– रेखा सेठी
कविता को अपने जीवन में बहुत करीब महसूस करते हुए भी मैंने कभी कवितायें नहीं लिखीं। संभवतः ये अनुवाद उस खाली कोने को भरने की कोशिश भर हैं। अपने इस अकिंचन प्रयास में कितनी सफलता मिली
इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे लेकिन अलग-अलग भाषाओं की कविताओं के अनुवाद का आनंद शब्दातीत है। किसी भी महानगर में रहते हुए आप एक से अधिक भाषाएँ सीख ही जाते हैं। पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाज़ार में बड़े होते हुए हिन्दुस्तानी की खुशबू तो मेरी भाषा में रची-बसी ही है, पंजाबी मातृभाषा है और अंग्रेज़ी स्कूल और परिवेश से चली आई है। इन भाषाओं में सुविधा के साथ-साथ प्रवासिनी महाकुड जी के साथ ओडिया समझने का भी अवसर मिला। जैसे संगीत को समझने के लिए भाषा अवरोध उपस्थित नहीं करती, उसी तरह भाषाओं की हद्दबंदियाँ होते हुए भी भाव की तरलता एक साझेदारी बना ही देती है।कविता
के मूल भाव को अपने भीतर जज़्ब कर, उसकी पुन:रचना की कोशिश में इन कविताओं का अनुवाद
अपनी रचनात्मक तुष्टि का प्रयास बन गया। कविता के अनुवाद का यह अनुभव मेरे लिए अनुवाद की प्रक्रिया को समझने का सृजनात्मक सोपान तो है ही, सांस्कृतिक साझेदारी का भी अनूठा संयोग है।
तारा तारा
कुछ लड़कियाँ और स्त्रियाँ कविता लिखती हैं
बाकी नहीं लिखतीं कविता क्योंकि
कविता उन्हें लिखती है
लाल बस में, भीड़ की आँखें उन्हें घूरती हैं
मेट्रो में भी सभी उन्हें देखते
आसमान में तारों की है आहट
आसमान से झुककर
कविता लिखने वाली लड़कियों-स्त्रियों को
एक बार देखने की कोशिश में
गिरते हैं तारे
किसी की छत पर, किसी की छाती पर
किसी की आकांक्षा में, किसी की आँखों में
गिरते हुए तारों को देखकर
क्या वे कुछ माँगती हैं?
कभी कभार माँगने से पहले
घास पर गिर जाने वाले तारे
मेरी आँखों के आँसुओं में अटक जाते हैं
मैंने देखा है
चाँद में बैठे लोक-कथा के खरगोश को
मुझे नहीं पता
चाँद से जो मैं कहती हूँ
वह सुनता है या नहीं
लेकिन मुझे लगता है
खरगोश चाँद से निकल आया है
सुनने को मुझे अपना कान हिलाता
फिर चाँद में समा जाता है
राख हो गए तारों के उष्म स्पर्श से
मेरे भीतर एक सत्ता छटपटाती है
और मैं एक बार फिर
आसमान को देखती हूँ.
(मूल कविता उडिया में : तारा तारा — प्रवासिनी महाकुड
हिंदी अनुवाद : रेखा सेठी तथा प्रवासिनी महाकुड)
यशोधरा
सिद्धार्थ!
इस बार निर्वाण की प्राप्ति के लिए
तुम नहीं, यशोधरा जाएगी
तुम्हारे महलों की रंगीन दीवारों के बीच
बहुत उदास है वह
हर रंग बेरंग लगता
उसे और भी उदास करता
इस बार यशोधरा एक खूबसूरत कली
तुम्हारी गोद में रख जाएगी
फिक्र न करो
जहाँ बहुत कुछ प्राप्त हुआ तुम्हें
शायद उस ज्ञान की प्राप्ति भी होगी
मेरे पीछे छोड़े
उदास रास्तों को देखकर
एक और ज्ञान की प्राप्ति
तुमने बोधि वृक्ष के नीचे क्या पाया
मैं नहीं जानती
यशोधरा उस पेड़ तले
तुम्हारे महलों की रंगीनी त्याग
निर्वाण ढूँढेगी
एक कली तुम्हारी गोद में अर्पण कर
तुम्हें नए ज्ञान की दिशा की ओर छोड़
निर्वाण ढूँढने जाएगी
यशोधरा!
