– पूनम अरोड़ा
स्त्री पक्ष के जिन आयामों को जिस ध्यानानिष्ठ और पारखी दृष्टि से चित्रकार गोगी सरोज पाल ने कैनवस पर उतारा है उससे ऐसी दुविधायें तो कम से कम दूर हो जाती हैं कि स्त्री संभावनाओं और सीमाओं के मध्य स्वयं को कई–कई बार कई अर्थों में दोहरा नहीं सकती, कि वह अपने बिखराव को बिना आध्यात्मिकता के सहारे ठोस वास्तविकता नहीं बना सकती, कि वह स्वयं के संगीत में आलिंगनबद्ध नहीं हो सकती. वह सहचर भी है और अबोध भी और अगाध भी. लेकिन इसका निर्णय अक्सर पितृसत्ता करती है. ऐसे निर्णय धीरे–धीरे स्त्री के लिए एक थकान बनने लगे और वह इस थकान को दूर करने के लिए अंगड़ाई भरने लगी. हर स्त्री अपनी केंचुली को समय–समय पर त्यागती जाती है और नये स्वरूप की आकृतियाँ धारण करती जाती है.
चित्रकार ने अपने चित्रों में मनुष्य और पशु के सम्मिलित आकारों को निर्मित कर स्त्री के प्रत्येक भाव को भय
से मुक्त करना चाहा है. मैं इसे किसी तरह का प्रयास नहीं कहूंगी बल्कि सचेत और सतत प्रकिया कहूंगी जिसके मंथन से न विष प्राप्त हुआ और न अमृत क्योंकि स्त्री न तो नर्क का द्वार है और न ही स्वर्ग की चेष्ठा.
यहाँ मैंने गोगी सरोज पाल के चित्रों में कुछ कथा–सूत्र पहचाने जिन्हें मन के शब्द देने का प्रयास किया
है.
1. काया और माया
जैसे रंग मनोभावों का अतिक्रमण
करते हैं और शोर एकांत का. उसी तरह का उलंघन जल भी करता है. जल की अतिरिक्त अपेक्षा रंगों से संवाद का एक जाल बुनती हैं. उनमें धीरे–धीरे कदम रखते हुए सामूहिक अतिक्रमण की क्रियाओं
में संवादों के ठोस लेकिन मृदुल बिंदुओं को रच देती है.
यह भी कैसा संसार है जहाँ जीवन की मुद्रायें साक्षात भी और अस्पष्ट–सा ईश्वर बन माया रूप में साथ–साथ चलती हैं. काया नग्न हो सकती है लेकिन नग्नता के प्रति रंग का संदेश शुभ को आलक्षित करता है.
जैसे काया ने अपनी माया को
रंगों के वस्त्रों से ढक लिया हो लेकिन माया ने काया के अंगों का उन्माद रच दिया हो.
2. {लोप}
अकारण नहीं, कि मैंने
कई बार ऐसा विश्वास करना चाहा कि स्त्रियाँ अपनी पूर्वज पीढ़ी के रंग ओढ़ती हैं अक्सर.
उनकी पोशाकों से उनकी अदृश्य देह का कभी पता नहीं लगाया जा सकता.
उनकी स्मृतियों को पहचानना किसी जटिलतम कार्य से थोड़ा सा और जटिल मान
लीजिए, बस इतना ही.
वे राग में मौन हो जाती हैं और अनुराग में लोप.
