संसार का अंतिम प्रेमी
पत्नी की चिता दाघ देने के पश्चात् वह श्मशान में ही रह गया। गया नहीं घर। संसार श्मशान उसके लिए एक ही थे दोनों। सूतक निवारण हेतु स्नान को ढिग बहती नर्मदा तक नहीं गया वह। कपालक्रिया पूर्व मुण्डन के पश्चात् शीश धोने के लिए भरा मटका रखा रहता है उसका जल पीए चिताओं के धूम में पकते बेर खाकर अस्थि की पोटलियों का तकिया कर जीवन किया।
वाचस्पति मिश्र की भामती की भाँति सुशील थी उसकी गृहिणी। पिता तो आए नहीं कभी। माँए, बुआ और बहनें आती थीं ले जाने को घर दूर से रोती टेरती। जीवन तो जीवन का उद्देश्य नहीं। प्रेम, धर्म, विचार, परमार्थए परहित के लिए जीवन है। प्रेम के लिए मरना उसे था प्रेय। किसी को पता न पड़ा वह कब मरा!
क्यों
प्रो आशुतोष दुबे क्या वह अम्बर पाण्डेय था?
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रोज़ा लक्सम्बुर्ग का शव
भौंहों के बीचोंबीच बंदूक़ की गोली से हुए छिद्र से पानी
टपकता हैÌ कवियों के लिए सबसे सुन्दर दृश्य
फिर कोई विदेशी इतना विदेशी नहीं होता कि उसके
विचार से प्रेम न किया जा सके, चार मास पुराने
शव की नदी से होती वे भव्य लड़ाइयाँ इतिहास के
विषय और कविता की निराशा ही नहीं हैं ;पंक्तियाँ
यहाँ की कवि से खो गई हैं
यों कवि ने बताया मछलियों
ने प्रेम किया चार मास रोज़ा लक्सम्बुर्ग के शव से
नदी में उस शव को। एक दिन अचानक मनुष्य आए
निकाल ले गए। स्वतंत्रचेता मनुष्य का माँस छह
हाथ के गड्डे में ठूँसकर क्या मिलेगा मछलियाँ सोचती
रहीं- विचित्र है मनुष्यों की रीतियाँ, अपने सबसे
प्रिय मनुष्यों को बक्सों में क्यों रखते हैं या किताबों में, दोनों
को जबकि नष्ट किया जा सकता है रोज़ा लक्सम्बुर्ग
को खा अपना भाग बनाया जा सकता था- शून्य से भी कम
तापमान में, दिनों तक। रोज़ा लक्सम्बुर्ग नदी में खो
चुकी कितनी सुन्दर देती थी दिखाई। राइफ़ल की नली
माथे पर मारने पर विचार नष्ट नहीं होता हैl
आँखों के बीच गोली चलाकर भी विचार नष्ट नहीं कर सके
होंगे वे शव को नदी में ज़ोर से फेंक देने पर
भी विचार बचा रह गया मगर याद रखो, विचार है
सबसे कोमल संसार में। प्यार में पड़ी धोबन की
हथेलियों से भी कोमल है
;२०१९ को रोज़ा लक्सम्बुर्ग की मृत्यु को सौ वर्ष पूरे हो गए
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समाप्ति से पूर्व
वह मेरे पीछे पड़ गई थी दुख की भाँति
जहाँ मैं जाता. अरण्य, तड़ाग के तट या बाज़ार
आटा -चक्की कोयले की टाल
यहाँ तक कि बी एन गोस्वामी के व्याख्यान में
जब वह कामोद के चित्र में चंपकवन में छाया
ज्योति के अभाव
का वर्णन कर रहे थे तब
वह दिखाई पड़ी वर्णन के अंत में ।कामोद के
पीले रंग के फूलों का गुच्छा खोंसे केशों में
आंग सांग सू की की तरह
और जब भीड़ में मैं ढूँढता भटकता था
भाषा का स्वामी कौन है
या
भाषा ही स्वामिनी है सबकी
;इस बात का इस कविता से
कोई सम्बंध नहीं है।
एक दिन घाम में दिखी सीताफल ख़रीदती-
तुम्हारी अर्थी के पीछे पीछे श्मशान तक मैं
आऊँगी यदि पाँवों ने दिया संग, यदि शोक
से जड़ न हो गए वे।
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प्रेमिका से बातचीत
इच्छा भी कलंक है, ऐसे तुम
अकलंक अर्धचन्द्र नहीं हो, मेरी शाम्भवी
अब भी इच्छाएँ अधनींद में
तुम्हें व्याकुल किए रहती है अब भी
इच्छाएँ
अंकुर होने- होने को है
अब भी तुम्हें इच्छा है
कि मैं तुम्हारे ऊपर कविता लिखूँ
जैसे उस दिन तुम कुंकुम लगाकर आई
और उत्कलप्रदेश की साड़ी पहनकर
फिर बार बार पूछती रही
कैसी दिख रही हूँ मैं
जैसे प्रेम में कोई सत्य देख भी सकता है
जैसे कोई प्रेम में सच कहता है।
सुनकर तुमने लीलाकोप धारकर कहा-
प्रेम
में सब सुंदर दिखता है, सब मधुर लगता है
तो ऐसा करो न
रसगुल्ले की तरह संसार को प्रेम में डुबाकर
निकाल लो और
सेरभर का पूआ बाँधो मेरे लिए बेमोल
अब यह इच्छाएं यदि कलंक है
तो कलंक आभूषण है
इसे पहनो कर्णफूल की तरह।
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वर्षा
मैडम की एक्स्ट्रा क्लास
भीत भीत लगकर पानी भीतर आता है जैसे दूध में
छाँछ की छींट पड़ते ही सब दधि हुआ रातभर में
उसी
तरह तो भीत से आए वरुणदेव के कारण
घर नाव जैसा हो रहा।
बत्ती जलाने का साहस न
करती वह बटन संटी से दबाती है। लुपझँपकर
बलब जलता है। चाय- आलू- रोटी- अचार इतना-
ही चौका है कई रात से कि बिजली जाने से पहले
बना लेने की घाई – ’ उसे त्रास में रखती।
भीगी बनियान
पहनकर रात में सोया कौन, लगता मेरे गले!
