– रमा यादव
रंगकर्म की दुनिया का एक बड़ा नाम या यूँ कहूँ की विराट नाम उषा गांगुली जी का २३ अप्रैल २०२० को
देहांत हो गया. रंगकर्म उनके जीवन का पर्याय था. कोरोना महामारी के आपातकाल के बाद थियेटर फिर से
शुरू हो गया बिना रंगकर्म के इस दुनिया वालों के लिए सब कुछ सून – सून है. शुरुआत ‘ओपन एयर थियेटर‘ से रही और कमाल की रही. १६-१८ अक्टूबर २०२० को राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय में स्वर्गीय उषा गांगुली जी द्वारा निर्देशित नाटक ‘बांयेन” का मंचन हुआ इस नाटक को मैं पहले भी देख चुकी थी नाटक का निर्देशन इतना विशेष था कि वह बार – बार अपनी और खींचता है. जब एक नाटक इतने लम्बे अरसे तक ज़हन में बना रहे तब उस नाटक का महत्व समझ आता है. ‘बांयेन‘ एक ऐसा ही नाटक है जो झकझोर कर रख देता है.
महाश्वेता देवी की कहानी को उषा गांगुली ने इस तरह से निर्देशित किया है कि वह नाटक और रंगमंच की दुनिया का एक क्लासिक नाटक बन गया है. नाटक को देखते हुए मैं सोच रही थी इस तरह के निर्देशक और अभिनेता यानी उषा जी का जाना रंगमंच की दुनिया की कितनी बड़ी क्षति है. एक कहानी जो कि निःसंदेह कालजयी कहानी है उस कहानी को उतनी ही कालजयिता के साथ निर्देशित एक ऐसा ही निर्देशक कर सकता है जिसने सालो साल खुद को कठिन पाठशाला में तपाया हो. पाठशाला रंगकर्म की और निःसंदेह उषा गांगुली वो निर्देशक और अभिनेता थीं जिन्होंने स्वयं को स्वयं से मांझा और संस्कार दिया था.
उषा गांगुली जी से मेरी पहली मुलाक़ात मुंबई में पृथ्वी थियेटर के फेस्टिवल में सन २००२ में हुई थी. जो नाट्य समूह उस उत्सव में अपने नाटक खेलने गए थे वो जिस जगह ठहरे थे उस जगह की ‘लिफ्ट’ में जब मैं थी तो
मैंने खुद को एक आभामंडल से घिरे पाया. वो आभा मंडल इतना भास्वर था कि मेरा मस्तक और हाथ
स्वतः ही नमस्कार कि मुद्रा में आ गए. बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व उन्हें देखते ही मैं अभिभूत हो
गयी. मुझे नहीं पता था यह कौन है शाम को पृथ्वी में हम एक नाटक देख रहे थे –‘रुदाली ‘ जिसे उषा गांगुली जी ने निर्देशित किया था और नाटक देखते हुए मैंने रुदाली कीभूमिका में जिस दमदार अभिनेत्री को देखा वो ही मुझे दिन में ‘लिफ्ट’ में मिलीं थीं और तब मुझे समझ आया कि यह आज के समय की महान
निर्देशक और अभिनेत्री उषा गांगुली हैं. उस वख्त जब बीस या इक्कीस की आयु होती है जब आप ऐसे भास्वर व्यक्तित्व को देख लें और आप भी अभिनय के क्षेत्र में हों तो एक चाह तो होती है कि इनका कोई एक अंश मिल जाए. उषा गांगुली की तब जो छाप पड़ी वह आज भी मुझमें उसी रूप में जीवित है हो न हो उनके अभिनय को जिन्होंने भी देखा है उन पर उनका प्रभाव न पड़ा हो ऐसा हो नहीं सकता.