(मूल कविता : पंजाबी में यशोधरा—वनिता
हिंदी अनुवाद : रेखा सेठी)
एक सोये हुए गाँव की दास्तान
एक सोये हुए गाँव ने तमंचे उगाये
अचानक एक सोये हुए गाँव पर
कई रंग के झंडों ने चढ़ाई कर दी थी
उस साल खेतों में तमंचे उगे
किसानों ने देखे सपने अविनाशी उपग्रह शहर के
पटरियाँ सोने की और झंकार स्टील की
आलीशान एक चेतावनी
गहरी नींद में डूबा रहा
एक सोया हुआ गाँव
नहीं पकड़ पाया संदिग्ध बातों के द्विअर्थी मायने
हाय एक सोया हुआ गाँव
चंचल वायदों की लोरियों के बहकावे में
छला गया लच्छेदार बातों के पेचोखम में
सीधे-सादे गाँव वालों ने तमंचे उगाये उस वर्ष
बंदूकों के घोड़े दबाना सीखा
जबकि हलों पर जमती रही धूल
एक सोये हुए गाँव ने
मृत्यु देखी उस वर्ष
कर उठे चीत्कार, “अकेला छोड़ दो हमें”
जो सच को झूठ की तरह बरतते हैं
उनके झाँसे में आ गए
सपनों के बदले पाए दु:स्वप्न
शैतानी चंगुल की गिरफ़्त में छटपटाये
एक सोया हुआ गाँव
डूब गया लहू और आँसुओं में
तीन फसलें उगाई — बंदूकों, गोलियाँ और बम
चालाक अजनबियों की शहद भरी बातों के
नशे में डूबे शब्दों के जाल में उलझे
एक ही रात में निवासी से शरणार्थी हुए
ताक़त का खेल चलता रहा
डर पीछा करता रहा उनका
बम विस्फोट का धमाका और मौत की ख़ामोशी
संज्ञाहीन संदेशवाहक लड़के-लड़कियाँ, बंधक मनुष्य
मूर्छित थी हिम्मतताई उस मैदानी गाँव में
ब्रेश्ट और गोर्की की माएँ फँस गयी थीं
कठपुतली नचाने वालों के जाल में
एक रात अचानक गायब हो गया
यह सोया हुआ गाँव
अपने लोगों, मिटटी और खंदकों के साथ
उड़न-तश्तरी सा
यह सोया हुआ गाँव
फिर सो गया गहरी नींद
सुख की साँस लिए
जागना उनके लिए दुखद और भयावह रहा
(मूल कविता : A Tale of a Sleeping Village – संजुक्ता दासगुप्ता
अनुवाद : रेखा सेठी
कोरोना के समय में गंगा से बातें (कुछ अंश)
ओ गंगा
आत्मा मेरी, गहरे बसी है
तुम्हारे पानियों में
मेरी देह को उतरना होगा
हिमालय की ऊंचाइयों से
नदी में गहरे
आत्मा को गले लगाने
*
नदी के कोलाहल में
घुल रही ब्रह्मांड की ध्वनि
मन के भीतर से उठती है
पिशाची मौन की प्रतिध्वनि
आत्म स्वीकृति जैसी
ओ गंगा
मैं तैयार हूँ
फिर से खेलने को अपना ही जीवन
*
तुम्हें पता है क्या
ओ गंगा
मुझे हमेशा से पता था
जन्म से भी पहले
एक दिन मैं तुम में उतरूँगी
अपने दुर्वह
नामों और पट्टियों के साथ
फार्मूलों, सिद्धांतों और परिभाषाओं के साथ
और फिर
ओ गंगा
चाँदनी में भीगी
तुम्हारे पार उतरूंगी
अपने से मुक्त
जीवन को फिर से जीने
(मूल कविता : Ganga Dialogues in Corona Times – सुकृता)
रेखा सेठी दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ महिला कॉलेज में प्राध्यापक और ट्रांसलेशन एंड ट्रांसलेशन स्टडीज केंद्र की समन्वयक हैं। उन्होंने पांच किताबें लिखी हैं, आठ का संपादन किया है और एक कविता संग्रह का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया है।