स्त्रियों के पास स्मृतियों
का इतना विशाल भंडारगृह होता है कि उन्हें गाँव–शहर की गलियाँ ठीक से याद नहीं हो पाती और
दूर देश के रिवाज़ों को वे भूलवश अपने देश में सींचने लगती हैं
स्त्रियाँ आत्मीयता का द्वार और शक्ति की पशु–देह होती हैं जैसे सारा अजन्मा संसार वे अपने गर्भ में
और जन्मा हुआ आभास गोद में सहेज लेंगी. सोचती हूँ उन्हें कोई भी रंग स्त्री पक्ष के जिन आयामों को जिस ध्यानानिष्ठ और पारखी दृष्टि से चित्रकार गोगी सरोज पाल ने कैनवस पर उतारा है उससे ऐसी दुविधायें तो कम से कम दूर हो जाती हैं कि स्त्री संभावनाओं और सीमाओं के मध्य स्वयं को कई–कई बार कई अर्थों में दोहरा नहीं सकतीपहना दो तो भी वे अपने चैतन्य का रंग अपनी आँखों में छुपा कर रख सकती हैं.
3. {श्वेत–श्याम}
उस स्त्री की ओर कभी मत देखो
जो करुणा की आसक्ति में हो. जिसकी ग्रीवा पारदर्शी हो और श्वास नाभि–तल
को छूती हो. वह अपने प्रारब्ध की सुकोमल
दृश्यवाहिनी बन एक अन्य संसार(नियति) में
हो सकती है और किसी छोटी–सी आहट से कांप भी सकती है.
देखना सुनियोजित बंधन भी हो
सकता है.देखना रंगों के प्रति शाप
भी हो सकता है.
उस स्त्री को कभी मत देखो
जो अपने किसी प्रिय के बिछड़ने की पीड़ा को आँखों से बहा रही हो और वह पीड़ा उसके प्रिय
पशु(शिशु)
के स्पंदनों में घुल रही हो.
उसे ठोस ईश्वर से बात करने
दो. उस ईश्वर
के तरल होने की अपनी यात्रा है.
4. {इल्हाम)
रक्त की भी स्मृति होती है. जैसे
जल सभ्यताओं की स्मृतियों को अपने गर्भ में पोषित करता है,
जैसे किसी अनुष्ठान में जल को मंत्रों से विचारित किया जाता है.
स्त्री का निर्माण भी स्मृति
द्वारा होता है और वह स्वयं भी अपनी स्मृतियों से अपना निर्माण करती है.
सुना है..
स्त्री नेत्रों द्वारा आह्वान
करती है. देह द्वारा
अनुष्ठान और रिक्ति द्वारा इल्हाम पाती है.
स्त्री को पुकारने के लिए
स्वर का तो जन्म होता है लेकिन कंठ नहीं जन्म पाते. स्त्री के सबसे उदास दिनों को सबसे गहरे रंग
इसलिए ही ओढ़ा दिए जाते हैं कि वह अपनी आँखों से झुठला सके स्वयं को.
हम जिस रहस्य को अपने धरातल पर देखते हैं, वह रहस्य फिसल कर कई और
सीढियाँ नीचे उतर जाता है. गूढता अक्सर मोहभंग करती हैं और श्रेष्ठता
भी.
5. {कापित्ता}
कई बार स्वप्न नींद के आखिरी
पहर में टूट जाते हैं. उससे पहले उलझी रहती हूँ स्वप्न के आईने में.
मैं अब से पहले यह नहीं जान पाई कि आइनों के भ्रम तोड़ने ही होते हैं.
अब जब तोड़ती हूँ तो रक्त की बूंदे मेरा होना बुझाने लगती हैं.
मेरा आकाश बन रहा है धीरे–धीरे लेकिन
मैं अंधेरे और उजाले के ग्रहण में खींची जा रही हूँ.
मेरा सौंदर्य निर्मित हो रहा
है धीरे–धीरे लेकिन
मैं अभी भी नहीं भूलती बीत जाने को बीतते देखना.
मैं नृत्य की एक हस्त–मुद्रा बनाती
हूँ ‘कापित्ता‘ और देर तक उसी मुद्रा में
समर्पित रहती हूँ. मैं आकार होने लगती हूँ
उसी हस्त–मुद्रा का कि ‘होना‘ अनिवार्यता को तराशता है.