कविताएँ :: चीनी मजदूर कवि सू लिज्ही
अनुवाद : सविता पाठक
30 सितम्बर 2014 को चीन के मशहूर शेनजेन औद्योगिक क्षेत्र में स्थित फॉक्सकोन कंपनी के मज़दूर सू लिज्ही ने काम की नारकीय स्थितियों से तंग आ कर आत्महत्या कर ली। लिज्ही कविताएं लिखते थे। उन्होंने अपनी आत्महत्या से पहले ये कविताएं लिखी थी।
अपनी मौत के बिस्तर पर
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मैं फिर से एकबार समंदर देखना चाहता हूं,
निहारना चाहता हूं आंसूओं के इस
असीम को
मैं किसी पहाड़ पर फिर चढ़ना चाहता हूं
पुकारना चाहता हूं अपनी खो चुकी
आत्मा को
मैं छूना चाहता हूं आकाश,चाहता हूं महसूसना
नील-आभा को
लेकिन मैं नहीं कर सकता कुछ ऐसा,
इसलिए छोड़ता हूं ये दुनिया
जो भी मुझे जानता है
नहीं लगना चाहिए उसे अजीब- मेरे यूं मरने पर
होना चाहिए उसे कम दुख और दर्द
मैं ठीक था जब आया,
मैं ठीक था जब गया
(30 सितम्बर 2014)
उनकी कविताओं की दुनिया, उनकी उपमा उस अनुभव संसार तक लेकर जाती है जहां मध्यवर्ग झांकने से घबराता है। दुनिया की हर खूबसूरती का निर्माण करने वाले इस वर्ग का क्षोभ, उसकी उदासी और उसकी नफ़रत है लिज्ही की कविताओं में। जैसे…
मेरी आंखों के सामने कागज धुंधला के पीला सा होता है
स्टील की कलम से चोंक-चोंक
के किया है मैंने उसे कहीं-कहीं काला
काम से भरे शब्द
वर्कशाप, असेम्बली लाइन, मशीन, वर्ककार्ड, ओवर
टाइम, मजदूरी
उन्होंने मुझे दिया है प्रशिक्षण
दब्बू बनने रहने का
मुझे नहीं पता कि कैसे चिल्लाऊं, कैसे चीखूं
कैसे होती है शिकायत, कैसे
करते हैं मना
बस यही सीखा कि कैसे खामोशी से सहूं
दर्दभरी थकान
जब आया मैं पहली दफा यहां
महज आस रखी महीने की दस तारीख को, धूंसर
तनख्वाह वाले-कागज की
जो थोड़ी देर से ही सही देता था दिलासा
इसकी खातिर मैं पीस देता था अपना कोना, अपने
शब्द
काम से नहीं कर सकता था नागा, नहीं
मिलेगी बीमारी की छुट्टी
नहीं चलेगा कोई निजी बहाना
देर से आना नहीं है,जल्दी
जाना नहीं है
असेम्बली लाइन में खड़ा मैं सीधा लोहे
के छड़ माफिक, हाथ जैसे हवा में उड़ रहे हो
न मालूम कितने दिन, कितनी
रात
क्या मैं-ऐसे- खड़े-खड़े
सो गया ?
(20 अगस्त 2011)
अब तो मशीन भी नहीं कह रही है
बंद पड़े वर्कशाप में पड़ा है मुर्चाया
लोहा
मजदूरी पर्दों में छुपा दी गई है
जैसे नौजवान मजदूर,
अपने दिल में दफ्न रखते हैं मोहब्बत
फुर्सत नहीं जज्बातों के लिए,भावनायें
धूल में बिला जाती हैं
उनके पेट में भर गया है लोहा
है उसमें एसिड,सल्फर
और नायिट्रिक
जैसे गिरने को होते है उनके आंसू, कारखाना
उसे भी कब्जा लेता है
वक्त बीतता जाता है,उनके
सिर कुहांसे में गायब हो जाते हैं
बाहर का वजन घटाता है उनकी उम्र, दर्द
रात-दिन ओवरटाइम करता है
वे ताउम्र, वक्त
पूरा होने से पहले चक्कर खा के गिरते नहीं देखे जाते
आड़ी तिरछी बरछियां छील देती हैं त्वचा
वो ये तब है जब चमड़े पर अल्मुनियम की एक
परत सी चढ़ी है
कुछ फिर भी सहते जाते हैं, जबकि
बाकियों को उठा ले जाती है बीमारी
मैं उन दोनों के बीच ऊंघ रहा हूं, कर
रहा हूं रखवाली
हमारे नौजवानों के आखिरी कब्र की.