अग्नि संग जिसने संग गाँठ कसी है ,वह भी नहीं
वह भी नहीं वह भी नहीं, री वर्षाऋतु।
’घाई. जल्दी।
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छाते की दुकान
बादलों से ज़्यादा काले- काले छातों से अँधेरा था इंदूर में।
साइकल- टिफ़िन- छाता और हाथघड़ी
चार चीजों से दुनिया हो जाती थी पूरी।
छाते तारापथ
के थान को काटकर ताड़ियों में फँसा – फँसा
बनाए जाते। हत्थेवाली पतंगों की भाँति।
नगर नीली–नीली तिरपाल और छातों से पूरा।
उसके नीचे चाय पीने को ठिकाना। छातों में चुम्बन लेना न था सरल ।
पानी भीषण गिर रहा हो
दृष्टि की
ताड़ियों पर निविड़ काला चीर पड़ा हो तब तो भले
तुरतफुरत लिया जा सकता है फ़्रांसीसी चुम्बन ।
वैसे छतों पर भीगती बुशर्टों में चूमने के
सीन सिनेमा से ज़्यादा संसार में थे मगर
छातों में ऐसी छवि मानसून में तीन चार ही दिखतीं।
स्त्रियाँ छातों की दुकान पर घण्टों भावताव करतीं।
पुरुष बरसात में या तो कोमल पड़ जाते
काग़ज़ की तरह या कामुक।
जल्दी से मुँहमाँगे मोल पर छाता ख़रीद के मकान पहुँचने की
फिराक में रहते थे और जिनके जीवन
में स्त्रियाँ नहीं थीं ऐसे कवि छाता लगाए पानी से भरे
डबरे कूदते जाते शहर के आख़ीर में
देखने को बांध के खुले हुए फाटक।
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अक्षयतृतीया
जो चन्दन पाटी पर घिसघिसकर करतल भर लिया तुमने
जो नूतन मटका भरा है, सुवर्ण का गहना पहन लिया, नए शरबत से
सुराही भर दी गले तक
कुछ भी अक्षय नहीं है, सब नाशवान है। सब नाशवान।
जो तुम्हारे तात तुम्हारी ससुराल में
ख़रबूज़ा और सत्तू दे गए, खीरे के फूल जितनी है इनकी उमर।
आज जो मध्याह्न ऐसी उमस में तुमसे लगकर सोया है,
उससे खटपट होते देर कितनी।
शेष रह जाएगा बस आज का उल्लास। गाढ़े कज्जल से रचे नेत्रों से
जो तुमने उसका मुख ख़रबूज़े की फाँक की आड़ से देखा था,
वह ढीठ रह जाएगी ढीठ सी। खण्डसार बुरककर देती रही जो,
फाँक उसे,
उतनी माधुरी अक्षय है। सोत्साह जो सबके सोने के बाद पीछे के
किवाड़ से तुम्हारे लिए लाया है कुन्द की बेनी
उसी शेष पर टिकी रहेगी वसुधा बहुत दिनों तक।
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जो शब्द न सुहाए वह बदल देना
जो शब्द न सुहाए वह बदल देना
काट देना लाइन नई जोड़ देना
छंद की चाल सुधार देना
बिगाड़ देना अगर दिन ख़राब हो और तुम ग़ुस्से में हो
हिचकना मत मेरी कविता एक पब्लिक लाइब्रेरी ही है
यहाँ तुम ला सकते हो अपनी प्रेयसी
बुर्क़ेवालियाँ यहाँ बुर्क़ा उतार स्कर्ट पहन सकती हैं
यहाँ आदमी आदमी से प्रेम कर सकता है
औरत औरत को लिख सकती है प्रेमपत्र
हिचकना मत मेरी कविता को बदल देना इतना
कि लौटकर आए तो मैं पहचान भी न पाऊँ
प्यासे हो तो मटका बना लेना
शराबी हो तो सुराही, बीमार हो तो दवा की बोतल
कभी उपनिषद का गूढ़तम श्लोक मिलेगा
और कभी उचटी – उचटी तुकबंदी, कभी सिनेमा का गीत
कभी नौटंकी का ,चौबोला कभी सूर का पद
आख़िर मैं भी तो हाड़.माँस का पुतला हूँ