‘बांयेंन’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के खुले मंच पर हुआ . देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि इस आपातकाल में दर्शक आए थे और जितनी भी कम या ज्यादा कुर्सियां थीं सभी भरी थीं नाटक कमाल का था. एक सड़ी- गली रीति कुरीति जिसमें किसी भी औरत को डायन, जैसे कुशब्द से संबोधित किया जाता है. नाटक की
केन्द्रीय चरित्र डोम जाति की है. डोम जो शमशान में मुर्दे फूँकने का काम करते हैं. पिता की मृत्यु हो जाने पर गाँव वालो के कहने पर वह अपने पुश्तैनी काम को करने को तैयार हो जाती है. मुर्दा बच्चों को मिट्टी में गाड़ना उस डोमनी का काम बन जाता है जिसे वह बड़ी लगन से करती है. मन में स्त्री का ह्रदय तो था पर काम के प्रति समर्पण इतना था कि उस ह्रदय को भी उस डोमनी ने कहीं दफना दिया था यूँ भी
इस काम के लिए उसे अपने मन को एक पुरुष से भी अधिक साहसी और कठोर कर लेना था.
अपने काम के प्रति ईमानदार इस मर्दाना स्वभाव की डोमनी को गाँव का सबसे समझदार मरद ब्याह के लिए प्रस्तावित करता है. डोमनी का हृदय भी धड़क जाता है और विवाह हो जाता है समय बीतता है उसका मरद उसे हाथों पर रखता है और उनके एक बालक भी हो जाता है. माँ की ममता और मुर्दा बच्चों को गाड़ने के बीच के अपने काम में धीरे – धीरे डोमनी की ज़िन्दगी नरक बन जाती है , उसका ममतामयी ह्रदय बच्चों को गाड़ने से भी कतराता है पर वह अपना पुश्तैनी काम बदस्तूर जारी रखती है. एक रात जब आंधी – तूफ़ान आता है तो उसे लगता है कि कहीं श्मशान में गड़े बच्चों की लाशों को सियार नोच – नोच कर न खा जाएं. वो श्मशान में गड़े बच्चों की सियारों से रक्षा के लिए निकल पड़ती है. सियारों ने बच्चों की लाशो को निकाल बाहर फेंका था डोमनी उन बच्चों की लाशों की रक्षा के लिए पुनः उन्हें मिट्टी में गाड़ने लगती है. भयंकर तूफ़ान में वो बेतहाशा अकेले मेहनत करती रहती है. यहाँ रूककर बताना चाहूंगी कि इस दृश्य का निर्देशन उषा जी ने कमाल का किया है. डोमनी का साहस अदभुत रूप से चित्रित हुआ है , इस स्थान पर जिस संगीत और जिस डिज़ाइनिंग का प्रयोग निर्देशक ने किया है वो रौंगटे खड़े कर देता है. इस सबके मध्य एक मुर्दा बच्चे को देख उसका जी पिघल जाता है ..उसकी छाती से दूध उतर आता है और वो उस बच्चे की लाश को वो कलेजे से चिपका लेती है और यहीं वो लोगों का शिकार बन जाती है. लोग उसे डायन ..बांयेंन कह कोसने लगते हैं और अती तब होती है जब उसको चाहने वाला पग – पग पर रक्षित करने वाला पति एक झोंक में आकर उसे बांयेंन कह डालता है. उसके पति का उसे बांयेन संबोधित करना था कि सारे गाँव को उस पर सवार होने
का अवसर मिल जाता है. उसे शमशान में अकेले छोड़ दिया जाता है. डोमनी डॉ वख्त के भोजन को भी तरस जाती है उसका जीवन वीरान बन जाता है. उसके बच्चे को पालने के लिए उसका पति एक कुरूप औरत को घर में बिठा लेता है पर उसे पश्चाताप खाए जाता है. बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता है वो तलाब के उस पार रहने वाली बांयेन के प्रति खींचा चला जाता है और एक दिन पिता का दर्द फूट पड़ता है और वो कह उठता है वो बांयेंन नहीं तेरी माँ है ..अरे वो तो बहुत ममतामयी है ..पर अब कुछ नहीं हो सकता सारा जीवन बीत चुका है. नाटक के अंत में डोमनी अपने प्राण देकर गाँव वालो की रक्षा करती है और तब गाँव वालो को समझ में आता है कि वो बांयेंन नहीं बल्कि एक ममतामयी औरत थी.