(21 दिसम्बर 2011)
संघर्ष
वे सब कहते हैं
मैं थोड़ा कम बोलता हूं
नहीं करता मैं इससे इन्कार
लेकिन सच तो ये है
मैं बोलूं या ना बोलूं
इस समाज से करूंगा हमेशा
संघर्ष
(7 जून 2013)
एक पेंच जमीन पर गिरा
एक पेंच गिर गया है जमीन पर
इस अंधेरी ओवरटाइम वाली रात में
उछल के हो गया है सीधा, हल्के
से झन्न बज के
नहीं खीचेगा ये किसी का ध्यान
पिछली बार की तरह
ऐसी रात में
जब तलक घुस न जाये किसी के पांव में
(9 जनवरी 2014)
एक तरह की भविष्यवाणी
गांव के बुर्जुग कहते हैं
मैं अपने दादा के जवानी के दिनों सा
दिखता हूं
नहीं रखता मैं इससे इत्तेफाक
लेकिन बार बार सुनने से
लगने लगा मुझे भी
मैं और मेरे दादा एक जैसे दिखते हैं
चेहरे के उतार-चढ़ावों में
मिजाज और आदत में
ऐसे जैसे हम दोनों ने लिया हो एक ही
कोख से जन्म
वे उन्हें ‘लग्गी’ कहते थे
और मुझे कपड़ा लटकाने वाला ‘हैंगर’
वो अक्सर निगल जाते थे अपने मन के भाव
अक्सर ही मैं मीठा बोलने लगता हूं
उन्हें पहेलियां बुझना अच्छा लगता था
मुझे होनी की पहले से लग जाती है खबर
1943
1943 के पतझड़ में,जापानी
दैत्यों ने किया था हमला
और जिन्दा जला दिया मेरे दादा को
23 की उम्र में
इस बरस मैं हो जाऊंगा तेईस का
(18 जून 2013)
मेरी जिन्दगी का सफर अधूरा रहा
ये ऐसी बात है जिसे किसी ने सोचा न था
मेरी जिन्दगी का सफर
है अभी मंजिल से बहुत दूर
लेकिन वो जा ठस हो गई आधे रास्ते पर
यूं नहीं कि ऐसी मुश्किलें
पहले नहीं आती थी
लेकिन वे यूं नहीं आयीं
इतने अचानक
इतनी खूंखार
लगातार संघर्ष
लेकिन बेकार है सब
मैं भी तोड़ फेंकना चाहता हूं सबकुछ,कहीं
किसी से भी ज्यादा
लेकिन मेरे पांव नहीं देंगे साथ
मेरा पेट नहीं करेगा मदद
मेरे शरीर की हड्डियां नहीं करेंगी
सहयोग
मैं अब केवल सीधा लेट सकता हूं
इस अंधेंरे में,बाहर
भेज रहा हूं
एक खामोश व्यथित संकेत,बार-बार
ताकि सुन सकूं असंतोष की गूंज
13 जुलाई 2014
मैंने लील लिया लोहे का बना चाँद
मैंने लील लिया लोहे का बना चाँद
वो इसे कील कहते हैं
मैं निगल गया, इस औद्योगिक मल को
बेरोज़गारी के सभी कागज़-पत्तर को
मशीनों पर झुके जवान
अपने समय से पहले मरते हैं
मैं बेचैनी और बेज़ारी
निगल गया,
निगल गयापैदल यात्रियों
वाले पुल को,जंग लगी जिन्दगी को
अब
और नहीं निगला जाता
जो सब निगला,
अब फूट रहा है मेरे गले से
पसर रहा है मेरे
पूर्वजों की जमीन पर
एक बेहूदी
कविता बनकर।
(19 दिसम्बर 2013)
किराए का कमरा
दस बाई दस का कमरा
सिकुड़ा और सीलन भरा,
साल भर धूप के बिना
यहां मैं खाता हूँ, सोता हूँ,
हगता हूँ, सोचता हूँ
खांसता हूँ, सिर दर्द झेलता हूँ, बूढ़ा
होता हूँ, बीमार पड़ता हूँ पर
मौत नहीं आती
फिर उस फीके पीले बल्ब के नीचे
मैं घूरता हूं शून्य में, बौड़म की तरह हंसते हुए
इधर से उधर काटता हूं चक्कर,
धीमी आवाज़ में गाता, पढ़ता, कविताएं लिखता
हर बार जब भी खोलता हूं खिड़की या ठेलता हूं दरवाजा
लगता हूं एक लाश की तरह
जो आहिस्ते से उठा रहा हो अपने ताबूत का ढक्कन
(2 दिसम्बर 2013)
सू लिज्ही (1990-2014) एक चीनी कवि और फ़ैक्टरी कर्मचारी थे। सू ने फॉक्सकॉन के लिए काम किया और अपनी आत्महत्या के बाद मीडिया का ध्यान मजदूरों के संघर्षों के तरफ मोड़ा , जिसके बाद उनके दोस्तों ने उनकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया।
उनकी कविता चुआंग (“डेड जेनरेशन”) में प्रकाशित है, जो ए.के. प्रेस द्वारा प्रकाशित निबंधों का संग्रह है। 30 सितंबर 2014 को सू ने एक इमारत से कूदकर आत्महत्या कर ली।