लगातार इन्हीं तरहों की चुनौतियों से गुज़रता दिखाई देता है, इसलिए यह कविता जो रौशनी को संबोधित होकर, एक नाम की तलाश में खत्म होती है, और यहाँ नाम प्रेम अथवा दर्शन अथवा अन्य किसी सिद्धांत का पर्याय हो सकता है, बेहद सम सामयिक है! और इसलिये देश और भाषा की सरहद के पार, इसे  अनुवाद के लिए मैंने चुना!





अस्तित्व 


खुशी और डर 
बंधे हैं गहरे आलिंगन में 
आँखो के भीतर 
क्या तुमने महसूसा है 
कितनी साफ़ हो गई है हवा 
दो दिनोंसे 
युरेनियम के उस खदान के पास 
क्या तुम महसूस कर रहे हो 
अपने बिस्तर के भीतर 
अपने हाथों को आहिस्ता गर्माते हुए ?

औजारों का बक्सा पकड़े 
कुहासा हमें डराने नहीं आया 
बल्कि रेखांकित कर उभारने हमारा अस्तित्व 
मेरे कानों के नीचे अफ्रीका 
जो कि झुका है दरअसल तुम्हारी छाती पर, तेज़ कर रहा है आवाज़ अपनी

मूल कविता—दानीजेला त्राज्कोविक, चर्चित सर्बियन कवयित्री हैं, जिनकी कविताओँ में स्त्री जीवन के कई पहलू गहरे मनो वैज्ञानिक रूप में चित्रित होते हैं! इनकी कविताओं की किताबें, बाल्कन भू भाग के लोकप्रिय कविता महोत्सवों में लोकार्पित हुई हैं! 

प्रस्तुत कविता, एक खास यूरोपीय अस्मिता, एक खास भौगोलिक नजरिये से जीवन के कुछ सार्वभौमिक सत्यों की बात करती है, इसलिए इसे अनुवाद के लिए चुना है!





डेविन महल 


रात की बस से उतरना 
वह स्लाविक तटबंध 
तुम्हारे बिना 
खामोश मोरावा 
जमी हुई, बर्फ़ बनी डेन्युब नदी 
खंडहर 
अन्धेरा 
प्रार्थना 
बिना जाने कि किसे सम्बोधित है 
प्रार्थना 
बिना शब्दों की प्रार्थना 
बिना होंठ हिलाए 
बिना इश्वर के
स्नोमैन, बर्फ के एक पुतले को गढ़ना 
मेरी बगल में 
डेन्युब चूमती है मोरावा को
चुप्पी बहती है बर्फ़ के ढ़ेर पर 
प्रार्थना कर रहा हूँ 
अब स्नोमैन से 
सजा रहा हूँ 
एक क्रिसमस ट्री 
आलोकित करता हुआ उसे 
उसके नीचे पढ़ता हुआ एक कविता 
क्रिसमस तुम्हारे साथ
बर्फ़ पर लेटे हुए 
आँखे बंद किये 
प्रार्थना, बिना सोचे 
बिन ख्याल
स्मृतियों के बिना 
बिना मंत्र 
केवल उपासना 
क्षमा दान से दूर 
केवल पूजा 
मुक्ति दिये बिना तुम्हें 
तुम्हारी गलतियों से भी 
बस एक छलांग 
चुप्पी की परतों में 
बहाव बर्फ़ की चादर तले 
तुम्हारी किताब 
उस स्लाविक तटबंध पर
 भग्नावशेष 
धुंध 
सुबह की बस में चढ़ना 
हिमपात चारो ओर………………

मिरचा दान दुता, चर्चित रोमानियाई कवि हैं, जो दर असल चेक भाषा में लिखते हैं! इनकी तीन कविता पुस्तकें प्रकाशित हैं, और इनका अनुवाद का काम विराट है! मिरचा चेक एवं अन्य कवियों के अनुवाद रोमानियाई भाषा में करते हैं और अभी अभी चेक रिपब्लिक में पुरस्कृत भी हुए हैं!

उनकी यह कविता ब्रेक अप की कविता है, लेकिन उसमें  इतना अधिक रुमान है, कि प्रेम कविता जान पड़ती है! प्रेमिका की अनुपस्थिति दो शब्दों में कह दी गई है लेकिन वह समूचे वातावरण के चित्रण में गूंजती है! यहाँ भाव का सर्वग्राह्य सौंदर्य है और इसलिये मैंने इसे अनुवाद के लिए चुना है!




ज़रूरत नहीं 

एक घर बना लिया है मैंने 
बिना दीवारों का 
मुझे अब खम्भों की कोई ज़रूरत नहीं 

एक नीला रुमाल है, मेरे इस घर की छत 
किसी सजावटी, दिखावटी सीमारेखा सा
बड़े घरों में नकली छत की सज्जा सा
उसे सहारे की लकड़ियों की ज़रूरत क्या?
किसे है ज़रूरत उस ऊपरी ढांचे की?

किसी को ज्ञात नहीं है बाहरी दरवाज़ा 
कोई रुखसत नहीं होता बिना लौटने का वादा किये!

 ओस्मान बोज़कुर्त, चर्चित तुर्की कवि हैं, जिनकी तुर्की के साहित्यिक जीवन में खासी दखल है! अनेकों पत्र पत्रिकाओं से जुड़े हैं, अनेकों कविता महोत्सवों का आयोजन करते हैं! 