नाटक महाश्वेता देवी जी की कहानी पर आधारित है. समाज जो कुरीतियों से घिरा हुआ है जो आज तक नहीं बदला ऐसे समाज का भयानक रूप पूरी तरह से महाश्वेता देवी जी ने उजागर किया है. पर नाटक का निर्देशन उषा गांगुली जी ने जिस तरह से किया है वो अवाक कर देता है. एक आम अल्ल्हड़ लड़की जिसका मासूम ह्रदय था डोम जाति की होने के कारण उसका श्मशान का काम संभालने लगना.अकेले शमशान में रहते हुए खुद के डर-भय को भी खुद से छिपाना, जीवन में एक पुरुष का आना और उसको पूरी तरह से खुद को उस डोमनी का समर्पित कर देना. पुरुष का उसे टूटकर प्रेम करना और विश्वाश करना ..पर समाज के
सड़े-गले विधानों और अंधविश्वासों में पड़कर अपने बच्चे की माँ को ‘बांयेन‘ यानी ‘डायेन‘ घोषित कर देना और अंत में डोमनी का ट्रेन को रोकने के लिए खुद ट्रेन के नीचे आ जाना. इतने सारे और इतने विविध रसों से गुथे कार्यव्यापार को एक साधारण पर कलासिक मंच पर उषा जी ने ऐसे दिखाया है कि रोमांच होता है. मीठी आवाज़ में ब्याह के गीत , ममता की लोरी न जाने क्या – क्या पिरोया है और उसमें छिपा भय.
डोमनी जब बच्चों की लाशों को सियारों से बचाती है शमशान की मिट्टी खोदती है उस समय के जो छवि चित्र उषा जी ने रचे हैं वो शब्दों में बयान नहीं किये जा सकते. डोमनी का विवाह , बच्चे का पैदा होना , डोमनी का तालाब के उस पार बांयेंन के रूप में रहना और बच्चे की ममता में तडपना. निर्देशन इतना दमदार था कि एक ही बार हुक निकलती है और वो भी अतल की गहराइयों से आती है. डोमनी का गाँव की सुरक्षा के लिए चलती रेल को रोकने के लिए खुद कट मरना जो बिम्ब उषा जी ने रचा है वो अदभुत है. इतने बड़े – बड़े नाटक देखे लेकिन सीमित साधनों में इस कहानी के जो रंग उषा जी ने दिए वो एक ऐसा निर्देशक ही दे सकता है जिसने अपने आपको स्वयं से पकाया और तपाया हो जो लोक में धंसा बसा हो.
नाटक में जो छवि चित्र निर्देशिका रचती है वो गजब हैं. उषा जी के इसी नाटक में नहीं सभी नाटकों में अभिनय की ऊँचाईयां मिलती हैं वो जितनी अच्छी अभिनेत्री थीं उतनी ही बेहतरीन निर्देशक भी. उनके स्वर्गवास के बाद हुए इस नाटक ने मन को कसकर बाँध लिया. यही वो नाटक हैं जो आज की पीढी को सही नाटय शिक्षा दे सकते हैं इन नाटकों का सुरक्षित रहना और इनका सालो साल होते जाना बहुत ज़रूरी है. हमारे देशा में रंगमंच की यह विडम्बना है कि एक नाटक कुछ समय तक होता है और फिर वो चाहे कितना भी अच्छा नाटक हो खो जाता है. ऐसा नहीं होना चाहिए. इस मामले में हमें यूरोप से सीखना चाहिए
जहाँ बरसो से एक ही एक नाटक होता चला जा रहा है. नाटक कोई फ़िल्म नहीं कि सुरक्षित रहे और न ही रिकॉर्ड किये हुए नाटकों को देखने में कोई मज़ा आता है. नाटक एक जीवंत विधा है जो मंच पर जब साकार होती है तभी आनंद देती है. उषा जी के इस नाटक को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जीवंत रूप में संजोकर रखे तो अच्छा होगा. नाटक में प्रकाश की भूमिका महत्वपूर्ण रही जो सावती चक्रवर्ती का था , संगीत भी अत्यंत अहम् था जिसे काजल घोष ने दिया था.