मैं भी तो चंवालीस डिग्री सेल्सीयस तापमान की दोपहरी में कई- कई बार
वासना से भरकर निकल पड़ता हूँ गलियों में भटकता
मुझे भी स्त्रियों ने गाली दी
दुश्मन ने मेरी भी बाँह उमेठी है
तुम हिचकना मत जैसा चाहे अर्थ निकालना, बदल देना अर्थ जो अनुकूल न हो
यहाँ कुछ भी शुद्ध नहीं यहाँ सब मिलाजुला है
मेरी कविता टेंटहाउस का तकिया
भाँत –भाँत के मस्तक यहाँ विश्राम पा चुके
अश्रुओं से यह इतनी बार भींजा है कि भय लगता है
कोई दिन गाने न लगे
उन कंठों के गीत जो गाना नहीं जानते थे केवल रोना जानते थे
जिनके लिए रोना ही गाना था
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वर्षा में मित्र गोकुलचन्द्र के घर जाना
गाँव पार करना पड़ता था
इतनी दूर रहता था मित्र
मेरा।
अष्टकुली’ सर्पों की
बांबियों से बाट भरी थी।
फिर भी मैं जाता था विद्या
के लोभ में।
माथा उठाकर
निहारता जाता नवजलदों
के कौतुक। लौट सकूँगा या
बीच में किताब पकड़े बाढ़
में बह जाऊँगा। फेनभरी
दंतुली बँधी रह जाएगी।
अब देखो
अब तक हूँ जीवित।
मरा नहीं मैं।
बचा रहा मैं।
इच्छा से विष खा मरने को।
;अष्टकुली सर्पों के आठ कुल या प्रजातियाँ भारतीय लोक और शास्त्र दोनों ही में मानी गई है।
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शुक्रिया
बचपन में माँ हमेशा शुक्रिया कहना सिखाती थी
कहती थी शुक्रिया सबसे ज़्यादा काम आता है जीवन में
अंकल ने आइसक्रीम दी शुक्रिया कहो
शिक्षक ने शाबाशी दी शुक्रिया कहो
दीदी ने गाल पर चुम्बन दिया शुक्रिया कहो
पापा पेंसिल ख़रीदकर लाए तो शुक्रिया कहो
माँ ने सूप बनाया तो शुक्रिया
सोने से पहले दिन के लिए ईश्वर को शुक्रिया
फिर बड़ा होने के संग शुक्रिया कहने के अवसर घटते गए
ढूँढ रहा हूँ सारे जगत में कोई आदमी जिसे शुक्रिया कह सकूँ
शायद मैंने ईश्वर का आविष्कार शुक्रिया कहने के लिए ही किया है
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संशय का विहग
संशय के विहग, रहना यहीं घर के
छज्जे पर, ओ संशय के विहग
निस्संशय होकर मुझे कौन पाना है सत्य
सत्य यही है कि कोई सत्य नहीं
शास्त्रों की यह ढेरियाँ यह अमृतबिन्दु
वृद्धों का श्रवण सब जानकर पाया. तेरे ही
नीड़ विश्राम है मुझे
ओ संशय के विहग, ब्रह्ममुहूर्त में गाता रहना
विहाग मानस मेरा भटका करता है। यह
तुलसीदास का मानस नहीं
धरा जहाँ का तहाँ सदामन। ओ संशय के विहग,
रहना इन्हीं टूटे खपरैलों में तुम, उड़ना मत
मुझे नहीं चाहिए हंस जो खपा दे जीवन
खीर से जल निथारता. ओ संशय के विहग
मानना मेरी कही।
सभी कविताएं पढ़ीं और आनंदित हुआ । मेरे जैसे साहित्य से बाहर के आदमी को बहुत ठहर-ठहर कर पढ़ना पड़ता है तब कहीं कवि के विचार प्रवाह से थोड़ा सा जुड़ना संभव हो पाता है । बहरहाल , आनंद लिया मैंने और विश्वास है कि आइंदा भी मौके मिलेंगे । शुभकामनाएं ।
आपके लिखे को पढ़ वाक़ई एक सुकूँ की अनुभूति होती है। ढ़ेरों शुभकामनाएं ❤️❤️
आपको पढ़ना माने ध्यान की अवस्था को पा जाना