प्रस्तुत कविता आडम्बरों से ऊपर उठकर, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात करती है. यहाँ प्रकृति के साथ एक होने का भाव बड़ी सहजता से अपनीओर खींचता है ! नायपॉल और पुटीन, दोनों इस दुनिया का सच हैं, घरों को तोड़ने की राजनीति और जोड़ने के तमाम प्रयासों के बीच, यह कविता वैश्विक स्तर पर बहुत सुकून देती है और इसीलिए मैंने इसे चुना है.



घोंसला 

हमने देखा तुम्हें आते हुए 
अनिमंत्रित! 
अतिथि हमारे घर में 
एक ऐसे समय जब 
कहा गया था हमसे 
हमारे पूरे परिवार से 
रहने के लिए अकेले पन में 
अलग थलग! 

अपने घिरे हुए बगीचे में 
जब मैं काट रहा था घास 
तुमने बनाया एक खूबसूरत घोंसला 
सड़ी गली लकड़ी से 

हमने देखा तुम्हारा आना 
और जाना
भोजन कराते अपने 
नन्हें मुन्नों को 
तोड़ते फोड़ते हमारी छत ! 

हमने चिंता भी की कि 
कैसे रखेंगे, इस छत को 
हम, अपने सर के ऊपर 
खिलाते हुए अपने नन्हें मुन्नों को ! 

तुमने जगाया हमें हर सुबह 
सूर्योदय के अपने संगीत से 
इससे पहले कि बज उठता 
वह पुराना, बेकार हुआ अलार्म 
हमने सुना तुम्हें सीखते हुए 
हवा से जन्में असामाजिक 
बुलबुलों के बारे में! 

इन्तज़ार किया हमने तुम्हारे 
चले जाने का 

और अब तुम्हारा घर 
घोंसला तुम्हारा उठाकर 
जमा किया जाएगा
बगीचे में जमा हरे भरे 
कचरे के ढेर पर से! 
कारमारथेनशायर नामक 
इस शहर की काउंटी काउंसिल
और मैं चढ़ेगे मेरी छत पर 
लिये ढ़ेर सारे मरम्मत के 
औजार! 

मूल कविता–डॉमिनिक विलियम्स, वेल्स के चर्चित कवि हैं! इनकी तीन कविता पुस्तकें प्रकाशित हैं और तीसरी में आलोचकीय निबंध भी शामिल हैं! आप समूचे यूरोप में अनेकों कविता महोत्सवों के आयोजन से जुड़े हैं और लोकप्रिय एंकर भी हैं! आपकी कविताओं में वेल्स के जीवन के साथ साथ, स्वीडन की यात्राओं और वहां की लोक कथाओं की गहरी छाप है! 

प्रस्तुत कविता असल घटना से प्रेरित है और जिस तरह कवि के प्रकृति प्रेम को  उजागर करती है वह काबिले तारीफ़ है! दरअसल, अनेकों संवेदनाओं को जगाती यह कविता, हमसे यह माँग करती है कि हम जीव जंतुओं को संरक्षण देँ! और व्यवस्था से भी मुखातिब होती है, जिसे मदद को तत्पर रहना चाहिए!

पर्यावरण संरक्षण का शोर मचाते  इस युग में, यह एक बहुत ज़रूरी कविता है और इसलिये इसे चुना!





एलेर्केर गार्डेनस 


छह तक की गिनती गिनना सीखते हुए, आदत वश 
क्योंकि एल्लेर्केर के बगीचों में खड़े हुए
आप देखते, हर रात, आग का वह पर्दा
लंदन की छत पर खिंचते हुए! 
आप सुनने का इंतज़ार कर रहे होते
उस तूफान के बीच पल भर की खामोशी को
जो होती है एक, अनफटे बम की अनुपस्थिति में!

क्या कोई हो सकता है इतना डूबा हुआ 
कि उसे याद न रहे 
कीट पतंगो का काटना 
एक टूटा हुआ प्यार 
या फिर केवल कोई बिखरी मुलाकात ! 
वह भीतरी आस ज़िंदा रहने की 
वह जीजिविषा, जिसने तय किया था 
आप कुछ दूर बने रहेंगे घर से 
जब तक आकर चले न जायें पिता! 
साधरण सी एक बहादुरी 
नायिका तत्व से भरी!

केवल घरों को जोड़ती 
छतों-दीवारों के उड़े हुए 
परखच्चों के ज्यामिति चित्रों के आसपास 
तुम्हें सुरक्षित देखना चाहते थे सब 
कम से कम, कुछ तो 
इतनी दिलेरी के बीच! 
जब तुम टटोल रही होती थी विस्फोट 
और अन्धेरे में 
सुरक्षा के चिन्ह! 
चाहे, जो भी हो आगे
तुम्हारा इंतज़ार करता खतरा ! 
किसी छठी इन्द्रीय की उँगली तले 
की चुप्पी में लिपटा!


मूल कविता—टॉम एडवर्ड फिलिप्स, चर्चित ब्रिटिश कवि हैं, जो सोफिया, बुल्गारिया स्थित एक विश्व विद्यालय में क्रिएटिव राइटिंग के प्राध्यापक हैं! इनकी अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हैं, और दर्जनों आलोचकीय लेख प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में संकलित हैं! 

प्रस्तुत कविता, विश्व युद्ध के दौरान, कवि की माँ के अनुभवों पर आधारित है, जो लंदन के एक बॉम्ब स्क्वॉड में काम किया करती थीं और उनका काम था, हर रात की बमबारी में अनफटे बमो को तलाशना! इस बेहद खतरनाक लम्हे को चित्रित करती यह कविता ऐतिहासिक है, जिसके प्रतीक हर युद्ध जैसी स्थिति में दूर तक जाते हैं! और इसलिये मैंने इसे चुना है!



अनुवाद

पंखुरी सिन्हा
nilirag18@gmail.com